केपी पद्धति में उपयोगी परिभाषायें –
किसी भी घटना के होने या ना होने मे कार्येश ही भूमिका निभाते हैं। यदि दशांतर्दशा आदि स्वामी किसी एक घटना के होने के कार्येश हैं तभी उस दशा विशेष में वह घटना घटेगी और वह लाभप्रद होगी या हानिकारक यह कार्येश का उपाधिपति निर्धारित करेगा। यदि कार्येष का उपाधिपति भी उस घटना से सम्बन्धित भावों का कार्येष है तो फल मिलेगा अन्यथा नही। यदि नकारात्मक भावो से सम्बन्धित है तो फल नकारात्मक मिलेगा।
कार्येषों को ज्ञात करने के लिये केपी में कई नियम दिये गये हैं परंतु इस लेख का उद्देश्य आपको केपी द्वारा फलित सिखाना है ना कि गणित, क्योंकि गणनाओं के लिये तो आज कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर सभी कार्येश निकाल कर दे देता है पूर्व निर्धारित केपी नियमो के द्वारा। कम्प्यूटर का ज्ञान ना भी हो तो आगे हम जो उदाहरण बतायेंगे उसके द्वारा भी आप कार्येषों को ज्ञात करना सीख जायेंगे।
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केपी पद्धति में ग्रहों की वैदिक दृष्टि का भी महत्व होता है, जैसे शनि तीसरी, सातवीं और दसवीं दृष्टि से किसी भाव या उसमे स्थित ग्रह को देखता है। महत्वपूर्ण बात केपी में यह बतायी गयी है कि जो कार्येष किसी ग्रह पर दृष्टि डालता है अथवा किसी ग्रह के साथ युति करता है तो वह ग्रह भी कार्येश बन जाता है। युति के सम्बन्ध में ज्योतिष मनीषियों के भिन्न भिन्न मत हैं, परंतु अधिकतर 3.3 डिग्री को मानते हैं, अर्थात यदि दो ग्रह भिन्न भावों में स्थित हैं परंतु अंशात्मक रूप से एक दूसरे से 3.3 डिग्री दूर हैं तो भी यह उनकी युति ही मानी जायेगी।
राहु-केतु को किसी राशि का स्वामित्व प्राप्त नही है । ये जिस राशि मे बैठते हैं उसके स्वामी के अनुसार फल देते हैं । केपी मे इस नियम मे थोड़ा परिवर्तन है –
इसमें भी भिन्न मत हैं कि पहले किससे सम्बन्धित फल वे देंगे। क्रम 1,2,3,4 को कई ज्योतिषी मानते हैं, पर यह अनुभव की बात है।
राहु-केतु जिस ग्रह का भी प्रतिनिधित्व करते हैं; घटना के समय निर्धारण के लिये उस ग्रह की अपेक्षा राहु-केतु को पहले महत्व देना चाहिये, ऐसा केपी का नियम है। उदाहरण के लिये यदि राहु शनि के नक्षत्र में स्थित है और शनि छठे भाव का कार्येश है तो छठे भाव से सम्बन्धित घटना के समय निर्धारण के लिये पहले राहु पर विचार किया जायेगा ना कि शनि पर।
यदि राहु केतु किसी कार्येश का प्रतिनिधित्व करते हैं तो वे स्वयं भी उस कार्येश से सम्बन्धित भावों के कार्येश हो जाते हैं और केपी में राहु-केतु को किसी भी अन्य कार्येश ग्रह से बलवान माना गया है अर्थात यदि सूर्य 10 वें भाव का कार्येश है और राहु भी 10 वें भाव का कार्येश है तो घटना के समय निर्धारण के लिये हमें सबसे पहले राहु को महत्व देना चाहिये।
केपी में रूलिंग प्लानेट अहम भूमिका निभाते हैं भविष्या कथन में, विशेष तौर पर प्रश्न कुंडली के अध्ययन में। रूलिंग प्लानेट ज्योतिषी के लिये ईश्वरीय सहायता हैं जो घटना के समय निर्धारण में अहम भूमिका निभाते हैं। रूलिंग प्लानेट्स 5 हैं –
उदाहरण के लिये यदि यदि प्रश्न के समय या जन्म के समय लग्न मेष राशि और शुक्र के भरणी नक्षत्र में स्थित है तो प्रथम 2 रूलिंग प्लानेट्स शुक्र (लग्न का नक्षत्राधिपति) और मंगल (मेष राशि का स्वामी) होंगे। इसी प्रकार चन्द्र के भी ज्ञात कर सकते हैं। दिनाधिपति प्रश्न या जन्म के वक्त जो वार का स्वामी होता है वह है। जैसे बुधवार को प्रश्न किया या बुधवार को जन्म हुआ तो दिनाधिपति बुध होगा। (यहां ध्यान रखने योग्य बात यह है कि हिन्दू ज्योतिष में वार सूर्योदय होने पर बदलता है ना कि रात्रि 00 घंटे पर)।
यदि राहु-केतु किसी भी रूलिंग प्लानेट से सम्बन्धित हैं (युति, दृष्टि, स्थिति, नक्षत्र के द्वारा) तो वे भी रूलिंग प्लानेट्स में शामिल कर लेने चाहिये।
केपी में रूलिंग प्लानेट्स का महत्वपूर्ण उपयोग सही जन्म-समय के निर्धारण (जन्म समय शुद्धि) जिसे बर्थ-टाईम-रेक्टिफिकेशन की संज्ञा दी गयी है, में होता है। किसी भी घटना के सटीक समय निर्धारण (घंटा मिनिट सेकंड तक) के लिये जन्म समय का शुद्ध होना अति आवश्यक है। इस क्षेत्र में काफी अनुसन्धान चल रहा है और कई विधियां प्रचलित हैं।
रूलिंग प्लानेट्स वे हैं जिस दिन और समय पर आप किसी कुंडली का निर्माण करते हैं। दशा निर्धारण में इनका अभी आप उपयोग समझ लीजिये। माना आपको एक कुंडली में विवाह का समय निर्धारण करना है, आपने मान लीजिये वह कुंडली 12-जून-2003 को शाम 05:30 बजे बनायी। तो उस दिन और समय पर जो ग्रह उपरोक्त परिभाषा के अनुसार लग्न, चन्द्र और दिन के ज्वाईट रूलर (राशि, नक्षत्र और दिनाधिपति) होंगे वे रूलिंग प्लानेट कहलायेंगे।
अब मान लीजिये रूलिंग प्लानेट मे शनि आ गया, तो प्रश्न का फल मिलने मे विलम्ब होगा क्योंकि शनि विलम्ब कराता है ((कुछ अपवादों को छोड़ कर)। अतः हमें ईश्वर से निर्देश मिल गया कि हम कोई अगली दशांतर्दशा के बारे मे विचार करें। इसी प्रकार यदि हमारे द्वारा यदि गुरु/शुक्र अंतर्दशा मे विवाह आता है एवं गुरु और शुक्र रूलिंग प्लानेट्स मे उपस्थित हैं तो घटना के लिये यह दशांतर्दशा विशेष हो जायेगी।
रूलिंग प्लानेट्स का उपयोग कार्येषों के चुनाव में भी होता है। जैसे यदि आपके पास नौ के नौ ग्रह विवाह के कार्येष हैं तो अधिक महत्वपूर्ण कार्येष के चुनाव में रूलिंग प्लानेट्स सहायता करते हैं। बस 5 रूलिंग प्लानेट्स में जो जो घटना से सम्बन्धित भावों के कार्येष हों उन्हें चुन लीजिये। जो रूलिंग प्लानेट वक्री ग्रह के नक्षत्र में स्थित है उसे हटा दीजिये।
