कृष्णमूर्ति ज्योतिष पद्धति की खोज का श्रेय दक्षिण भारत के श्री कृष्णमूर्ति जी को जाता है। इस पद्धति को संक्षेप में KP Astrology भी कहते है। कृष्णमूर्ति जी ने वैदिक ओर पाश्चात्य ज्योतिष का अध्ययन किया ओर पाया कि परम्परागत या प्रचलित ज्योतिष के माध्यम से किसी घटना के फलित होने के समय का सटीक निर्धारण करना संभव नहीं है। लेखको की बातों में मतभेद होना भी इसका प्रमुख कारण था। इसके अतिरिक्त ज्योतिष के लाखों हजारो श्लोको को याद कर पाना भी सामान्य जन के लिए सरल नहीं है।
इस समस्या को सुलझाने के लिए श्री कृष्णमूर्ति जी ने वैदिक ओर पाश्चात्य ज्योतिष का गहन अध्यन करके उसमे अपने कुछ नवीन शोध का समावेश कर दिया ओर प्राप्त निष्कर्ष को कृष्णमूर्ति पद्धति का नाम दिया।
परंपरागत ज्योतिष में 27 नक्षत्र होते है, परंतु केपी जी ने हर नक्षत्र को भी 9 भाग में विभाजन कर दिया। जिसे उन्होने उप-नक्षत्र का नाम दिया। इसी उपनक्षत्र के कारण ही KP Astrology अन्य परंपरागत ज्योतिष से अधिक सटीक है - इसके माध्यम से बिजली कब आएगी, ट्रेन कब आएगी, बारिश कब रुकेगी आदि प्रश्नो का भी जवाब दिया सा सकता है। जो परंपरागत ज्योतिष से संभव नहीं है।
इस पद्धति को सीखना ओर प्रयोग में लाना भी आसान है क्योंकि इसमे पारंपरिक ज्योतिष के समान हजारो हजार योग नहीं है। इसे साधारण मनुष्य भी थोड़े से प्रयास से सीख सकता है इसलिए KP Astrology को 21वी सदी के ज्योतिषियों के लिए बहुत कारगर माना जाता है।
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परम्परागत ज्योतिष (Traditional Astrology) में लग्न राशि, भाव, भावेश तथा कारकतत्वों को ध्यान में रखते हुए फलादेश (Predictions) किया जाता है। लग्न में स्थित राशि की विशेषताओं के अनुसार लग्न भाव अर्थात व्यक्ति के शरीर का विचार किया जाता है। लग्न पर किसी प्रकार का कोई अशुभ प्रभाव होने पर शारीरिक क्षमता (Physical Capacity) प्रभावित होती है। लग्न भाव में जो ग्रह स्थित होते हैं उसका प्रभाव व्यक्ति के स्वभाव पर पड़ता है, ऐसा माना जाता है। लग्न में स्थित राशि का जो भी ग्रह स्वामी होता है उसके गुण भी व्यक्ति के स्वभाव में देखे जाते हैं। शेष भावों का विश्लेषण भी ठीक इसी प्रकार किया जाता है।
परम्परागत ज्योतिष की यह भी मान्यता है कि भाव और भावेश को देख रहे कारकतत्व भी व्यक्ति को मिलने वाले फलों पर प्रभाव डालते हैं। कृष्णमूर्ति पद्धति (Krishnamurti Paddhati) कुछ बातों में पारम्परिक ज्योतिष के समान है लेकिन, कई बातों में कृष्ण्मूर्ति पद्धति पारम्परिक ज्योतिष से भिन्न भी है। आइये देखें कि दोनों ज्योतिष पद्धति में क्या समानता है और क्या असमानता।
समानताएं (Similarities) :
लग्न में स्थित राशि के विषय पर दोनों पद्धतियां में यह समानता है कि दोनों ही राशियों की मूल विशेषताओं को समान रूप से स्वीकार करते हैं। जैसे:- मेष राशि पर मंगल का स्वामित्व है यह दोनों पद्धतियों में मान्य है। मेष राशि की विशेषताएं तथा मंगल ग्रह की विशेषताएं अर्थात बल, साहस, जोश इत्यादि पर दानों ही एक मत हैं। कृष्णमूर्ति पद्धति को जन्म कुण्डली व प्रश्न लग्न के रुप में प्रयोग किया जाता है।
विषमताएं (Differences) :
परम्परागत ज्योतिष में जहां लग्न में स्थित राशि को महत्व दिया जाता है। वही कृष्णमूर्ति पद्धति (Krishnamurti Paddhati) में लग्न जिस नक्षत्र में स्थित हों तथा नक्षत्र का जो स्वामी हो उसे महत्व दिया जाता है। नक्षत्र स्वामी को अधिक महत्व देने का कारण इस पद्धति में कारकतत्वों के स्थान पर कार्येश (घटना को घटित करने वाला ग्रह) का विश्लेषण करते हुए फलादेश करने का प्रयास किया जाता है। कार्येश जिन राशियों में जिन नक्षत्रों व जिन ग्रहों से दृष्ट होता है। उन्हीं के अनुसार घटना के घटित होने की संभावना रहती है।
समानताएं (Similarities) :
ये दोनों ही पद्धतियां नक्षत्रों पर आधारित है। पराशरी ज्योतिष भी जन्म नक्षत्र पर आधारित पद्धति है। इसमें जन्म नक्षत्र के अंशों के अनुसार ही जन्म समय के बाद की दशा आरम्भ होती है। इसी प्रकार कृष्णमूर्ति पद्धति में नक्षत्र व नक्षत्र स्वामियों को अधिक महत्व दिया गया है। कृष्णमूर्ति पद्धति (Krishnamurti Paddhati) में नक्षत्र स्वामी ग्रह महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते है। दोनों में ही नक्षत्रों के गुण धर्म का प्रयोग नहीं किया जाता है। ग्रहों की तरह नक्षत्रों की भी अपनी विशेषताएं होती है। जिनका उल्लेख इस पद्धति में कहीं नजर नहीं आता है। इसलिये दोनों पद्धतियों को नक्षत्र आधारित पद्धति कहा जा सकता है।
विषमताएं (Differences) :
कृष्णमूर्ति पद्धति में नक्षत्र के स्वामी को विशेष महत्व दिया जाता है। इसमें देखा जाता है कि किसी भाव में जो ग्रह स्थित है, वह किस ग्रह के नक्षत्र में है तथा उस ग्रह के अन्य नक्षत्रों पर किन ग्रहों का अधिकार है। पराशरी ज्योतिष में इन बातों को शामिल नहीं किया गया है। समय का सूक्ष्म निरीक्षण करने के लिये कृष्णमूर्ति का यह नियम बहुत ही उपयोगी है। इससे फलदेश घटना के अत्यन्त निकट होता है।
