वास्तु-शास्त्र वह विधा है जिसके माध्यम से चेतन-पुंज मनुष्य जड़बाह्य संसार से अपना तारतम्य बैठाता है और सकारात्मक सामंजस्य स्थापित करता है। वास्तुशास्त्र वास्तव में प्रकृतिचर्या का एक अंग है। इसके द्वारा हम प्रकृति से अपने अटूट नाते को सुदृढ़ बनाते हैं। सृष्टि में होने वाली घटनाएँ अनायास ही घटित नहीं होती है बल्कि इनके पीछे सृष्टि के नैसर्गिक नियम कार्य करते है।
FOR VAASTU INTERNATIONAL COURSES - CLICK HERE
FOR VASTU NUMEROLOGY COURSES - CLICK HERE
ऐसे कुछ निश्चित नियम और सिद्धांत हैं, जो कि बड़ी प्राकृतिक घटनाओं को तो नियंत्रित करते ही है साथ ही हमारे मानव जीवन के सारे अनुभवों, परिस्थितियों और जीवन में होने वाली घटनाओं को भी नियंत्रित करते है। वास्तु शास्त्र ऐसे ही कुछ महत्वपूर्ण और बेहद प्रभावशाली नियमों पर आधारित विज्ञान है जिसे तार्किक दृष्टिकोण से समझे जाने की आवश्यकता है।
वास्तु शब्द के दो अर्थ हैं –
पहला अर्थ – वह जगह जहाँ लोग रहते है। यानि की वे सभी स्थान, जहाँ मनुष्य निवास या कार्य करता है।
दूसरा अर्थ – वस्तुओं का अध्ययन भी वास्तु शास्त्र कहलाता है।
वेद –
वेदों की ऋचाओं में ‘वास्तु’ को गृह निर्माण के योग्य उपयुक्त भूमि के रूप में परिभाषित किया गया है।
समरांगण सूत्रधार –
वास्तु के प्राचीनतम ग्रन्थों में से एक समरांगण सूत्रधार के अनुसार ‘वास्तु’ शब्द ‘वसु’ या प्रथ्वी से उत्पन्न है। पृथ्वी को मूलभूत वास्तु माना गया है और वे सभी रचनाएँ जो पृथ्वी पर स्थित हैं उनको भी वास्तु कहा जाता है।
मयमतम –
मयमतम चार प्रकार की वास्तु का उल्लेख करता है :– पृथ्वी, मंदिर, वाहन, और आसन
इन चारों में भी पृथ्वी मुख्य है।
वास्तु शब्द का उद्भव संस्कृत के ‘वास’ से हुआ है। वास का अर्थ होता है रहने का स्थान। और इसी ‘वास’ से बने है दो अन्य शब्द – ‘आवास’ और ‘निवास’।
भवन निर्माण के विज्ञान के रूप में प्रचलित वास्तु शास्त्र का पहला उल्लेख उपलब्ध लिखित साहित्य की दृष्टि से आज से कई हज़ार साल पहले रचित वेदों में मिलता हैं। उस समय वास्तु के विज्ञान की जानकारी समाज के कुछ लोगों तक ही सीमित थी और वे लोग इस ज्ञान को अपने उतराधिकारी के जरिये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाते थे। शुरुआत में वास्तु के सिद्धांत मुख्यत: इस बात पर आधारित थे की सूर्य की किरणें पूरे दिन में किस स्थान पर किस तरह का असर करती है। और इसका अध्ययन करने पर जो नतीजे निकले उन सिद्धांतो ने आगे चलकर वास्तु के अन्य नियमों के विकास की आधारशिला रखी।
उस समय के बाद से मानव सभ्यता के विकास के साथ साथ वास्तु विज्ञान ने भी बहुत विकास किया है। तो यह कहा जा सकता है की वास्तु शास्त्र के वर्तमान सिद्धांत हजारों सालो के विकास का परिणाम है। तो जहाँ वेद वास्तु के उद्भव के स्थान के रूप में जाने जाते है वही वास्तु शास्त्र का प्रणेता विश्वकर्मा को माना जाता है जिन्होंने 'विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। हालाँकि विधिवत रूप से ग्यारहवी शताब्दी में ही वास्तु शास्त्र अस्तित्व में आया जब महाराजा भोजराज द्वारा ‘समरांगण सूत्रधार’ नामक ग्रन्थ लिखा गया, जिसे वास्तु शास्त्र का प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है।
वास्तु शास्त्र मूल रूप से वेदों का ही एक हिस्सा रहा है। गौरतलब है कि हमारे चार वेदों के अलावा उपवेद भी लिखे गए हैं जिनमे से एक स्थापत्य वेद था| कालांतर में इसी उपवेद को आधार बनाकर वास्तुशास्त्र का विकास हुआ और इससे सम्बंधित कई साहित्य भारत के अलग अलग हिस्सों में लिखे गए। जैसे की दक्षिण भारत में मयमतम और मानासर शिल्प-शास्त्र की रचना हुई वही विश्वकर्मा वास्तु शास्त्र की रचना उत्तर भारत में हुई।