जन्मकुंडली के सम्बन्ध में वक्री ग्रह के बारे में कोई विशेष कथन नहीं है, परंतु प्रश्न कुंडली के बारे में वक्री ग्रह अहम भूमिका निभाते हैं। यदि कोई ग्रह प्रश्न कुंडली में वक्री ग्रह के नक्षत्र में स्थित है तो उस पर विचार नहीं करना चाहिये, घटना उस वक्री ग्रह की दशांतर्दशा मे ना घटेगी। यदि कोई ग्रह वक्री ग्रह के उप (सब) में स्थित है तो घटना बाधाओं से युक्त होगी। वक्री ग्रह जब मार्गी होकर उन्ही अंशों पर आयेगा जहां से वह वक्री हुआ था तब तक घटना नहीं घट पायेगी।
केपी में राहु-केतु को वक्री नही माना गया है क्योंकि उनकी स्वाभाविक चाल ही वक्री है, अतः राहु केतु को वक्री ना मानें।
माना कि छठे भाव का भावारम्भ स्पष्ट – कर्क-23-45-50 है एवं सूर्य कर्क राशि में 12 अंश का स्थित है तो केपी भाव चलित कुंडली में चूंकि सूर्य की अंश-कला छठे भाव के आरम्भ की अंशकला से कम हैं। अतः सूर्य को पांचवे भाव में स्थापित किया जायेगा और सूर्य पांचवे भाव में बैठाया जायेगा । इस प्रकार सूर्य पांचवे भाव का कार्येष बन जायेगा।
सर्वाधिक बलवान से कमज़ोर कार्येष निम्नलिखित हैं –
उदाहरण – यदि शनि सातवें भाव में स्थित है और सूर्य शनि के नक्षत्र में स्थित है तो सूर्य शनि की अपेक्षा सातवें भाव का बलवाव कार्येष कहलायेगा। यदि कोई भी ग्रह शनि के नक्षत्र में स्थित हीं होता तो शनि स्वयं सातवें घर का बलवान कार्येष होता। यदि सातवा घर खाली होता और मेष राशि उसमे स्थित होती और मेष के स्वामी मंगल ग्रह के नक्षत्र मे यदि बुध होता तो बुध सातवे भाव का बलवान कार्येष कहलाता। और यदि इस स्थिति मे यदि मंगल के नक्षत्र मे कोई ग्रह ना होता तो स्वयं मंगल सातवें भाव का बलवान कार्येष बन जाता। मान लीजिये सातवे भाव का बलवान कार्येष राहु है और वह शुक्र पर दृष्टिपात कर रहा है तो राहु के साथ साथ शुक्र भी सातवे भाव का कार्येष बन जाता।
केवल प्रश्न कुंडली देखते समय उन कार्येषों पर विचार नहीं करना चाहिये जो वक्री ग्रह के नक्षत्र में स्थित हैं क्योंकि वे अपनी दशांतर्दशा मे सम्बन्धित घटना के घटने में सहायक नही होंगे। इस प्रकार सर्वाधिक बलवान कार्येष महादशा स्वामी बनता है, उससे कमज़ोर या बराबरी का अंतर्दशा स्वामी बनता है।
किसी भी घटना के घटित होने मे केवल दशांतर्दशा ही नही गोचर भी महत्वपूर्ण होता है। घटना के समय निर्धारण मे निर्धारित दशांतर्दशा के स्वामी यदि घटना से सम्बन्धित भावों के कार्येष हैं परंतु गोचर में ये दशांतर्दशा आदि स्वामी घटना के कार्येषों की राशि-नक्षत्र आदि से गोचर नही कर रहे हैं तो घटना नहीं घटेगी।
उदाहरण के तौर पर मान लीजिये विवाह के कार्येष – गुरु, बुध, शनि, राहु हैं – तो इन्हीं की दशांतर्दशा में विवाह होगा चाहे वह राहु/बुध/शनि/गुरु की दशांतर्दशा हो या गुरु/बुध/शनि/राहु की या कोई अन्य, परंतु विवाह तभी होगा जब गोचरीय स्थिति भी सहमत हो। अर्थात राहु/बुध/शनि/गुरु की दशांतर्दशा आदि मे विवाह तभी सम्भव है जब दशा-भुक्ति – अंतर -सूक्ष्म – प्राण नाथ सभी एक साथ इन कार्येशों की राशि नक्षत्रादि से भ्रमण करेंगे। लडकी की कंडली मे गुरु ग्रह विवाह का मुख्य कारक ग्रह होता है अत: इसका गोचर देखना भी जरूरी हो जाता है।
केपी में सूर्य के गोचर को महत्व दिया गया है कि जब दशांतर्दशा के समय जब सूर्य का गोचर दशांतर्दशा स्वामियों के राशि, नक्षत्रादि पर से होगा तब घटना घटेगी। शोध से ज्ञात हुआ है कि निम्न का गोचर महत्वपूर्ण होता है –
साथ ही हर घटना के कुछ कारक होते हैं उन का गोचर भी महत्वपूर्ण है – जैसे आयु का शनि, एक्सीडेंट के राहु, केतु, शनि, मंगल इत्यादि। अर्थात आयु / मृत्यु विचारते समय शनि का गोचर विचारना चाहिये, यदि शनि का गोचर बाधकेश और मारकेश या बाधक-मारक भावो मे स्थित ग्रहो आदि पर से हो रहा किसी दशांतर्दशा के समय तो वह अति कष्टकारक या मृत्युकारक हो सकती है।
केपी पद्धति में नक्षत्रों को महत्व दिया गया है। दशा पद्धति ऋषि पराशर द्वारा प्रदत्त विंशोत्तरी दशा पद्धति को घटनाओं के समय निर्धारण हेतु उपयोग में लाया जाता है। विंशोत्तरी दशा पद्धति 120 वर्ष की होती है जिसमें सभी ग्रहों (राहु केतु को छोड़ कर) को विभिन्न वर्ष दिये गये हैं। केतु और मंगल ग्रह की दशा 7 वर्ष, शुक्र की 20 वर्ष, सूर्य की 6 वर्ष, चंद्र की 10 वर्ष, राहु की 18 वर्ष, बृहस्पति की 16 वर्ष, शनि की 19 वर्ष, और बुध की 17 वर्ष की महादशा होती है।
7 + 20 + 6 + 10 + 7 + 18 + 16 + 19 + 17 = 120 वर्ष।
दशा कई वर्षों की होती है, अतः यह कहना कि आपका विवाह राहु की महादशा मे होगा सही प्रतीत नहीं होता क्योंकि राहु की महादशा तो 18 वर्षों की होती है? किस वर्ष, किस महिने, किस दिन आपका विवाह होगा यह जानना भी ज़रूरी है। इसलिये राहु की महादशा को पुन: 9 भागों में विभाजित किया जाना आवश्यक हो गया। इस प्रकार अंतर्दशा का जन्म हुआ। राहु मे राहु की अंतर्दशा 18*18/120 द 2.7 वर्षों की होती है।
इसी प्रकार और अधिक सूक्ष्म भविष्य कथन के लिये अंतर्दशा को भी पुनः 9 भागों में विभाजित किया गया और प्रत्यंतर और सूक्षमदशा को भी।
इस प्रकार दशा-अंतर्दशा-प्रत्यनतर्दशा-सूक्ष्मदशा-प्राणदशा ये पाँच प्राप्त हुए।
विंशोत्तरी महादशा प्रणाली में चंद्र की डिग्रियों के आधार पर 120 वर्षो के लिये दशांतर्दशा निकाली जाती है। जैसे,
यदि चंद्र – कर्क राशि में 23-45-50 का है, तो इसकी कुल डिग्री होंगी –
कर्क = 3 x 30 = 90 degree
23d – 45m – 50s (23 डिग्री 45 कला और 50 विकला ) इन्हे भी डिग्री में बदल कर 90 डिग्री में जोड़ देने से चंद्र स्पष्ट की कुल डिग्री आ जायेंगी।
90+23.7638888888 = 113.7638888888 चंद्र की कुल डिग्री हुई।