समानताएं (Similarities) :
दोनो ही पद्धतियों में कुण्डली के भावों के नाम व भावों की सामान्य विशेषताएं समान है। जैसे: तीसरे घर को पराक्रम, आवागमन, यातायात, यात्रा, लेखन आदि का घर कहा जाता है। भावों की यह विशेषताएं दोनों ही पद्धतियों में समान रुप से स्वीकार की जाती हैं।
विषमताएं (Differences) :
कृष्णमूर्ति पद्धति में भाव मध्य को आधार बनाकर कुण्डली तैयार की जाती है। इस प्रणाली में किस भाव का कौन सा अधिपति है। यह देखने के स्थान पर भाव स्थित ग्रह के नक्षत्र स्वामी को देखा जाता है। नक्षत्र के स्वामी की राशियों पर कौन से ग्रहों का अधिकार है तथा वे ग्रह किन नक्षत्रों में है यह देखा जाता है। परम्परागत ज्योतिष पद्धति में इस नियम को आधार बनाकर कुण्डली तैयार नहीं की जाती है। परम्परागत ज्योतिष में नक्षत्रों के अधिपतियों को भी अधिक महत्व नहीं दिया जाता है।
कृष्णमूर्ति पद्धति (Krishnamurti Paddhati) में शुभ, अशुभ, उंच, नीच को नहीं माना जाता है। इस पद्धति में जो ग्रह कार्येश बनता है। वह महत्वपूर्ण होता है। तथा घटना के घटित होने में वहीं ग्रह महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शेष ग्रह षडबल में बली होकर भी बली नहीं माने जाते है। परन्तु परम्परागत ज्योतिष पद्धति में भावों में बली ग्रह ही फल देने में समर्थ होता है। ग्रह के शुभ होने पर शुभ फल व अशुभ होने पर इसके विपरीत फल प्राप्त होते है।
कृष्णमूर्ति पद्धति (Krishnamurti Paddhati) में हर नक्षत्र को नौ भावों में विभाजित किया जाता है। इस प्रकार 27 नक्षत्रों के 249 भाग किये जाते है। सूक्ष्म फलादेश करने में इनका प्रयोग किया जाता है। इसके विपरित परम्परागत ज्योतिष में विंशोत्तरी दशा के नौ भाग किये जाते है। जिसके फलस्वरुप अन्तर्दशा ज्ञात की जाती है। कृष्णमूर्ति पद्धति आधुनिक ज्योतिष में एक नवीन प्रयोग के समान है। जिसमें नये अनुभवों में वृद्धि हो रही है।
कृष्णमूर्ति पद्धति (Krishnamurti Paddhati) में किसी भी घटना को जानने के लिये एक ही सामान्य नियम का प्रयोग किया जाता है। जिसमें घटना से संबन्धित प्रमुख भाव का उपनक्षत्र स्वामी उस भाव की घटनाओं का कारक होता है। इन घटनाओं से संबन्धित प्रश्नों के उतर जानने के लिये उपनक्षत्र व कार्येश का ही विश्लेषण किया जाता है।
कालनिर्णय अर्थात घटना कब होगी, यह जानने के लिये विंशोतरी महादशा का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार परम्परागत पद्धति व कृष्णमूर्ति पद्धति (Krishnamurti Paddhati) दोनों में ही विंशोतरी महादशा प्रयोग की जाती है।
प्राचीन हिंदू ज्योतिष में अचानक से होने वाली घटनाओं को जानने के लिये प्रश्न कुण्डली का प्रयोग किया जाता है। कई बार प्रश्न कुण्डली में एक साथ कई प्रश्न किये जाने पर फलादेश करते समय दिक्कतें आने की गुंजाइश रहती है। कृष्णमूर्ति पद्धति (Krishnamurti Paddhati) में 1 से 249 के मध्य की कोई भी संख्या जान कर इस प्रकार की परेशानियों को हल करने की व्यस्था है। प्रश्नकर्ता के द्वारा बताई गई संख्या से प्रश्न कुण्डली का लग्न निर्धारित होता है। जिससे प्राप्त होने वाले फल आमतौर पर सही माने जाते हैं। कृष्णमूर्ति पद्धति (Krishnamurti Paddhati) में यह एक नया प्रयोग है।
तत्कालीन कार्येश से अभिप्राय प्रश्न समय में जो लग्न उदित हुआ हो उस लग्न का स्वामी कार्येश हो सकता है या फिर चन्द्र जिस नक्षत्र में हो उस नक्षत्र का स्वामी कार्येश हो सकता है अथवा चन्द्र जिस राशि में स्थित हो उस राशि का स्वामी भी कार्येश हो सकता है। प्रश्न करते समय जो वार हो उस वार का स्वामी भी कार्येश बन सकता है। इन सभी में से कोई एक जो घटित होने वाली घटना से सबसे अधिक जुड़ा हो वह कार्येश बनने की योग्यता रखता है।
कृष्णमूर्ति पद्धति (Krishnamurti Paddhati) में संधि लग्न पर स्थित राशियां ज्ञात की जाती है। भाव संधि से ग्रह का सही भाव ज्ञात किया जाता है। संम्बन्धित घटना किस दशा- अन्तर्दशा व विदिशा में होगी यह ज्ञात किया जा सकता है। घटना का समय निकालने के लिये इसका प्रयोग किया जाता है। इस आधार पर ही व्यक्ति के जन्म समय का शुद्धिकरण किया जा सकता है।
तो आइये इस विद्या को सीखकर अपना और अपनों का भविष्य सवारते है, लेकिन इसके पूर्व इस पद्धति के जनक श्री कृष्णमूर्ति जी के जीवन को संक्षेप में जान लेते है।
श्री कृष्ण मूर्ति जी का संक्षिप्त परिचय (Short Biography of K.S. Krishnamurti)
श्री कृष्णमूर्ति का जन्म 1.11.1908 को तमिलनाडू राज्य के थिरुवैयारू (Thiruvaiyaru) में हुआ था। श्री कृष्णमूर्तिजी ने तिरुचिरापल्ली के सेंट जोसेफ कालेज से अपनी शिक्षा प्राप्त कर सन 1927 को तमिलनाडू सरकार के स्वास्थय विभाग (Public Health Department) में पद संभाला। परंतु ईश्वर तो उनसे कुछ और ही करना चाहते थे।
कृष्ण मूर्ति जी ने भारतीय और पाश्चात्य दोनों ज्योतिष का गहनता से अध्यन किया और जो काल चक्र के कारण ज्योतिष में त्रुटि आ गयी थी उसे समझकर ज्योतिष के कुछ नए आयाम निकाले। ज्योतिष में और गहनता से उतरने के लिए कृष्णमूर्ति जी ने 19 सितंबर 1961 को सेवा से स्वैच्छिक निवृति लेकर अपना जीवन पूर्णतः ज्योतिष को समर्पित कर दिया।