प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में वास्तु के कई सिद्धांत मिलते है। ऋग्वेद में वास्तोसपति नामक देवता का भी उल्लेख वास्तु के सन्दर्भ में किया गया है। इसके अतिरिक्त अन्य कई प्राचीन ग्रंथो और साहित्यों में वास्तु शास्त्र के सिद्धांतों का उल्लेख मिलता है जैसे की मत्स्य पुराण, नारद पुराण और स्कन्द पुराण और यहाँ तक की बौद्ध साहित्यों में भी इसका जिक्र होता है। ऐसा माना जाता है की गौतम बुद्ध ने अपने शिष्यों को भवन निर्माण के सम्बन्ध में उपदेश भी दिए थे। बौद्ध साहित्यों में अलग-अलग प्रकार के भवनों का उल्लेख है। इन प्राचीन रचनाओं में स्कन्द पुराण काफी अहमियत रखता है। इसमें महानगरो के बेहतर विकास और समृद्धि के लिए वास्तु के सिद्धांत बताये गए हैं। वही नारद पुराण में मंदिरों के वास्तु के अलावा जलाशयों जैसे कि झील, कुएं, नहरें आदि किस दिशा में होनी चाहिए, घरों में पानी के स्त्रोत किस दिशा में होने चाहिए इस सम्बन्ध में जानकारी मिलती है।
वास्तु शास्त्र तथा वास्तु कला का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक आधार वेद और उपवेद हैं। भारतीय वाड्.मय में आधिभौतिक वास्तुकला (आर्किटेक्चर) तथा वास्तु-शास्त्र का जितना उच्चकोटि का विस्तृत विवरण ऋग्वेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद में उपलब्ध है, उतना अन्य किसी साहित्य में नहीं।
आधुनिक इतिहासकार जेम्स फ़र्गुसन, डॉ. हैवेल और सर कनिंघम के द्वारा किये गए शोध के अनुसार वास्तु शास्त्र का ऐतिहासिक विकास 6,000 ईसा पूर्व से 3,000 ईसा पूर्व के बीच हुआ था। वास्तु शास्त्र के उद्भव और विकास से सम्बंधित लिखित प्रमाण चारों वेदों, रामायण, महाभारत, अर्थशास्त्र, पुराणों, वृहत्संहिता, बौद्ध और जैन ग्रन्थों में पर्याप्त मात्र में मिलते है। आइये नजर डालते है वास्तु शास्त्र पर लिखे कुछ ऐतिहासिक साहित्यों पर –
वृहत्संहिता - इसके रचयिता वराहमिहिर थे। वराहमिहिर ने वृहत्संहिता की रचना 6ठी सदी में की थी।
समरांगण सूत्रधार - इसके रचयिता राजा भोज थे। राजा भोज ने समरांगण सूत्रधार की रचना 1000-1055 A.D. में की थी।
मयमतम - इसके रचयिता माया थे। माया ने 11वीं सदी में मयमतम की रचना की थी।
इसके अतिरिक्त वास्तु शास्त्र पर रचित मानसार और विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र दो अन्य महत्वपूर्ण ग्रन्थ है| मयमतम और मानसार शिल्पा शास्त्र दक्षिण भारतीय होने के कारण द्रविड़ियन रचना मानी जाती है और वही विश्वकर्मा वास्तु शास्त्र उत्तर भारतीय होने के कारण इंडो-आर्यन रचना मानी जाती है। इसके अलावा कुछ अन्य महत्वपूर्ण साहित्य वास्तु शास्त्र पर रचित किये गए है जो कि इस प्रकार है – राजवल्लभम, रूपमंडम वास्तु विद्या, शिल्परंतम, अपराजित पृच्छा, प्रमाण मञ्जरी, शिल्परत्न, सर्वार्थ शिल्पचिंतामणि, मनुष्यालय-चन्द्रिका, वास्तुरत्नावली इत्यादि।
1. वास्तु कला
2. स्थान का चयन
3. सिविल इंजीनियरिंग
4. ज्योतिष शास्त्र
5. आन्तरिक सजावट
6. भू परिदृश्य
7. जीवन शैली