अब यदि हमें विंशोत्तरी दशायें निकालनी हैं तो इन्ही का उपयोग होता है । 1 नक्षत्र 13 डिग्री 20 मिनिट अर्थात 13.333333333 डिग्री का होता है।
चंद्र स्पष्ट की डिग्री / 1 नक्षत्र का मान = किस नक्षत्र में जन्म है उसका अंक
113.763888888/13.333333 = 8.532291669 अर्थात 8 नक्षत्र बीत चुके और नौवें नक्षत्र में जन्म हुआ है।
नौवां नक्षत्र आश्लेषा होता है। यदि इसके अधिपति को ज्ञात करना हो, तो उपरोक्त प्राप्त उत्तर (8.5322…) में 9 का भाग देकर जो शेष बचे वह ग्रह (विंशोत्तरी दशा क्रम में, अर्थात केतु, शुक्र, सूर्य…..बुध) महादशा का स्वामी या नक्षत्राधिपति कहलायेगा । केतु को शून्य गिनना चाहिये । इस प्रकार 0 से 8 तक गिना तो बुध नक्षत्र का स्वामी हुआ, तो कहा जायेगा कि इस व्यक्ति का जन्म बुध की महादशा में हुआ।
यही बुध केपी की भाषा में चंद्र का स्टार-लॉर्ड अर्थात नक्षत्राधिपति कहलाता है। इसी प्रकार से अंतर्दशा स्वामी को केपी में SUB (भुक्ति स्वामी या उपाधिपति या केवल उप), प्रत्यंतरदशानाथ को sub-sub (उप-उप), सूक्ष्मदशा नाथ को sub-sub-sub, और प्राणदशानाथ को sub-sub-sub-sub कहते हैं।
इन सभी दशानाथों को केपी में सामूहिक रूप से ज्वाईट पीरियड रूलर (joint period ruler) कहा जाता है। अर्थात ये 5 दशानाथ कुंडली के जिन जिन भावों से सम्बंधित होंगे उन्ही से सम्बंधित फल चंद्र की महादशा में जातक को प्राप्त होगा। यदि ये 2-7-11 भावो से सम्बन्धित हैं तो विवाह करवा सकते हैं।
ये तो केवल चंद्र की बात हुई। केपी में सभी ग्रहों और कस्पों (भावों) के ज्वाईट-पीरियड-रूलर्स का उपयोग फल-कथन में करना बताया गया है। अतः सभी ग्रहों और कस्पों के स्टार-लॉर्ड (नक्षत्राधिपति), सब-लॉर्ड (उपाधिपति), सब-सबलॉर्ड (उप.उपाधिपति या केवल उप.उप) निकाल लिये जाते हैं।
इसप्रकार 360 डिग्री के राशि-चक्र में 27 नक्षत्र होते हैं जिन्हें 249 उपनक्षत्रों में विभाजित कर दिया जाता है और इन 249 उपनक्षत्रों को और भी अधिक 2193 भागों में।
इस प्रकार हर ग्रह के 4 ज्वाईट रूलर्स राशिस्वामी, नक्षत्राधिपति, उपस्वामी एवं उप.उपस्वामी का उपयोग भविष्य कथन में किया जाता है। इसी प्रकार सभी कस्पों के भी अधिपतियों का उपयोग होता है। और यह उपयोग कैसे होता है इसके लिये श्री कृष्णमूर्ति जी ने विभिन्न नियम बनाये हैं, जिन्हें बाद में समझाया जायेगा।
यह सब गणित हमें स्वयं करने की आवश्यकता नहीं क्योंकि आज का युग कम्प्यूटर का युग है। किंतु हमें एक सही सॉफ्टवेयर का उपयोग करना आवश्यक है अन्यथा भविष्य कथन गलत हो सकता है। ज्योतिष्य-दीपिका, होरोसॉफ्ट, एस्ट्रो-कुंडली, आदि कुछ अच्छे प्रोग्राम हैं जो सही गणना करते हैं। वैसे आप स्वतंत्र हैं, बस खरीदते समय यह पूछ लीजिये कि क्या यह सॉफ्टवेयर केपी पद्धति की गणनायें कर सकता है या नहीं। केपी पद्धति की गणना का केवल यह अर्थ नहीं कि केवल केपी अयनांश का उपयोग किया और काम हो गया। नीचे कुछ सेटिंग्स दी जा रही हैं जो आपको एक सॉफ्टवेयर के उपयोग से पहले करना आवश्यक है।
इसके अलावा लग्न को विभिन्न भावों में स्थापित करने की व्यवस्था हो, अर्थात प्रश्न–कर्ता ने जिस व्यक्ति के बारे में प्रश्न किया है उससे सम्बंधित कस्प को लग्न बना कर कुंडली बना सके। उदाहरण के तौर पर – यदि बेटे ने पिता के लिये प्रश्न किया और केपी नम्बर 123 दिया तो सॉफ्टवेयर तो 123 अंक के हिसाब से प्रथम कस्प (लग्न) मानकर कुंडली तैयार कर देता है परंतु, चूंकि प्रश्न पिता के बारे मे है इसलिये सुविधा के लिये हमें 9वें भाव को प्रथम मानकर गणनायें करना होती हैं।
एक और बात विशेष अहमियत रखती है और वह है गोचर (Transit); जिससे सम्बंधित गणनायें भी सॉफ्टवेयर कर सकता हो। इसके अलावा कुंडली मिलान आदि की व्यवस्था भी हो।
तो चलिये शुरु करें कृष्णमूर्ति पद्धति के नियम समझना।
एक ग्रह अपने स्टार-लॉर्ड (नक्षत्राधिपति) के भावों का फल देता है अर्थात वह नक्षत्राधिपति जिन भावों का स्वामी है और जिस भाव में बैठा है।
उदाहरण के तौर पर – यदि सूर्य शनि के नक्षत्र में है (अर्थात सूर्य उस नक्षत्र में स्थित हो जिसका स्वामी शनि हो) एवं शनि 10 और 11 वें कस्प (भाव) का अधिपति है और 4 थे भाव में स्थित है तो सूर्य 10, 11 और 4थे भाव से सम्बन्धित फल देगा – जैसे चौथा घर माता/घर/मकान/भूमि/वाहन इत्यादि का होता है, दसवां घर कर्म/काम-धन्धे का, 11 वां घर लाभ / इच्छापूर्ति आदि का होता है। तो जब भी इनसे सम्बन्धित फलादेश करना होगा हमें सूर्य को महत्व देना होगा। इस प्रकार सूर्य अपने स्टार-लॉर्ड (नक्षत्राधिपति) के द्वारा इन भावों (4, 10, 11) का सिग्नीफिकेटर (कार्येश) कहलायेगा। और जब सूर्य की दशांतर्दशा आयेगी तो जातक को इन भावों से सम्बन्धित फल मिलेंगे यदि गोचर भी सहमति प्रदान करेगा।
अब बात आयेगी कि यह फल कैसा होगा? फायदेमन्द या नुकसानदायक? यह हमें सब-लॉर्ड (उपाधिपति) बतायेगा। यदि ग्रह का उपाधिपति भी ऐसे ग्रह के नक्षत्र में है जो इन भावों (4, 10, 11) से सम्बन्धित है तो घटना फायदेमन्द या सकारात्मकता से घटेगी। परंतु यदि उपाधिपति 4, 10, 11 वें भाव से 12वें अर्थात 3, 9 आदि का कार्येश है तो वह घटना नकारात्मक परिणाम देगी। यह सब हम बाद में उदाहरण के द्वारा समझेंगे।