कृष्ण मूर्ति जी ने अपने अनुसंधान से प्राप्त निष्कर्ष को समझाने के लिए 1963 में एस्ट्रोलोजी एवं अथरिष्ट मासिक पत्रिका (Astrology and Athrishta Magazine) निकाली और भारत के विभिन्न क्षेत्र में ज्योतिष अन्वेषण और अनुसंधान केंद्र की भी स्थापना की। इसके अतिरिक उन्होने केपी ज्योतिष को 6 पुस्तकों के रूप में भी प्रकाशित किया।
कृष्णमूर्ति जी की अपनी सभी पुस्तके इंग्लिश भाषा में प्रकाशित की थी। जिस कारण ज्योतिषियों का एक बड़ा वर्ग वर्षों तक KP ज्योतिष को समझने में असमर्थ रहा था। अब कृष्णमूर्ति ज्योतिष की पुस्तके हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषा में भी उपलब्ध है। कलयुग के ऋषि श्री कृष्णमूर्ति जी का निधन 29 मार्च सन 1972 को हुआ।
कृष्णमूर्ति पद्धति के बारे में बात करने से पहले मैं बात करना चाहूँगा कर्म के सिद्धांत के बारे में जिसका उल्लेख प्रो. के. एस. कृष्णमूर्ति जी ने अपनी पुस्तक "FUNDAMENTAL PRINCIPLES OF ASTROLOGY" में किया है। क्योंकि चाहे जीवन हो या ज्योतिष, ये सब कर्म ही तो हैं जो इनका निर्धारण करते हैं। जीवन और ज्योतिष में कर्मों के सम्बन्ध और महत्त्व को समझने लिए ही कर्मों के सिद्धांत को पहले समझना आवश्यक सा दिख पड़ता है। कृष्णमूर्ति जी ने अपनी पुस्तक में कर्मों की तीन श्रेणियों का जिक्र किया है।
1. दृढ़ कर्म
2. दृढ़ अदृढ़ कर्म
3. अदृढ़ कर्म
1. दृढ़ कर्म:- कर्म की इस श्रेणी में उन कर्मों को रखा गया है जिनको प्रकृति के नियमानुसार माफ नहीं किया जा सकता। जैसे क़त्ल, गरीबों को उनकी मजदूरी न देना, बूढ़े माँ - बाप को खाना न देना, ये सब कुछ ऐसे कर्म हैं जिनको माफ नहीं किया जा सकता। ऐसा व्यक्ति अपने जीवन में चाहे कितने ही शांति के उपाय करे लेकिन उसका कोई भी प्रत्युत्तर उन्हें दिखाई नहीं पड़ता है, चाहे ऐसे व्यक्ति इस जीवन में कितने ही सात्विक जीवन को जीने वाले हों लेकिन उनको जीवन कष्टमय ही गुज़ारना पड़ता है। वे अपने जीवन के दुखों को दूर करने के लिए विभिन्न ज्योतिषीय उपाय करते देखे जाते हैं। लेकिन अंत में हारकर उन्हें यही कहने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि ज्योतिष और उपाय सब कुछ निरर्थक है, लेकिन ये बात तो एक सच्चा ज्योतिषी ही जानता है कि क्यों यह व्यक्ति कष्टमय जीवन व्यतीत करने को बाध्य है।
2. दृढ़ अदृढ़ कर्म:- कर्म की इस श्रेणी में जो कर्म आते है उनकी शांति उपायों के द्वारा की जा सकती है अर्थात ये माफ किये जाने योग्य कर्म होते हैं। जैसे कोई व्यक्ति कोलकाता जाने लिए टिकट लेता है परन्तु भूलवश मुम्बई जाने वाली ट्रेन में बैठ जाता है। ऐसी स्थिति में टिकट चेक करने वाला कर्मचारी पेनल्टी के पश्चात उस व्यक्ति को सही ट्रेन में जाने की अनुमति दे देता है। ऐसे व्यक्ति सदैव ज्योतिष और इसके उपायों की तरफदारी करते नजर आते हैं।
3. अदृढ़ कर्म:- (नगण्य अपराध) ये वे कर्म होते हैं जो एक बुरे विचार के रूप में शुरू होते हैं और कार्य रूप में परिणत होने से पूर्व ही विचार के रूप में स्वतः खत्म हो जाते हैं। जैसे एक लड़का आम के बाग को देखता है और उसका मन होता है, कि बाग से आम तोड़कर ले आये लेकिन तभी उसकी नजर रखवाली कर रहे माली पर पड़ती है और वह चुपचाप आगे निकल जाता है। यहाँ बुरे विचारों का वैचारिक अंत हो जाता है अतः ये नगण्य अपराध की श्रेणी में आते हैं और थोड़े बहुत साधारण शांति - कर्मों के द्वारा इनकी शांति हो जाती है। ऐसे व्यक्ति ज्योतिष के विरोध में तो नहीं दिखते लेकिन इसके ज्यादा पक्षधर भी नहीं होते।
ज्योतिष का एक जिज्ञासु विद्यार्थी होने के नाते कहना चाहूँगा कि सभी को अपनी दिनचर्या में साधारण पूजन कार्य और मंदिर जाने को अवश्य शामिल करना चाहिए क्योंकि ये आदत पता नहीं कितने ही अदृढ़ कर्मों से जाने - अनजाने में छुटकारा दिला देती है।
कृष्णमूर्ति पद्वति किसी भी ज्योतिषिय विधा से सीखने में न केवल सरल है, अपितु एकदम सटीक भी है। पूज्यनीय दादा गुरु श्री केएस कृष्णमूर्ति जी ने जब इसका आविष्कार किया तो सोचा भी नहीं होगा कि यह तेजी से लोकप्रिय होगी और हर आय, आयु वय के लोग इसे सीखना चाहेंगे। दक्षिण भारत से लेकर उत्तर भारत में इसे सिखाने के तरीके भी अलग-अलग हैं। यह इतनी आसान और रोचक है कि आप बातों-बातों में और अपने रोजमर्रा के कामकाज करते हुए आसानी से इसे सीख सकते हैं।
भचक्र (वकपंब) - सूर्य पथ वृत्ताकार 360 अंश लम्बा तथा 15 अंश चौड़ा होता है। इसे भचक्र कहते हैं। यह 12 बराबर भागों में बंटा हुआ है। प्रत्येक भाग 30 अंश का होता है। इसे राशि कहते हैं। इनके नाम क्रमशः मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, मीन हैं। यह भचक्र 27 बराबर भागों में बंटा हुआ है। प्रत्येक भाग को नक्षत्र कहते हैं। प्रत्येक नक्षत्र 13 अंश 20 कला का होता है। इनके नाम क्रमशः अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आद्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वभाद्र, उत्तराभाद्र और रेवती हैं।
ग्रह नौ होते हैं। सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहू, और केतू। तीन नए ग्रह प्लूटो, युरेनस एवं नेप्चून हैं। (इन तीन नए ग्रहों के बारे में फिर विवेचन करेंगे)।
1- मेष - मंगल
2- वृष - शुक्र
3- मिथुन - बुध
4- कर्क - चंद्र
5- सिंह - सूर्य
6- कन्या - बुध
7- तुला - शुक्र
8- वृश्चिक - मंगल
9- धनु - गुरु
10- मकर - शनि
11- कुम्भ - शनि
12- मीन - गुरु
सूर्य एक राशि में लगभग एक माह तक रहता है।
चंद्र एक राशि में लगभग सवा दो दिन तक रहता है।
मंगल एक राशि में लगभग डेढ़ माह तक रहता है।
बुध एक एक राशि में लगभग एक माह तक रहता है।
गुरु एक राशि में लगभग एक वर्ष तक रहता है।
शुक्र एक राशि में लगभग एक माह तक रहता है।
शनि एक राशि में लगभग ढाई वर्ष तक रहता है।
राहू एक राशि में लगभग डेढ़ वर्ष तक रहता है।
केतु एक राशि में लगभग डेढ़ वर्ष तक रहता है।
सूर्य 1 मेष 5 सिंह 7 तुला 5 सिंह
चंद्र 2 वृष 2 वृष 8 वृश्चिक 4 कर्क
मंगल 10 मकर 1 मेष 4 कर्क 1 मेष, 8 वृश्चिक
बुध 6 कन्या 3 मिथुन 12 मीन 3 मिथुन, 6 कन्या
गुरु 4 कर्क 9 धनु 10 मकर 9 धनु, 12 मीन
शुक्र 12 मीन 7 तुला 6 कन्या 2 वृष, 7 तुला
शनि 7 तुला 11 कुम्भ 1 मेष 10 मकर, 11 कुम्भ
हम सभी जानते हैं कि मकर संक्रांति सदैव 14 जनवरी को होती है। मकर संक्रांति का अर्थ सूर्य का मकर राशि में प्रवेश होता है तथा सूर्य एक राशि में एक माह तक रहता है। अर्थात-सूर्य 14 जनवरी से 13 फरवरी तक दसवीं राशि मकर में रहता है।
14 जनवरी से 13 फरवरी तक दसवीं राशि मकर में रहता है।
14 फरवरी से 13 मार्च तक ग्यारहवीं राशि कुंभ में रहता है।
14 मार्च से 13 अप्रैल तक बारहवीं राशि मीन में रहता है।
14 अप्रैल से 13 मई तक पहली राशि मेष में रहता है।
14 मई से 13 जून तक दूसरी राशि वृष में रहता है।
14 जून से 13 जुलाई तक तीसरी राशि मिथुन में रहता है।
14 जुलाई से 13 अगस्त तक चौथी राशि कर्क में रहता है।
14 अगस्त से 13 सितम्बर तक पांचवीं राशि सिंह में रहता है।
14 सितम्बर से 13 अक्तूबर तक छठी राशि कन्या में रहता है।
14 अक्तूबर से 13 नबम्बर तक सातवीं राशि तुला में रहता है।
14 नबंवर से 13 दिसंबर तक आठवीं राशि वृश्चिक में रहता है।
14 दिसंबर से 13 जनवरी तक नौवीं राशि धनु में रहता है।
नोट: निम्न सारणी में 1 अश्विनी, 10 मघा, 19 मूल के स्वामी केतू और इसी प्रकार 2 भरणी, 11 पूर्वाफाल्गुनी, 20 पूर्वाषाढ़ के स्वामी शुक्र क्रम से होते हैं.—
1 अश्विनी 10 मघा 19 मूल केतू
2 भरणी 11 पूर्वाफाल्गुनी 20 पूर्वाषाढ़ शुक्र
3 कृतिका 12 उत्तराफाल्गुनी 21 उत्तराषाढ़ सूर्य
4 रोहिणी 13 हस्त 22 श्रवण चंद्र
5 मृगशिरा 14 चित्रा 23 धनिष्ठा मंगल
6 आद्रा 15 स्वाति 24 शतभिषा राहू
7 पुनर्वसु 16 विशाखा 25 पूर्वाभाद्र गुरु
8 पुष्य 17 अनुराधा 26 उत्ताराभाद्र शनि
9 आश्लेषा 18 ज्येष्ठा 27 रेवती बुध
लग्न: किसी निर्धारित समय पर पूर्व दिशा में क्षितिज पर जहां सूर्योदय होता है, वहां जो राशि उदय हो रही होती है, वह राशि लग्न कहलाती है।
1- एक राशि लगभग दो घंटे तक रहती है। चौबीस घंटों में बारह राशियाँ पृथ्वी का एक चक्कर लगा लेती हैं।
2- जिस राशि में सूर्य होता है, सूर्योदय के समय वही राशि उदय हो रही होती है।
3- राहू-केतू सदैव एक दूसरे से विपरीत दिशा अर्थात एक दूसरे से 180 (डिग्री) अंश पर होते हैं?
4- बुध सदैव सूर्य के साथ अथवा सूर्य से एक भाव आगे या पीछे हो सकता है।
5- शुक्र सदैव सूर्य के साथ अथवा सूर्य से दो भाव तक आगे या पीछे हो सकता है।
6- एक राशि 30 अंश की होती है।
7- एक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं। प्रत्येक नक्षत्र 13 अंश 20 कला का होता है।
8- प्रत्येक नक्षत्र में 4 चरण होते हैं। एक चरण 3 अंश 20 कला का होता है।
9- कुंडली में पहले भाव में जो राशि होती ह, वह राशि उस जातक की लग्न कहलाती है।
10- कुंडली में चंद्र जिस राशि में होता है, वह राशि उस जातक की राशि कहलाती है।
11- अमावस्या के दिन सूर्य-चंद्र एक ही राशि में एक ही भाव में होते हैं।
12- चन्द्र 24 घंटे तक एक ही नक्षत्र में रहता है।
13- सूर्य और चंद्र सदैव सीधी गति से चलते हैं।
14- मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि की गति भी सीधी है, किन्तु कभी-कभी इनमें से कोई ग्रह वक्री हो कर मार्गी हो जाता है।
15- राहू और केतू सदैव उलटी गति से ही चलते हैं।
16- राहू और केतू ठोस ग्रह नहीं हैं। यह चंद्र जहां सूर्य पथ को उत्तर तथा दक्षिण में काटता है, उन बिंदुओं को ही राहू और केतू कहते हैं। इन बिंदुओं का प्रभाव ग्रहों के प्रभाव से अधिक होने के कारण इन्हें भी ग्रह मान लिया है।