इस प्रकार कौन सा भाव किस घटना के लिये लाभप्रद है और कौन सा भाव एक विशेष घटना के लिये हानिकारक है यह केपी में निर्धारित कर दिया गया है। जैसे विवाह के लिये मुख्य भाव 7 को माना गया है क्योंकि यह पत्नी/पति को दर्शाता है एवं 2 और 11 भाव इसके सहयोगी भाव हैं। अर्थात यदि विवाह देखना हो तो 2, 7, 11 को महत्व देना होगा। ये भाव विवाह के लिये सकारात्मक/लाभदायक परिणाम देने वाले भाव हैं, और केपी में इन भावों को हार्मोनियस भावों की संज्ञा दी गयी है। इन भावों से 12वें भाव अर्थात दूसरे भाव से बारहवां 1, सातवें से बारहवां यानि 6 और 11 वे भाव से बारहवां भाव 10, ये सभी विवाह के सम्बंध में नकारात्मक परिणाम देंगे क्योंकि बारहवां भाव व्यय का होता है। केपी मे इन नकारात्मक परिणाम देने वाले भावो को डेट्रिमेंटल हाउस की संज्ञा दी गयी है।
उदाहरण के लिये नीचे कुछ विशेष घटनाओं से सम्बंधित सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम देने वाले भाव दिये गये हैं –
विवाह:
नौकरी:
उदाहरण कुंड्ली -1
नीचे केपी आधारित कुंड्ली, ग्रह, भाव-स्पष्ट आदि दिये गये हैं। ग्रह-स्पष्ट एवं भाव-स्पष्ट सारिणी में कॉलम देखिये, क्रमश: ये हैं – रा.स्वा., न.स्वा., न.उप, उप.उप.। केपी में इन्हे क्रमश: साईन-लॉर्ड, स्टार-लॉर्ड, सब-लॉर्ड एवं सब.सब-लॉर्ड कहा जाता है। इन्हें बिना सॉफ्टवेयर से निकालने के लिये हमें गणित करना होगा, बस हर ग्रह एवं भाव के अंशों पर विंशोत्तरी दशांतर्दशा ज्ञात करने का गणित लगाना है। अर्थात हर ग्रह और भाव के लिये उसके अंशों के माध्यम से दशा-अंतर्दशा-प्रत्यंतर्दशा एवं सूक्ष्म दशा ज्ञात कर लेनी है। केपी में इन दशांतर्दशा आदि नाथों को ही स्टारलॉर्ड, सबलॉर्ड, सब.सबलॉर्ड आदि की संज्ञा दी गयी है और केपी में इन्हे सामूहिक रूप से ज्वाईट – पीरियड – रूलर्स कहा जाता है अर्थात सामूहिक-शासक।
इस प्रकार लग्न के सामूहिक-शासक शुक्र, मंगल, चन्द्र और गुरु होंगे (देखिये ग्रह स्पष्ट सारिणी; कॉलम)। इसी प्रकार प्रथम भाव (कस्प) के सामूहिक शासक ग्रह शुक्र, मंगल, चन्द्र और गुरु हैं। अर्थात प्रथम भाव (कस्प) ही लग्न होता है।
अब देखें कि कुंडली (चक्र) कैसे तैयार किया जाता है। जन्म कुंडली तो वैदिक रीति से तैयार हो जाती है, बस लग्न से शुरु करके जो ग्रह जिस राशि मे है उसमें बैठा दिये जाते हैं। हर एक भाव में 1 राशी होती है। देखिये उदाहरण में दी गयी जन्मकुंडली को। जन्मकुंडली के द्वारा हम ग्रहों की पारस्परिक दृष्टि एवं उनके उच्च, नीच, स्वराशि आदि की गणना कर सकते हैं। परंतु कस्प कुंड्ली ((देखिये उदाहरण कस्प कुंडली - निरयण भाव चलित कुंडली)) में राशियों का कोई काम नही है। दो भावो मे 1 राशि भी हो सकती है और 1 राशि में दो भाव भी। कार्येषों के निर्धारण में इसी कस्प कुंडली का उपयोग किया जाता है। अब यह देखें कि इसमें ग्रहों को भावो मे स्थापित करना है ना कि राशियो मे।
लग्न कुंडली में देखिये कि गुरु और चंद्र युति दशम भाव में कर्क राशि मे है परंतु कस्प कुंडली - निरयण भाव चलित कुंडली में चंद्रमा नौवें भाव मे स्थित है। उदाहरण कुंडली मे भाव-विवरण सारिणी देखिये कि दशम भाव का आरम्भ कर्क राशि के 07:41:09 अंशकलादि से हुआ है और अब चंद्र स्पष्ट देखिये जो है कर्क-02:28:46. चंद्र के अंश दशम भावारम्भ से कम हैं, इसलिये चंद्र को नौवें भाव मे स्थापित किया।
अब देखिये मंगल ग्रह को, मंगल ग्रह स्पष्ट है – वृश्चिक-24-37-20 और द्वितीय भावारम्भ है वृश्चिक – 04:33:42, मंगल ग्रह के अंश द्वितीय भावारम्भ से अधिक हैं, अतः कस्प कुंडली में मंगल द्वितीय भाव में ही स्थित है। इसी प्रकार सभी ग्रहों को कस्प कुंडली में बैठा देना चाहिये।
गुरु कस्प कुंडली में दशम भाव में स्थित है, केपी में गुरु को दशम भाव का ऑक्यूपेंट कहा जायेगा। भाव-विवरण तालिका में देखिये कि कस्प 3 एवं कस्प 6 गुरु की राशि धनु और मीन में क्रमश: स्थित हैं अत: गुरु इन भावों का स्वामी है, केपी में गुरु को इन भावों का ओनर (मालिक/स्वामी) कहा जाता है।
अब देखेंगे कि कार्येषों की गणना कैसे की जाती है। मैं पहले ही बता चुका हूँ कि मुख्य रूप से कार्येष 5 प्रकार के होते हैं,
केपी में यह planets conjoined with or aspected by a significator planet कहा जायेगा।
उपरोक्त पाँच प्रकार के कार्येष इसी क्रम में अधिकाधिक कमज़ोर कार्येष होते हैं। अर्थात पहले प्रकार के कार्येष अत्यधिक बलवान और पांचवे प्रकार के कार्येष सर्वाधिक कमज़ोर। इन्हे आगे क्रमश: लेवल-1, लेवल-2, लेवल3, लेवल-4, लेवल-5 कार्येष कहा जायेगा। परंतु यह ज़रूरी नहीं कि हमेशा हमें लेवल-1 कार्येष प्राप्त हो जायें क्योंकि यह हमेशा नहीं होगा कि किसी भाव में स्थित ग्रह के नक्षत्र में कोई ग्रह स्थित हो ही, यदि ऐसा ना हुआ तो उस भाव का लेवल-1 कार्येष प्राप्त नहीं होगा और उस भाव में स्थित ग्रह ही उस भाव का सबल कार्येष (लेवल-2) बन जायेगा, तो यही फल देगा उसी तीव्रता और बराबरी से। यह ध्यान रखना चाहिये कि यदि लेवल-1 कार्येष उपलब्ध है तो उन पर पहले विचार करना चाहिये। उदाहरण के लिये, इन लेवल-1 कार्येषों का उपयोग महादशा निर्धारण मे कर सकते हैं, लेवल-2 कार्येषों का उपयोग अंतर्दशा निर्धारण में इत्यादि।
अधिक सुविधा के लिये आप इन दो पृष्ठों जिन पर ग्रह स्पष्ट कुंड्ली आदि और कार्येष दिये गये हैं उनका प्रिंट निकलवा कर हाथ में लेकर आगे पढ़ें तो समझने में बहुत आसानी हो जायेगी।
सर्वप्रथम कस्प कुंड्ली देखिये कि किन किन भावों मे कोई ग्रह स्थित है। माना कि हमें नौवें भाव के कार्येषों की गणना करना है। नौवें भाव में चन्द्र स्थित है कस्प कुंड्ली में। तो अब ग्रह स्पष्ट सारिणी में न.स्वा. (स्टारलॉर्ड) वाला कॉलम देखिये कि कहां कहां चन्द्र आता है। चन्द्र एक बार आया है, उसके सामने ग्रह राहु (प्रथम कॉलम) लिखा है। अतः कहा जायेगा कि नवम भाव स्थित ग्रह चन्द्र के नक्षत्र में राहु स्थित है, अत: कहा जायेगा कि राहु नवम भाव का लेवल-1 कार्येष है। भावों के कारक ग्रह नामक तालिका में देखिये कि राहु के सामने और – भाव स्थित ग्रह के नक्षत्र में स्थित ग्रह – कॉलम में 9 अंक लिखा है जिसका मतलब हुआ कि राहु अपने नक्षत्राधिपति चन्द्र के माध्यम से नवम भाव का सर्वाधिक बलवान (लेवल-1) कार्येष हुआ। अतः नवम भाव से सम्बन्धित फल कथन (नौकरी मे बद्लाव, पिता, लम्बी यात्रा, उच्च शिक्षा आदि) में राहु मुख्य भूमिका निभायेगा।