यह सूर्य घड़ी का समय होता है तथा हमारी घड़ी से यह 24 घंटों में लगभग 4 मिनट अधिक तेज चलती है। कृष्णमूर्ति पंचांग में प्रातः पांच बजकर तीस मिनट का साम्पातिक काल एवं ग्रहों की दैनिक स्थित होती है। हिंदी पंचांग के पांच अंग होते हैं-तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण। लग्न सारिणी में दिए गये साम्पातिक काल के समय के भाव स्पष्ट लग्न, द्वितीय, तृतीय, दशम, एकादश एवं द्वादश भाव दिए होते हैं। इन भावों में 6 राशियां जोड़ने से इनके सामने वाले भाव (चतुर्थ, पंचम, छठा, सप्तम, अष्टम व नवम स्पष्ट हो जाते हैं।) बाजार में उपलब्ध सारिणी में भाव सायन पद्धति में दिए हैं। सायन में से अयनांश घटाने से निरयन भाव निकल आते हैं। भारत में निरयन पद्धति पर ही ज्योतिष आधारित है।
पृथ्वी अपनी धुरी से कुछ झुकी हुई है। यह झुकाव लगभग 1 (एक ) मिनट प्रति वर्ष बढ़ जाता है। वर्ष 1999 में यह झुकाव 23 डिग्री 45 मिनट था और वर्ष 2020 में केपी अयनांश 24.03.00 है।
भारत लगभग 70 अंश देशांतर से 95 अंश देशांतर तक पश्चिम से पूर्व तक फैला हुआ है। भारतीय समय निर्धारण हेतु 82 अंश 30 कला का देशांतर मानक मान लिया है। इस मानक से समस्त भारत की घड़ियां समय दर्शाती हैं, जिसे हम भारतीय मानक समय कहते हैं। विश्व के समस्त देशों के समय उन देशों के मानक पर निर्भर करते हैं। उदाहरण के लिए इंग्लेंड का मानक 0 अंश देशांतर है। भारत के मानक से यह 82 अंश 30 कला कम है। प्रत्येक अंश पर समय के 4 मिनट का अंतर पड़ता है। अतः 82 अंश 30 कला का गुणा 4 मिनट से किया तो आया = 330 मिनट = 5 घंटे 30 मिनट। अतः इंग्लैण्ड का समय भारत के समय से 5 घंटे 30 मिनट कम है, क्योंकि इंग्लैण्ड का मानक भारत से कम है। ढाका का मानक 90 अंश है, जो भारत के मानक से 7 अंश 30 कला अधिक है। 7 अंश 30 कला गुणा 4 मिनट = 30 मिनट। इसलिए ढाका का समय भारत से 30 मिनट अधिक है।
मथुरा का देशांतर 77 अंश 41 कला है, जो भारत के मानक से 4 अंश 49 कला कम है। अतः मथुरा के समय के लिए 4 अंश 49 कला गुणा 4 मिनट = 19 मिनट 16 सेकेण्ड अर्थात मथुरा का समय भारतीय मानक समय (जो हमारी घड़ियां दर्शाती हैं) से 19 मिनट 16 सेकेण्ड कम होता है। इसे हम मथुरा का स्थानीय समय कहते हैं। इसी प्रकार आप अपने शहर का स्थानीय समय निकाल सकते हैं। ज्योतिष में जन्म कुंडली बनाने में जन्म स्थान के स्थानीय समय का ही प्रयोग किया जाता है। प्रश्न कुंडली बनाने में हम जिस स्थान पर होते हैं, वहां के स्थानीय समय का प्रयोग करते हैं।
ज्योतिष में लग्न की सही गणना अत्यंत महत्वपूर्ण है। सरल विधि नीचे दी जा रही है.
हमें दिनांक 1 नवम्बर सन 2013 को प्रातः 10 बजकर 20 मिनट पर मथुरा में लग्न निकालनी है तो-
भारतीय मानक समय (घड़ी का समय ) = 10-20-00
मथुरा के स्थानीय समय के लिए 19 मिनट
16 सेकेण्ड घटाएंगे (-) 00-19-16
मथुरा का स्थानीय समय = 10-00-44
पंचांग में 1 नवम्बर 2013 को प्रातः
5-30 पर साम्पातिक काल दिया है, अतः
5-30 घटाएं (-) 05-30-00
5-30 बजे से स्थानीय समय तक बीता
हुआ समय (=) 04-30-44
प्रातः 5-30 बजे पंचांग में साम्पातिक काल (+) 08-09-37
बीते हुए समय 04-30-44 में 10 सेकेण्ड
प्रति घंटे के हिसाब से (+)00-00-45
साम्पातिक काल = 12-41-06
लग्न सारिणी में 12-41-06 साम्पातिक काल
पर निरयन लग्न (धनु) 03-50-04
(नोट : सायन लग्न सारिणी में दी हुई सायन लग्न में से उस वर्ष का अयनांश घटा कर लग्न ज्ञात करते हैं)
किसी समय जो ग्रह शासन करते हैं, वह ग्रह उस समय के शासक ग्रह कहलाते हैं। यह निम्नानुसार पांच होते हैं…
1- वारेश:सोमवार का चंद्र, मंगलवार का मंगल, बुधवार का बुध, गुरूवार का गुरु, शुक्रवार का शुक्र, शनिवार का शनि, रविवार का रवि (सूर्य)।
2- चन्द्र राशीश:चंद्र जिस राशि में हो, उस राशि का स्वामी।
3- चंद्र नक्षत्रेश:चन्द्र जिस नक्षत्र में हो, उस नक्षत्र का स्वामी।
4- लग्नेश: उस समय उदित हो रही लग्न का स्वामी जैसे: मेष का स्वामी मंगल, वृष का स्वामी शुक्र, मिथुन का स्वामी बुध, कर्क का स्वामी चन्द्र इत्यादि।
5- लग्न नक्षत्रेश: उदित लग्न जिस नक्षत्र में हो, उस नक्षत्र का स्वामी लग्न नक्षत्रेश होता है।
उपरोक्त क्रम में शासक ग्रह उत्तरोत्तर बलवान होते हैं। राहू और केतू छाया ग्रह हैं। यह प्रथम तो जिन ग्रहों के साथ बैठे होते हैं, उनका रूप बन जाते हैं, फिर उन ग्रहों का रूप रखते हैं, जो ग्रह उन्हें देखते हैं और अंततः जिस राशि में बैठे होते हैं, उस राशि के स्वामी का रूप धर लेते हैं।
विशेष: जिन राशियों में राहू और केतू चल रहे हों, उन राशियों के स्वामी यदि शासक ग्रह हों तो राहु और केतू को भी शामिल कर लेते हैं। जैसे यदि राहु कर्क राशि में चल रहे हों और कर्क का स्वामी चंद्र शासक ग्रहों में हो तो राहु को भी शासक ग्रहों में शामिल कर लेते हैं। यदि सोमवार हो, जिसका स्वामी चंद्र है तो भी राहु को शासक ग्रहों में शामिल कर लेंगे। इसी प्रकार यदि केतू मकर राशि में हो और शासक ग्रहों में शनि हो तो केतू को भी शामिल कर लेते हैं।
यदि शासक ग्रह के साथ कोई अन्य ग्रह बैठा हो तो उस ग्रह को भी शासक ग्रहों में शामिल कर लेते हैं। शासक ग्रहों में यदि कोई ग्रह वक्रीय हो तो वह जब तक मार्गी होकर जिस अंश से वक्रीय हुआ हो, उसी अंश पर न आ जाये तब तक फल नहीं देता है। यदि कोई ग्रह वक्रीय ग्रह के नक्षत्र या उप नक्षत्र में हो तो उस ग्रह को शासक ग्रहों से निकाल देते हैं। वह ग्रह फल नहीं देता है। यदि लग्न का उप नक्षत्र शीघ्र गामी ग्रह होता है तो कार्य शीघ्र होता है और यदि मन्द गति वाला होता है तो कार्य विलंब से होता है। वह शासक ग्रह जो ऐसे नक्षत्र में हो, जिसका स्वामी ऐसे भावों में बैठा हो या ऐसे भावों का स्वामी हो, जो कार्य से सम्बंधित नहीं होते हैं, वह फल देने वाले नहीं होते हैं। उन्हें शासक ग्रहों से निकाल देना चाहिए।
जातक से कोई एक गिनती 1 से लेकर 249 के बीच से पूंछते हैं। यदि उस नंबर का उप नक्षत्र लग्न या चन्द्र नक्षत्रेश होता है तो वह कार्य होता है। यदि नंबर का उप नक्षत्र लग्नेश या चन्द्र राशीश हो तो उस कार्य के होने में संशय होता है। इस हालत में उससे दूसरा नंबर पूंछते हैं। फिर देखते हैं कि कार्य होगा कि नहीं। यदि नंबर का उप नक्षत्र शासक ग्रहों में नहीं होता है तो वह कार्य नहीं होता है।
यदि कोई कार्य 24 घंटों के अन्दर होना होता है तो लग्न को आगे बढ़ाते हुए शासक ग्रहों पर ले जाते हैं। लग्न जिन अंशों पर शासक ग्रहों पर आती है, तब वह कार्य होता है। इसी प्रकार एक माह में जो कार्य होना होता है तो चन्द्र को आगे बढ़ाते हुए शासक ग्रहों पर ले जाते हैं। जिन अंशों पर चन्द्र शासक ग्रहों पर आता है, तब वह कार्य होता है। इसी प्रकार एक वर्ष में होने वाले कार्य में सूर्य को आगे शासक ग्रहों पर बढ़ाते हैं,जिन अंशों पर सूर्य शासक ग्रहों पर आता है, तब वह कार्य होता है और एक साल से ज्यादा की अवधि में होने वाले कार्यों के लिए गुरु को शासक ग्रहों पर आगे चलाते हैं, जब और जिन अंशों पर वह शासक ग्रहों पर आता है, उस समय कार्य होता है।
कृष्णामूर्ति पद्धति में भाव संधि अथवा भाव मध्य नाम की कोई चीज नहीं होती है. इस पद्धति में केवल भाव प्रारम्भ ही होता है. जैसे प्रथम भाव-प्रथम भाव के आरम्भ से द्वितीय भाव आरम्भ तक होता है. द्वितीय भाव-द्वितीय भाव प्रारम्भ से तृतीय भाव प्रारम्भ तक होता है. इसी प्रकार एक से द्वादश भाव तक होता है. इस पद्धति में सही फलादेश पाने के लिए कृष्णामूर्ति अयनांश ही प्रयोग करें, जो प्रचलित लाहिड़ी के अयनांश से लगभग 6 मिनट कम है।
के.पी.पद्धति से कुंडली निर्माण हेतु दो पुस्तिकाओं की आवश्यकता होती है. 1- एफीमैरिस (ग्रह स्पष्ट), जिसमें प्रातः 5:30 बजे का साम्पातिक काल एवं समस्त ग्रहों के रेखांश होते हैं. दूसरी पुस्तक भाव सारिणी, जिसमें 0 से 60 अक्षांशों तक प्रति 4 मिनट के अंतर से साम्पातिक काल 04 मिनट से 24.00 तक के लग्न, द्वितीय भाव, तृतीय भाव, दशम भाव, एकादश भाव व द्वादश भावों के भाव स्पष्ट दिए होते हैं. शेष भावों के लिए इनसे सप्तम भाव में 6 राशियाँ जोड़ देते हैं. जैसे- प्रथम भाव स्पष्ट में 6 राशियाँ जोड़ने से सप्तम भाव स्पष्ट, दूसरे भाव स्पष्ट में 6 राशियाँ जोड़ने पर अष्टम भाव स्पष्ट होता है. तृतीय भाव स्पष्ट में 6 राशियाँ जोड़ने पर नवम भाव स्पष्ट होता है. इसी प्रकार 12 भावों को स्पष्ट कर लेते हैं. यह सभी भाव सायन में होते हैं. इन्हें निरयन भाव बनाने के लिए प्रत्येक भाव से कृष्णामूर्ति अयनांश घटा देने पर निरयन भाव स्पष्ट हो जाते हैं.
एक चार्ट जिसमें 12 राशियों के स्वामी, नक्षत्र स्वामी एवं उप स्वामी होते हैं।
कुंडली बनाने के लिए सबसे पहले तो हम बालक की जन्म तारीख, जन्म समय व जन्म स्थान के अनुसार लग्न स्पष्ट करते हैं. कृष्णामूर्ति पद्धति से लग्न निकालना: किसी बालक का जन्म 01.05.2005 को प्रातः 10 बजकर 15 मिनट पर आगरा उत्तर प्रदेश में हुआ.
1-भारतीय मानक समय 10.15.00 बजे
2-भारतीय मानक 82.30 (-) आगरा 78.00 गुणा 4 00.18.00
3-स्थानीय समय (=) 09.57.00
4-एफीमैरिस में प्रातः 05.30 पर साम्पातिक काल (-) 05.30.00
5-05.30 से स्थानीय समय का अंतर (=) 04.27.00
6-प्रातः 05-30 पर साम्पातिक काल (+) 20.06.05
7-क्रम 5 पर साम्पातिक काल का अंतर 10 सेकेण्ड प्रति घंटा (+) 00.00.45
8-आगरा में प्रातः 10.15 पर साम्पातिक काल (=) 26.33.50
(-) 24.00.00
प्रातः 10.15 पर साम्पातिक काल 02.33.50
भाव सारिणी में 02.33.50 पर सायन लग्न 108.55.23
कृष्णामूर्ति अयनांश 23.50.13 घटाने पर (-) 23.50.13
शुद्ध निरयन लग्न (=) 85.05.10
अर्थात मिथुन लग्न होगी 25.10 डिग्री की, इस तरह किसी भी कुंडली की लग्न आसानी से स्पष्ट हो जाती है. अब ग्रहों की उच्च-नीच स्थिति भी समझ लेते हैं. वैदिक ज्योतिष में किसी भी ग्रह को उनकी उच्च या नीच राशि के हिसाब से उस ग्रह को उच्च या नीच मान लिया जाता है, जबकि यह पूर्ण सत्य नहीं है कृष्णमूर्ति ज्योतिष में वैज्ञानिक आधार से किसी भी ग्रह के उच्च या नीच होने की स्थिति को समझ सकते हैं. दरअसल वैदिक ज्योतिष में जहाँ ग्रह को ही पूर्ण मान्यता दी गई है वहीँ के पी ज्योतिष में भाव (कस्प या नक्षत्र नवांश ) को काफी कुछ माना गया है. कस्प की डिग्री से ही ग्रह का बलाबल पता चलता है. के पी में किसी भी ग्रह या उप ग्रह के नक्षत्र स्वामी को मान्यता दी गई है यानि कोई भी ग्रह या उप ग्रह अपने नक्षत्र स्वामी की स्थिति के आधार पर परिणाम देता है यदि नक्षत्र स्वामी उच्च या नीच का है. तो वह उसी के हिसाब से फल देगा.