कस्प कुंडली में देखिये कि चन्द्रमा नवम भाव मे स्थित है तो वह नवम भाव का लेवल-2 कार्येष कहलायेगा। सूर्य कस्प कुंडली में चतुर्थ भाव में स्थित है अतः सूर्य चतुर्थ भाव का लेवल-2 कार्येष होगा – देखिये - भावो के कारक ग्रह सारिणी – मे सूर्य चौथे भाव में दूसरे कॉलम (भाव स्थित ग्रह) में लिखा गया है। इसी प्रकार सभी लेवल-2 कार्येष हर भाव के निकाल सकते हैं।
भाव विवरण तालिका देखिये जिसमें सूर्य एकादश (11) कस्प का राशि-स्वामी है। तो अब ग्रह स्पष्ट तालिका मे यह देखिये कि न.स्वा. (स्टार लॉर्ड) वाले कॉलम मे कौन सा ग्रह सूर्य के नक्षत्र में स्थित है। आप पायेंगे कि बुध ग्रह सूर्य के नक्षत्र में स्थित है। अतः कहा जायेगा कि एकादश कस्प-स्वामी के नक्षत्र में स्थित बुध एकादश भाव का लेवल-3 कार्येष (कारक) हआ। और बुध को -ग्रहों के कारक ग्रह तालिका – मे भाव कस्प स्वामी के नक्षत्र में स्थित ग्रह कॉलम मे लिख देंगे। देखिये दूसरा पृष्ठ, सारिणी-1, 11 भाव और आखिरी कॉलम से पहले वाला कॉलम, आपको बुध लिखा दिखेगा।
आप यह भी देख सकते हैं कि एकादश भाव के लेवल-1 और लेवल-2 कार्येष नहीं हैं अर्थात बुध ही एकादश भाव से सम्बन्धित फल-कथन में मुख्य भूमिका निभायेगा और एकादश भाव का सबल कार्येष कहलायेगा।
प्रथम पृष्ठ की भाव-विवरण तालिका देखिये तो आप पायेंगे कि प्रथम कस्प का राशि स्वामी शुक्र है। अतः शुक्र प्रथम भाव का लेवल-4 कार्येष कहलायेगा । द्वितीय कस्प एवं सातवीं कस्प का स्वामी मंगल है। अत: मंगल इन दोनो भावो का लेवल 4 कार्येष होगा, देखिये पृष्ठ 2, सारिणी-1 , अंतिम कॉलम में मंगल को दूसरे और सातवें भाव के आगे लिखा गया है। इसी प्रकार सभी कार्येष निकाल लिये जाते हैं।
लेवल-5 कार्येष सर्वाधिक निर्बल कारक होते हैं परंतु घटना के समय निर्धारण और फल प्राप्ति के प्रतिशत की गणना में उनका योगदान होता ही है। जो दो पृष्ठ आपने प्रिंट लिये हैं उनमे आपको कार्येषों का यह प्रकार नहीं दिखेगा क्योंकि सॉफ्टवेयर में इन्हें निकालने का प्रावधान नहीं है। हम देखकर ही निकाल सकते हैं। एक कॉलम अंत मे पृष्ठ 2, तालिका-1 मे और जोड़ दीजिये – लेवल-5 कार्येष का।
दूसरे पृष्ठ में तालिका एक देखें तो आप पायेंगे कि बुध चतुर्थ भाव का लेवल-1 कार्येष है, परंतु चन्द्रमा इस भाव का कैसे भी कार्येष नही है, देखिये चन्द्र चौथे भाव मे किसी भी कॉलम मे नही आया है। अतः चन्द्रमा चौथे भाव का सीधी तरह से तो कारक नहीं बनता परंतु चन्द्रमा चौथे भाव के लेवल-1 कार्येष बुध के द्वारा दृष्ट है, अतः चन्द्र को चौथे भाव का लेवल-5 कार्येष कहा जायेगा । इसी प्रकार उपरोक्त चार प्रकार से प्राप्त लेवल-1 से 4 तक के कार्येषों से जो ग्रह युत है वह स्वयं भी उन भावों का लेवल-5 कार्येष बन जायेगा । बस इसी तरह सभी दृष्टियों और युतियों को देखकर लेवल-5 कार्येषों की गणना कर लीजिये। आपकी जानकारी के लिये बता देता हूँ कि ज्योतिष्य-दीपिका नामक सॉफ्टवेयर में लेवल-5 कार्येषों को भी बताया जाता है।
इनके अलावा कार्येषों के नक्षत्र में स्थित ग्रह भी कार्येषों के तौर पर लिये जा सकते हैं । राहु केतु यदि किसी भाव के कार्येष नही हैं परंतु उन भावों के कार्येषों से युत या दृष्ट हैं या उन कार्येषों के नक्षत्र में, राशि में स्थित हैं तो उन्हे उस भाव का सबल कार्येष माना जाता है।
केपी में राहु और केतु को सर्वाधिक बलवान कार्येष माना जाता है। वे जिन कार्येष ग्रहों का प्रतिनिधित्व (युति, राशि स्थिति, नक्षत्र आदि द्वारा) करते हैं उन कार्येष ग्रहों पर विचार करते समय राहु और केतु को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
लेवल-1 से लेवल-5 तक के कार्येष निकालने के बाद हो सकता है कि आपको एक भाव के लिये सभी 9 ग्रह कार्येषों के रूप में मिल जायें। तो घटना का समय निर्धारण किन कार्येषों की दशांतर्दशा में किया जाये यह प्रश्न उत्पन्न हो जायेगा। राहु-केतु सर्वाधिक बली कार्येष होते हैं, फिर लेवल-1, फिर लेवल-2 और अंततः लेवल-5 कार्येष अधिकाधिक निर्बल होते जाते हैं। तो आप महादशा निर्धारण में राहु, केतु और लेवल-1 कार्येषों पर विचार कर सकते हैं। यदि उस भाव का लेवल-1 कार्येष कोई नहीं तो आप लेवल-2 कार्येषों को महादशा निर्धारण का आधार बना सकते हैं।
देखिये पृष्ठ-2 सारिणी-2, ग्रहों द्वारा अधिसूचित भाव, जहां आप कार्येषों के बलाबल के आधार पर हर भाव के बली और निर्बल कार्येषों को देख सकते हैं। इसी पृष्ठ पर तालिका-1 देखिये जहाँ बुध चौथे भाव का लेवल-1 कार्येष लिखा गया है, और अब तालिका-2 देखिये कि बुध ग्रह के सामने अत्यधिक बली कारक के कॉलम मे 4 (चौथा भाव) लिखा गया है। अर्थात चौथे भाव का बुध सर्वाधिक बलवान कार्येष हुआ। इसी प्रकार तालिका-2 मे चन्द्र दशम भाव का बली कारक लिखा है। देखिये कि राहु चन्द्र के नक्षत्र में स्थित है, अर्थात राहु चन्द्र का प्रतिनिधित्व करता है और चूंकि चन्द्रमा दसवें भाव का फल देगा (कार्येष है) तो राहु भी दशम भाव का कार्येष बन जायेगा और चूंकि नियम यह कहता है कि यदि राहु केतु किसी कार्येष के प्रतिनिधि हों तो उस कार्येष के बजाय राहु-केतु पर सर्वप्रथम विचार करना चाहिये।
अतः जब भी हम दशम से सम्बन्धित फल प्राप्ति के लिये चन्द्र की दशांतर्दशा पर विचार करेंगे हमे पहले राहु की दशांतर्दशा पर विचार करना चाहिये।
रूलिंग प्लानेट्स 5 होते हैं –
कुछ ज्योतिषी लग्न और चंद्र के उप नक्षत्र स्वामियों को भी शामिल करते हैं। यदि राहु केतु इन रूलिंग प्लानेट्स से सम्बंधित (उनकी राशि मे, नक्षत्र मे, युति मे, उनसे दूष्ट आदि) हों तो उन्हे भी रूलिंग प्लानेट्स (शासक-ग्रह) में शामिल करना आवश्यक हो जाता है। इन रूलिंग प्लनेट्स की गणना ज्योतिषी के कुंडली बनाते समय की दिनांक, वार, समय और स्थान के आधार पर होती है – जिस भी दिन और समय वह अध्ययन के लिये कुंडली देखता है। रूलिंग प्लानेट्स इश्वरीय सहायता हैं। केपी में प्रश्न कुंडली के अध्ययन के समय ऐसे रूलिंग प्लनेटस को हटा दिया जाता है जो किसी वक्री ग्रह के नक्षत्र में स्थित होते हैं। जैसे यदि शनि वक्री है और चंद्र शनि के नक्षत्र मे होने के साथ साथ रूलिंग-प्लानेट्स में भी उपस्थित है तो चंद्र को हटा दिया जायेगा, क्योंकि इसकी दशांतर्दशा में विचारणीय घटना नहीं घटेगी।
यदि जन्म कुंडली का अध्ययन कर रहे हैं तो वक्री ग्रह के नक्षत्र में स्थित ग्रह केवल घटना घटने में अड़चने / विलम्ब आदि पैदा करेगा।
कार्येषों के चुनाव में इनकी भूमिका यह है कि विचारणीय भावों के यदि 4 से अधिक कार्येष हैं तो तो चुनाव के लिये उन कार्येषों को लेना उपयुक्त होगा जो रूलिंग-प्लानेट्स में भी उपस्थित हैं। उन कार्येषों में बलवान वह होगा जो स्वयं बलवान रूलिंग प्लानेट होगा। वारेश सबसे कमजोर रूलिंग प्लानेट माना गया है।
कोई घटना कब घटेगी अर्थात किस दशा-अंतर-प्रत्यंतर-सूक्ष्म दशा मे वह होगी? यह घटना से सम्बन्धित भावों के कार्येष बताते हैं। उदाहरण के लिये आपको उच्च शिक्षा पर विचार करना हो तो उसके लिये मुख्य भाव 9 है और सहायक भाव 4 और 11 हैं। अतः जब भी 4,9,और 11 भावों के कार्येषों की दशांतर्दशा चलेगी जातक उच्च शिक्षा प्राप्त करेगा।
मुख्य प्रश्न यह है कि घटना घटेगी या नहीं घटेगी? यदि हम पहले यह देख लें कि एक घटना कुंडली में घटने के योग हैं या नहीं तभी आगे अध्ययन करेंगे, अन्यथा व्यर्थ समय नष्ट करने से क्या लाभ? इसके लिये केपी में उपाधिपति / न.उप.(सबलॉर्ड) की सहायता ली जाती है।
नियम यह कहता है कि किसी कस्प का न.उप. (आगे इसे केवल उप. से सम्बोधित किया जायेगा) जिसे केपी में cuspal sublord कहते हैं, किसी भाव का उप. यदि उस भाव का या उसके सहयोगी भावों का कार्येष है तो उन भावों से सम्बंधित बातें फलित होंगी अन्यथा नहीं। चूंकि हर भाव कई घटनाओं का प्रतिनिधित्व करता है अत: उस भाव या घटना के मुख्य कारक ग्रह पर भी विचार करना आवश्यक हो जाता है।
उदाहरण के तौर पर यदि लड़की की कुंडली मे विवाह का अध्ययन करना है तो मुख्या भाव 7 वां, एवं सहायक भाव 2 और 11 होते हैं। कन्या के विवाह का मुख्य कारक ग्रह बृहस्पति को माना गया है, अत: 2, 7, 11 के साथ बृहस्पति का विचार भी आवश्यक है। केपी में हर भाव एवं घटना से सम्बंधित इस मुख्य ग्रह को chief-governer की संज्ञा दी गयी है। अतः इस मुख्य कारक ग्रह का भी विचाराधीन भावों से सकारात्मक सम्बंध होना आवश्यक है और यह सम्बंध यदि भाव के उपाधिपति के नक्षत्र के माध्यम से है तो यह विशेष हो जाता है। अर्थात यदि एक भाव का उपाधिपति जिस नक्षत्र में स्थित है उस नक्षत्र का स्वामी यदि मुख्य कारक ग्रह से सम्बंधित है (राशि, स्थिति, दृष्टि, नक्षत्र आदि द्वारा) तो घटना का होना तय हो जाता है। उदाहरण के तौर पर यदि कन्या के विवाह का मुख्य कारक ग्रह गुरु हो, सातवें भाव का उपाधिपति बुध यदि मंगल के नक्षत्रा में हो और इस मंगल का गुरु के साथ सम्बंध हो तो विवाह होना तय हो जाता है।
किसी कार्येष का उपाधिपति (न.उप.) यदि घटना से सम्बंधित भाव या सहायक भावों के लिये सकारात्मक है तो घटना के सकारात्मक परिणाम मिलेंगे अन्यथा नहीं। उदाहरण के लिये यदि गुरु विवाह से सम्बंधित सकारत्मक (harmonius) भावों का कार्येष है तो विवाह से सम्बंधित घटना घटेगी परंतु यदि इस कार्येष गुरु का उपाधिपति घटना से सम्बंधित सकारात्मक भावों 2, 7 या 11 से सम्बंधित नहीं है बल्कि इनसे 12वें भावों क्रमश: 1, 6, 10 से सम्बंधित है तो विवाह नहीं होगा, या तय होकर सम्बंध टूट जायेगा इत्यादि इत्यादि नकारात्मक परिणाम विवाह के सन्दर्भ में प्राप्त होंगे। अतः किसी घटना के शुभ फल के लिये उस घटना के कार्येषों के उपाधिपति भी शुभ फल देने वाले हों तभी उन कार्येषों की दशांतर्दशा में सम्बंधित घटना घटेगी अन्यथा नहीं।
केपी में कई किताबों में और आलेखों में आप connected with शब्द का उपयोग देखेंगे । इसका अर्थ है – सम्बंधित। अर्थात कौन सा ग्रह किस अन्य ग्रह या भाव से सम्बंध रखता है। किसी घटना के फलित होने के लिये केवल दशांतर्दशानाथों का उस घटना से सम्बंधित भावों का कार्येष होना ही काफी नहीं है, इन कार्येषों के उपाधिपतियों का भी घटना से सम्बंधित भावों से सम्बंध होना आवश्यक है तभी घटना घटेगी। यदि कार्येषों के उपाधिपति घटना से सम्बंधित नकारात्मक भावों से सम्बंध रखेंगे तो उन कार्येषों की दशांतर्दशा मे घटना नहीं घटेगी। कार्येष केवल घटना का स्रोत बताते हैं। अर्थात
यदि सूर्य चौथे भाव का कार्येष है तो सूर्य की दशा में आपको भूमि/भवन की प्राप्ति तभी सम्भव होगी जब सूर्य का उपाधिपति भी इसकी सहमति प्रदान करता हो । यदि यह उपाधिपति चौथे की अपेक्षा उससे बारहवें भाव 3 से सम्बंध रखता है तो हो सकता है कि भूमि/भवन हाथ से निकल जाये।
मान लीजिये कि गुरु शनि की राशि मकर या कुम्भ में स्थित है;
या
गुरु शनि के नक्षत्र या न.उप. में स्थित है; या गुरु शनि के साथ युतबद्ध है;
या