कोई भी ग्रह उच्च या नीच का वास्तब में कब होता है…मान लीजिये वैदिक ज्योतिष के अनुसार गुरु मकर राशि में है तो वह नीच का होगा, और शुक्र यदि मीन राशि में है तो वह उच्च का माना जाता है. लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है. मान लीजिये गुरु कर्क राशि में 15 डिग्री का है तो क्या वह उच्च का माना जायेगा? जी नहीं, क्योंकि गुरु कर्क राशि में केवल 05 डिग्री तक ही उच्च के परिणाम देता है, इससे ज्यादा डिग्री होने पर वह साधारण स्थिति में आ जाता है. किसी भी ग्रह के उच्च या नीच प्रभाव के लिए उसकी कक्षा उस स्थिति में होनी चाहिए, जो डिग्री से तय होती है। किसी भी भाव या कस्प की अधिकतम 30 डिग्री होती है और ग्रहों की उच्चता व नीचता के लिए एक निर्धारित डिग्री मानक है।
कोई भी ग्रह किस राशि में उच्च या नीचत्व कब प्राप्त करता है, इसके लिए नीचे दी गयी टेबल देखें।
सूर्य 10 डिग्री मेष 10 डिग्री तुला
चंद्र 3 डिग्री वृष 3 डिग्री वृश्चिक
मंगल 28 डिग्री मकर 28 डिग्री कर्क
बुध 15 डिग्री कन्या 15 डिग्री मीन
गुरु 5 डिग्री कर्क 5 डिग्री मकर
शुक्र 27 डिग्री मीन 27 डिग्री कन्या
शनि 20 डिग्री तुला 20 डिग्री मेष
राहु 20 डिग्री वृष 20 डिग्री वृश्चिक
केतु 20 वृश्चिक 20 डिग्री वृष
कृष्णमूर्ति पद्धति में जातक फलादेश के लिए नक्षत्र और उसके उप नक्षत्र का प्रयोग करते हैं। गुरुजी कृष्णमूर्ति जी ने प्रश्न कुंडली में 249 तक के अंकों के उप नक्षत्र निर्धारित किए हैं। उन्होंने भावपरक कारकों एवं तात्कालिक ग्रहों (रूलिंग प्लानेट्स ) के प्रयोग को जातक के फलित कथन में विशेष रूप से महत्त्व दिया है। इस पद्धति में यह देखते हैं कि ग्रह किस ग्रह के नक्षत्र में है एवं उस नक्षत्र का अधिपति (स्वामी) किस भाव में स्थित है तथा नक्षत्र अधिपति किन भावों का स्वामी है। इसी नियम के आधार पर जातक को फल बताया जाता है। केपी में भावों के कारकत्व को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। वैदिक ज्योतिष में राशियों का सूक्ष्म फल जानने के लिए नवांश का प्रयोग करते हैं। यानि एक राशि के समान रूप से नौ भाग करते हैं। विंशोत्तरी दशा पद्वति में जन्मकालीन चंद्रमा के अंश एक समान होने पर त्रिकोणगत राशियां ( जैसे 1-5-9, 2-6-10, 3-7-11, 4-8-12, में नक्षत्र स्वामी एक ही होता, जिसे महादशा का स्वामी कहा जाता है और इसके बाद क्रमानुसार दशा स्वामी होते हैं।
कृष्णमूर्ति गुरुजी ने अपने अध्ययन में पाया कि जब एक ही नक्षत्र अथवा एक से दूसरे त्रिकोण में आने वाली राशियों में स्थित नक्षत्र में एक से अधिक ग्रह हों तो सबका नक्षत्र स्वामी एक ही होते हुए भी उनके फल अलग-अलग मिलते हैं। यह एक चौंकाने वाली थी, लिहाजा उन्होंने इसके परिणाम देखने के लिए नक्षत्र का विभाजन अन्तर्दशा के अनुसार किया, जैसा कि चंद्रमा की दशाओं में होता है। नक्षत्र को विंशोत्तरी दशा के अनुसार नौ भागों में विभाजित किया। इस विभाजित नक्षत्र के भाग को उप नक्षत्र (सब लार्ड) कहा जाता है। इसको इस तरह समझने की कोशिश करते हैं।
नक्षत्र का अंशात्मक मान १३ अंश २० कला = ८०० कला
मान लीजिये कि हमें सूर्य का उप नक्षत्र मान निकालना है तो
१२० वर्ष = १३ अंश २० कला = ८०० कला
तो ६ वर्ष (सूर्य) ८०० * ६/१२० = ४० कला।
इस प्रकार प्रत्येक ग्रह के उप नक्षत्र के अंशात्मक मान इस प्रकार होंगे
ग्रह महादशा वर्ष उप नक्षत्र का अंशात्मक मान
अंश —- कला — विकला
केतु ७ ०० —- ४६ —- ४०
शुक्र २० ०२ —- १३ —– २०
सूर्य ०६ ०० — ४० —- ००
चन्द्र १० ०१ — ०६ —- ४०
मंगल ०७ ०० — ४६ — ४०
राहू १८ ०२ — ०० — ००
गुरु १६ ०१ — ४६ — ४०
शनि १९ ०२ — ०६ — ४०
बुध १७ ०१ — ५३ — २०
——————————————
योग १२० —- १३ — २० — ००
इस तरह २७ नक्षत्रों के २४३ भाग हुए, लेकिन जब इन भागों को राशि चक्र में रखा तो १/५/९ राशियों में राशियों के ३० अंश पूरे होने के कारण सूर्य नक्षत्र के राहू उप- नक्षत्र के दो भाग किये गए और शेष भाग २-५-८ राशियों में रख दिया। इसी प्रकार ३-७-११ राशियों में गुरु नक्षत्र के, चन्द्र उप नक्षत्र के भी २-२ भाग किये और ३-७-११ राशियों के ३० अंश पूरे होने के कारण चन्द्र उप नक्षत्र के शेष भाग को ४-८ -१२ राशियों में समायोजित कर दिया। अब राशि चक्र में उप नक्षत्रों का विभाजन २४३ से बढ़कर २४९ हो गया। यह २४९ अंकों की राशि विभाजन की सारणी कृष्णमूर्ति पद्वति में फलित कथन में विशेष रूप से उपयोगी और महत्वपूर्ण है। यही इसका आधार भी है। बिना उप स्वामी के किसी घटना के पिन प्वाइंट घटित होने के बारे में जाना भी नहीं जा सकता।
किसी भी घटना को जानने के लिए इस पद्वति में एक ही नियम है और वह यह कि घटना से संबंधित प्रमुख भाव का उप नक्षत्र स्वामी यदि प्र्रमुख भाव या घटना के लिए सहायक भाव का कारक बन जाये तो अपेक्षित घटना होगी। घटना के समय निर्धारण के लिए विंशोत्तरी महादशा को ही देखा जाता है। आशय यह है कि गुरुजी केपी जी ने अपनी पद्वति के आधार में महर्षि पाराशर को कहीं भी अनदेखा नहीं किया है। गुरुजी केएसके जी ने वैदिक ज्योतिष को ही परिमार्जित किया है।
घटना होने के लिए दशा नाथ, अंतर दशा नाथ का घटना से संबंधित भावों का कारक होना जरूरी होता है। यदि ऐसा नहीं है तो घटना नहीं होगी। इस पद्वति में फलादेश करते समय घटना के मुख्य, सहयोगी और विरोधी भाव देख लेने चाहिए।किसी भी घटना के आकलन के लिए मुख्य भाव एवं सहयोगी भावो के नक्षत्र तथा राशिगत संबंधों को मिलाकर फल कथन करना चाहिए। जैसे विवाह के माध्यम से हम जीवन साथी प्राप्त करते हैं, जो शारीरिक सुख भी देता है। इस सुख को समाज एवं कानून की स्वीकृति होती है। अतः सप्तम स्थान विवाह व दांपत्य जीवन का मुख्य भाव है। विवाह के बाद हमारे परिवार में वृद्धि होती है, अतः दूसरा भाव (परिवार) विवाह घटना का सहायक भाव हुआ। विवाह के बाद हमारी एक सुख-दुख में जीवन साथी पाने की इच्छा पूरी होती है, अतः लाभ स्थान (मित्र, एवं इच्छापूर्ति) विवाह के लिए दूसरा सहायक भाव हुआ। इसलिए विवाह के मामले में ७-२-११ भावों को जरूर देखना चाहिए। इसके विरोधी भाव हैं १,६,१०, लिहाजा इनका आकलन भी कर लें।
कहने का आशय यह है कि इस पद्वति में जीवन की प्रत्येक घटना जानने के निश्चित नियम हैं। इसमें ऐसा नहीं है कि वैदिक ज्योतिष की भांति एक सूत्र दूसरे सूत्र को काट रहा हो। मान सागरी में किसी भाव के लिए जो लिखा है, पाराशर या जैमिनी में कुछ और। लिहाजा यहां ज्योतिषी को गणना करते समय किसी दुविधा या संशय की स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता।
किसी भी घटना से प्राप्त सुख या अनुकूलता के संकेत जन्मकुंडली के अष्टम एवं व्यय भाव से सूचित होते हैं, क्योंकि अष्टम एवं व्यय भाव दुःख व् निराशा, विवशता और हताशा के सूचक हैं। अतः किसी भी घटना के मुख्य एवं सहायक भाव से १२ वां या व्यय भाव घटना के फल में कमी कर देते हैं।
विवाह के मामले में ही विचार करें तो ६-१-१० भाव प्रतिकूलता या निराशा देते हैं क्योंकि ये भाव ७-२-११ वें भावों से बारहवें भाव हैं। जब किसी भाव का उप नक्षत्र स्वामी घटना से संबंधित मुख्य एवं सहायक भावों का कारक हो और साथ ही यह उप नक्षत्र स्वामी कुंडली के ८ या १२ वें भाव का भी कारक बन जाये या घटना से संबंधित भाव के व्यय स्थान का कारक बन जाये तो घटना होने के बाद जातक को अपेक्षित या संभावित सुख नहीं मिल सकता। इसलिए यदि जातक के सप्तम भाव का उप नक्षत्र स्वामी २, ७ या ११ में से किसी एक का कारक होगा तो विवाह तो होगा, लेकिन सप्तम का उप नक्षत्र स्वामी १ ,६ ,८, १० या १२ में से किसी एक भी भाव का कारक हुआ तो अपेक्षित सुख नहीं मिल सकेगा।
इसी प्रकार पंचम भाव का उप नक्षत्र स्वामी २, ५ या ११ वें भाव का कारक हो तो संतान होगी। इन भावों के साथ पंचम का उप नक्षत्र स्वामी १, ( २ का बारहवां), ४ (५ वें का बारहवां), १० (११ वें का बारहवां), ८ (निराशा) या १२ ( १ का बारहवां) में से किसी एक का कारक हुआ तो संतान सुख में न्यूनता, गर्भपात, मृत बालक का जन्म, बच्चों से दुरी आदि कोई न कोई घटना तो होगी ही। अतः जीवन की किसी घटना के मुख्य/सहायक भावों के साथ प्रतिकूल भावों को इस तालिका से समझ लेना आवश्यक है।
घटना प्रमुख एवं सहायक भाव प्रतिकूल भाव
विवाह ७-२-११ ६-१-१०-१२-८
सन्तति ५-२-११ ४-१-१०-८-१२
शिक्षा ४-९-११ ३-५-८-१२
छात्रवृत्ति ६-९-११ ५-८-१२
वाहन खरीदना ४-११ १२-३-८
घर खरीदना ४-११ १२-३-८
घर बेचना १०-५-६ ४-८-११-१२
ऋण लेना ६-११ ५-१२
ऋण मुक्ति १२-८ ६-११
विदेश यात्रा १२-३-९ २-४-११
नौकरी ६-१०-२-११ १-५-९-१२-८
स्थानांतरण १०-३-१२ ४-८
पदोन्नति १०-६-२-११ ९-५-८-१२
कृष्णमूर्ति जी ने अपने ही अयनांश का प्रयोग किया है, यह लहरी या चित्रपक्ष अयनांश से छह मिनट कम है। इसे केपी अयनांश कहा जाता है।
इसमें समान भाव विभाजन या श्रीपति पद्वति के स्थान पर भाव गणना की जाती है। प्रत्येक ग्रह अपने नक्षत्र स्वामी का फल देता है तथा फल की शुभता या अशुभता का निर्णय ग्रह का उप नक्षत्र स्वामी करता है। भाव कारक ग्रहों के चयन के नियम इस तरह हैं।
१- भावस्थ ग्रह के नक्षत्र में स्थित ग्रह।
२- भावस्थ ग्रह।
३- भावेश के नक्षत्र में स्थित ग्रह।
४- भावेश।
५- भाव पर दृष्टि डालने वाले ग्रह।
६- उपरोक्त ग्रहों को देखने वाले ग्रह।
राहु और केतु छाया ग्रह होने से ग्रहों का प्रतिनिधित्व कुछ इस तरह करते हैं। हमारे यहां राहु-केतु को एजेंट माना जाता है और यह यदि शामिल हैं तो ज्यादा प्रभावी हो जाते हैं। जैसे-
१- राहु और केतु की युति में स्थित ग्रह।
२- राहु और केतु पर दृष्टि डालने वाले ग्रह।
३– राहु और केतु जिस राशि में हों, उनके स्वमी ग्रह और जिस नक्षत्र में हों, उनके नक्षत्र स्वामी के ग्रह।
इस पद्वति में केवल विंशोत्तरी दशा का ही प्रयोग होता है। गोचर में सभी ग्रहों के गोचर का अध्ययन उनके नक्षत्र स्वामी और उप नक्षत्र स्वामी की स्थिति के अनुसार लग्न से किया जाता है, न कि वैदिक की तरह चंद्र राशि से। इस पद्वति में साढ़े साती, अष्टक वर्ग, गुरु बल, अष्टम चन्द्र आदि का कोई महत्व नहीं है। योगों में केवल पुनरफू योग ही देखा जाता है। इस योग पर आगे किसी किश्त में विस्तार से बताया जाएगा। गुरुजी ने इसके बारे में केवल विलंब की बात कही है। इस पर मैंने काफी शोध किया है। इस पद्वति में नवांश, होरा, त्रिशांश आदि का प्रयोग भी नहीं है।
इसमें केवल दो तरीके हैं। एक होररी और दूसरे शासक ग्रह। किसी भी घटना से संबंधित फलादेश के लिए जातक से १ से लेकर २४९ के बीच का कोई नंबर लेते हैं और फिर उसकी कुंडली बनाते हैं। जन्म कुंडली या प्रश्न कुंडली के कारक ग्रहों के अनुसार मुहूर्त भी निकल जाता है।
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