गुरु शनि से दूष्ट है – तो कहा जायेगा कि गुरु शनि से सम्बंधित है (jupiter is connected with saturn)
इसी प्रकार किसी भी ग्रह का दूसरे किसी ग्रह से सम्बंध निकाला जाता है।
मान लीजिये कि गुरु लग्न का राशेश या नक्षत्राधिपति या न.उप. है; या
गुरु लग्न/ प्रथम भाव में स्थित है; या
गुरु प्रथम भाव पर दृष्टिपात करता है; या
गुरु प्रथम भाव में स्थित ग्रह के नक्षत्र या न.उप. में स्थित है; या
गुरु प्रथम भाव के स्वामी के नक्षत्र या न.उप. में स्थित है; या
गुरु प्रथम भाव के स्वामी के साथ युतबद्ध है; या
गुरु प्रथम भाव के स्वामी द्वारा दृष्ट है – तो कहा जायेगा कि गुरु प्रथम भाव से सम्बंधित है (Jupiter is connected with the 1st house)
मान लीजिये कि 6, 8 या 12 वें भाव का स्वामी चौथे भाव में स्थित है या चौथे भाव पर दृष्टि डाल रहा है तो कहा जायेगा कि चौथा भाव 6, 8 या 12 वें भाव से सम्बंध रखता है – (4th house is connected with house 6,8 or 12)
इसी प्रकार मान लीजिये कि चौथे भाव का स्वामी 6, 8 या 12 वे भाव में स्थित है; या चतुर्थेश 6, 8 या 12 भाव के स्वामी के नक्षत्र में स्थित है; या सुखेश को 6, 8 या 12 का स्वामी ग्रह देखता है या उसके साथ युति बनाता है तो यह कहा जायेगा कि चौथा भाव 6, 8 या 12 से सम्बंधित है – (4th house is connected with the house 6, 8 or 12)
इसका उपयोग कार्येषों के बलाबल के निर्धारण के काम आता है। मान लीजिये कि विवाह का कार्येष अ. छठे भाव से सम्बंधित है एवं कोई दूसरा विवाह का कार्येष ब. 1, 6 या 10 (विवाह के लिये नकारात्मक परिणाम देने वाले भाव) से सम्बंधित नही है बल्कि 2, 7, 11 से सम्बंधित है तो कहा जायेगा कि कार्येष ब. कार्येष अ. से बलवान है और कार्येष अ. से पहले विवाह सम्बंधित शुभ फल प्रदान करेगा।
अब यह भी बता ही देता हूँ कि किस घटना के लिये कौन सा भाव सकारात्मक परिणाम देने वाला होगा और कौन से भाव नकारात्मक परिणाम देने वाले होंगे – नीचे दी गयी सारणी को देखिये।
घटना प्रमुख एवं सहायक भाव प्रतिकूल भाव
विवाह ७-२-११ ६-१-१०-१२-८
सन्तति ५-२-११ ४-१-१०-८-१२
शिक्षा ४-९-११ ३-५-८-१२
छात्रवृत्ति ६-९-११ ५-८-१२
वाहन खरीदना ४-११ १२-३-८
घर खरीदना ४-११ १२-३-८
घर बेचना १०-५-६ ४-८-११-१२
ऋण लेना ६-११ ५-१२
ऋण मुक्ति १२-८ ६-११
विदेश यात्रा १२-३-९ २-४-११
नौकरी ६-१०-२-११ १-५-९-१२-८
स्थानांतरण १०-३-१२ ४-८
पदोन्नति १०-६-२-११ ९-५-८-१२
जन्म समय की शुद्धि एक दुरूह कार्य है और विभिन्न केपी-गुरुजनों के भिन्न मत हैं, भिन्न विधियां हैं और अभी भी इस पर शोधकार्य चल रहा है।
अब बारी है और सूक्ष्मता से विभिन्न घटनाओं के बारे मे नियमों को समझने की – आगे जीवन की मुख्य घटनाओं और उनसे सम्बन्धित केपी के नियमों का उल्लेख किया जा रहा है –
यदि लग्न का न.उप बाधक और मारक भावों का कार्येष हो तो बाधक
और मारक भावों के कार्येषों की दशांतर्दशा में जीवन को खतरा हो सकता है और यदि ये कार्येष लग्न या अष्टम भाव के सामूहिक शासक हों तो इनकी दशांतर्दशा बहुत हानिकारक / नाजुक होती है । यदि लग्न का न.उप (सबलॉर्ड) निम्न भावों का स्वामी हो तो –
मारक भाव – 2, 7, 12 हैं क्योंकि ये आयु-भावों क्रमश: 3, 8, 1 से द्वादश स्थान हैं।
बाधक भाव – चर राशि के लग्न के लिये बाधक भाव ग्यारहवां, स्थिर राशि की लग्न के लिये बाधक भाव नौवां और द्विस्वभाव राशि के लग्न के लिये सातवां भाव बाधक होता है। जैसे कर्क लग्न का जन्म है तो चूंकि कर्क चर राशि है अतः ग्यारहवां भाव बाधक होगा। बाधक स्थान का अधिपति ग्रह बाधकेश कहलाता है। बाधक स्थान में स्थि ग्रह और उन ग्रहों के नक्षत्र में स्थित ग्रह हानिकारक होते हैं। बाधक स्थान मारक स्थान से अधिक हानिकारक होता है इसलिये बाधक का विचार प्राथमिकता से करना चाहिये और फिर मारक भावो का। एक बात और कि केपी में सही भावों का चुनाव अत्यावश्यक है यह पहले भी बता चुका हूँ। यहां यह बताना चाहता हूँ कि हम किसी जातक की कुंडली द्वारा भी उसके रिश्तेदारों की आयु का आंकलन कर सकते हैं। उदाहरण के तौर पर – यदि पुत्र की कुंडली में पिता की आयु/मृत्यु का विचार करना हो तो उस कुंडली के नौवें भाव को पिता का लग्न मानकर विचार करना चाहिये। अर्थात पुत्र की कुंडली में नौवे स्थान से सम्बन्धित मारक और बाधक की गणना करनी चाहिये पिता की आयु ज्ञात करने के लिये।
विवाह पर बहुत चर्चा हो चुकी इसलिये सीमित शब्दों में बताता हूँ। विवाह के लिये मुख्य भाव 7 है और सहायक भाव 2 और 11 हैं। प्रेम सम्बंध का मुख्य भाव 5 है। यदि भाव-5 का उपाधिपति 2 या 11 भाव का सबल कार्येष हो या इन भावों से किसी भी प्रकार से जुड़ा हो तो प्रेम सम्बंध दर्शाता है। यदि यह न.उप. राहु या केतु से जुड़ा हो तो प्रेमी दूसरी जाति / धर्म / समाज का होता है।
इसी प्रकार यदि भाव-7 का न.उप. भाव-5 या 11 का सबल कार्येष हो; या फिर वह किसी प्रकार से 5 या 11 से जुड़ा हो तो व्यक्ति का विवाह अपने प्रेमी से होता है, अर्थात प्रेम विवाह होता है। यदि यह न.उप किसी प्रकार से राहु या केतु से जुड़ा हो तो प्रेम-विवाह अंतर्जातीय होता है।
जब भाव-7 का न.उप 2, 7 या 11 भाव का कार्येष होता है तो 2, 7, 11 के कार्येषों की दशांतर्दशा में विवाह होता है।
यदि भाव-7 का उपाधिपति 1, 6 या 10 का कार्येष है या इन भावों से जुड़ा हुआ है तो यह अच्छे वैवाहिक जीवन का संकेत नहीं है बल्कि एक तरह से यह वैवाहिक जीवन की अनुपस्थिति दर्शाता है। इसी प्रकार से भाव-2 और 11 के उपाधिपति के कार्येषत्व पर भी विचार करना आवश्यक है।
भाव-4 जातक के घर का होता है और उससे बारहवां यानि भाव-3 घर से दूरी दर्शाता है। इसी प्रकार भाव-9 विदेश यात्रा या लम्बी यात्राओं का और भाव-12 किसी अज्ञात स्थान पर पूरी तरह से अपरिचित वातावरण में जीवन को दर्शाता है। इस प्रकार 3, 9, 12 भाव विदेश यात्रा के लिये देखे जाते हैं। भाव-12 मुख्य है। यदि भाव-12 का उपाधिपति 3, 9 या 12 का सबल कार्येष हो या इन भावों से सम्बन्ध रखता हो तो विदेश यात्रा की पुष्टि होती है और यह यात्रा 3, 9 और 12 भाव के कार्येषों की दशांतर्दशा में होती है।
भाव-4 से सामान्य शिक्षा, परीक्षा की तैयारी, शैक्षिक योग्यता, विद्यालय या महाविद्यालय में नियमित हाजिरी आदि का विचार करते हैं। भाव-9 गहन अध्ययन, उच्च शिक्षा और अनुसंधान का भाव है। भाव-11 सफलता, इच्छापूर्ति का भाव है। गुरु और बुध शिक्षा के मुख्य कारक ग्रह हैं।
यदि भाव-4 का उपाधिपति बुध या गुरु हो; या वह 4, 9 या 11 का सबल कार्येष हो या इन भावों से जुड़ा हो या फिर वह गुरू या बुध से जुड़ा हो (विशेष तौर पर यदि इस उपाधिपति का नक्षत्राधिपति गुरु या बुध से सम्बंधित हो) तो जातक 4, 9 और 11 के कार्येषों की दशांतर्दशा में शैक्षिक योग्यता प्राप्त करता है।
छठा भाव प्रतियोगी परीक्षा का है और सातवां भाव जातक के प्रतियोगी का । सातवें का व्यय ही छठा भाव है, अर्थात प्रतियोगी को हानि और जातक को लाभ।
जातक की पढाई 3, 5 और 8 भावों (क्रमशः 4, 6, 9 से बारहवे) के कार्येषों की दशांतर्दशा में पूरी होती है या आगे के लिये स्थगित हो जाती है। मतलब जब सही दशा आयेगी तो वह फिर आगे की पढाई शुरु करेगा।
यदि भाव-10 (व्यवसाय/ पेशा) या भाव-6 (नौकरी) का उपाधिपति भाव-10 (नौकरी या व्यवसाय), भाव-2 (संग्रहित/ संचित धन, स्वयं अर्जित धन) या भाव-6 (सेवारत, नौकरी पर दिन-प्रतिदिन की हाजिरी, दूसरों से धन की प्राप्ति) का सबल कार्येष हो या 2, 6 या 10 से जुड़ा हो तो जातक 2, 6 और 10 के कार्येषों की दशांतर्दशा में नौकरी या व्यवसाय करेगा। यदि भाव-2 या भाव-11 का न.उप. भाव-2, 6 या 11 का सबल कार्येष हो; या इन भावों से सम्बंध बनाये तो जातक 2, 6 और 11 भाव के कार्येषों की दशांतर्दशा में धन अर्जित करेगा।
यदि भाव-7 (व्यापार, उद्योग) का न.उप. 2, 10 या 11 का सबल कार्येष हो या इन भावों से सम्बंध बनाता हो तो 2, 10, 11 भावों के सम्मिलित कार्येषों की दशंतर्दशा में जातक व्यापार या उद्योगधंधे में सफलता हासिल करेगा और धन कमायेगा।
यदि भाव-10 का न.उप 2, 7 या 11 का सबल कार्येष हो या इन भावों से जुड़ा हो तो जातक को 2, 7, 11 के कार्येषों की दशांतर्दशा में स्वतंत्र व्यापार / उद्योग में सफलता मिलती है ।
यदि 2 या 11 का उपाधिपति 2, 6 या 11 का कार्येष हो या इनसे सम्बंधित हो तो 2, 6, 11 के कार्येषों की दशांतर्दशा में जातक धन-सम्पत्ति अर्जित करता है। परंतु यदि 2 या 11 का उपाधिपति केवल 8, 12 या 5 का कार्येष हो तो जातक को भाव 8 और 12 के कार्येषों की दशांतर्दशा में धन-हानि उठानी पड़ती है। क्योंकि 8, 12 और 5 सातवें भाव के क्रमश: 2, 6, 11 भाव होते हैं और सातवां भाव यानि जातक को हानि और दूसरे को लाभ।
यदि भाव-7 (व्यापार, साझेदारी, उद्योग) का उपाधिपति 8 या 12 का सबल कार्येष हो तो जातक को 8 और 12 भाव के कार्येषों की दशांतर्दशा में व्यापार व्यवसाय आदि में धन की हानि झेलना पड़ती है।
अब जातक कौन सा व्यवसाय, उद्योग-धंधा या नौकरी करेगा यह तो बारीक अध्ययन से पता लगाना होगा और उसके लिये आपको ग्रहों की दृष्टि, राशियों और ग्रहों के स्वभाव, आदि कई बातों पर एक साथ विचार करना होगा। इसी प्रकार बीमारी कौन सी होगी, शरीर के किस अंग को प्रभावित करेगी आदि बातों के लिये भी हर राशि और ग्रह के स्वभाव प्रकृति आदि की जानकारी होना आवश्यक है।
टिप्पणी – उपर दिये अंकों में अंक 1 को मेष, 2 को वृषभ … 12 को मीन राशि समझें ।
प्रशासन – सूर्य और चन्द्र से देखा जाता है।
रक्त – इसका प्रतिनिधित्व सूर्य, चन्द्र और मंगल सम्मिलित रूप से करते हैं।
दृष्टि – सूर्य चन्द्र और भाव 2 और 12 से देखते हैं।
पिता – सूर्य और नौवें भाव से।
पुत्र संतान – सूर्य, गुरु और दशम।
अनुसन्धान – सूर्य और बुध।
सीना – चंद्र और चतुर्थ भाव से
भावनात्मक शांति – चंद्र और भाव-5
मानसिक शांति – चंद्र और भाव – 4
सार्वजनिक सम्बंध – चंद्र
माता – चंद्र और चतुर्थ भाव
दुर्घटना, रक्त मज्जा, जनन सम्बन्धी, पेशीय तंत्र, साहस – मंगल द्वारा देखे जाते हैं।
छोटे भाई – बहन – मंगल और तृतीय भाव से।
गर्दन – मंगल, शुक्र और दूसरे भाव से
जनन सम्बन्धी – मंगल, शुक्र और अष्टम भाव से
एकाग्रता, योग्यता, विष्लेषण क्षमता, त्वचा – बुध (शुक्र त्वचा का गौड़ कारक है) से।
भुजायें – बुध, भाव 3 और 11 से।
आत्म-विश्वास/साहस – बुध
पाचन – बुध, गुरु, सूर्य और भाव-6 से।
भाषण – बुध, केतु और भाव-2 से।
श्वसन कार्यप्रणाली और लेखन – बुध और भाव-3।
गिलटी (ग्लैंड्स), पति, धन, यकृत, बुद्धिमत्ता, दयालुता, – गुरु ग्रह से देखते हैं अर्थात गुरु इनका मुख्य कारक ग्रह है।
धमनी / रक्त वाहिका – गुरु और नवम भाव से।
श्रवण-शक्ति – गुरु, 3 और 11 भाव से।
नसयुक्त तंत्र, शिरायें , सुख, भोग, आनन्द, भोग-विलास – शुक्र से।
किडनी (गुर्दे) – शुक्र और भाव-6 से।
पत्नी – का मुख्य कारक ग्रह शुक्र है।
जोड़, घुटने – शनि और दशम भाव से।
दीर्घायु – शनि और भाव 8 एवं 12 से।
मजदूर / कामगार – शनि।
आंत सम्बन्धी बीमारी – राहु एवं केतु से देखें।
जहर, दवाएं – राहु से।
फेरबदल – राहु से।
विद्रोहजनक हालात / जलने सम्बन्धी – केतु।
आध्यात्मिकता – केतु, 5, और 9 भाव से।
शल्य चिकित्सा – केतु और मंगल से।
दुख/आपदा/विपत्ति – केतु।
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