विज्ञान की एक विशेषता होती है कि चाहे आप इसे माने या ना माने लेकिन इसके नियम अपना कार्य करते है। वास्तु शास्त्र भी एक ऐसा ही विज्ञान है। संसार में किसी भी चीज के अस्तित्व के लिए या किसी घटना के घटित होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उसकी हमें जानकारी हो। ब्रह्माण्ड में ऐसी अनगिनत घटनाएँ घट रही है जिनकी मानव को कोई जानकारी नहीं है और मानव की इस अज्ञानता से उन घटनाओं के अस्तित्व पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। इसी सन्दर्भ में वास्तु शास्त्र भी भवन निर्माण का एक ऐसा विज्ञान है जो कि किसी भवन विशेष में मौजूद अदृश्य उर्जाओं और उनके द्वारा निवासियों पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में हमें जानकारी देता है। गौरतलब है कि हमारे चारों ओर उर्जाओं के क्षेत्र (energy fields) विद्यमान है जो कि हमें निरंतर प्रभावित कर रहे है। चाहे आपको जानकारी हो या नहीं, आप इसे स्वीकार करे या नहीं आपके घर में विद्यमान उर्जाये आपको निरंतर प्रभावित कर रही है।
अगर इसे हम विस्तार से समझे तो यह बात स्पष्ट होती है कि मानव की एक क्षमता होती है जिसके भीतर रहकर ही वह खुद पर पड़ने वाले विभिन्न प्रकार के प्रभावों का पता लगा सकता है। प्रकृति में बहुत सुक्ष्म और बहुत विशाल दोनों ही प्रकार की शक्तियां विद्यमान है। विज्ञान के अनुसार हमारे सुनने, देखने, सूंघने की क्षमताओं इत्यादि का एक सुनिश्चित दायरा है। उदाहरण के लिए जब अंतरिक्ष में कोई विशाल खगोलीय घटना घटती है जैसे कि किसी तारे का टूटना तो इस प्रकार की परिस्थिति में हमारे आसपास के वातावरण में भयंकर गर्जना वाली आवाजें चारों ओर से गुजरती है जिन्हें सुनने में हम सक्षम नहीं है। अगर हम इन आवाजों को सुन पाए तो तत्काल हमारे सुनने की क्षमता खो जायेगी।
भले ही हम बहुत सुक्ष्म या बहुत विशाल आवाज को सुनने या महसूस करने में असक्षम हो लेकिन इस बात से अप्रभावित प्रकृति में विद्यमान वह ध्वनियाँ हमारे चारों ओर से गुजर भी रही है और हमें प्रभावित भी कर रही है, बस फर्क इतना है कि हम बिना किसी उपकरण के उसका पता नहीं लगा सकते है। वास्तु शास्त्र में इसी प्रकार की अदृश्य प्राकृतिक शक्तियों में समन्वय को साधने का कार्य किया जाता है जिन्हें हम महसूस नहीं कर सकते है।
वास्तु शास्त्र के अनुसार इन अदृश्य नैसर्गिक शक्तियों में असंतुलन की स्थिति में ये नकारात्मक परिणाम प्रदान करती है और उचित तालमेल स्थापित होने पर यह व्यक्ति के लिए बेहद लाभदायक भी सिद्ध होती है। तो आइये एक नजर डालते है कि वास्तु सम्मत या वास्तु दोष युक्त भवन किस प्रकार के परिणाम दे सकता है -
नकारात्मक वास्तु के प्रभाव –
सकारात्मक वास्तु के लाभ –
वास्तु शास्त्र का उपयोग किसी भवन विशेष में मौजूद उर्जाओं का पता लगाने और उनमे परस्पर समन्वय स्थापित कर भवन में सकारात्मक उर्जाओं का प्रवाह सुनिश्चित करने से है। अब सवाल उठता है कि आखिर अलग-अलग वास्तु से बने घरों में अलग-अलग उर्जायें क्यों प्रवाहित होती है ? क्यों सभी में समान उर्जा प्रवाह नहीं होता है ?
दरअसल हमारे चारों ओर हर वक्त सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही प्रकार की उर्जाये सतत रूप से प्रवाहमान रहती है। ये उर्जाये स्थान और वातावरण विशेष की ओर आकर्षित होती है। नकारात्मक स्थान अशुभ उर्जाओं और सकारात्मक स्थान शुभ उर्जाओं को अपनी और आकर्षित करता है। हम सभी F.M. रेडियों से परिचित है। F.M. में अलग-अलग फ्रीकवेंसी पर अलग-अलग रेडियो स्टेशन को हम सुन पाते है। ऐसा क्यों होता है कि एक निश्चित फ्रीकवेंसी पर निश्चित चैनल ही आता है और दूसरा नहीं ? वस्तुतः होता यह है कि सभी F.M. चैनल्स की आवाजें हमारे पास से गुजर रही है लेकिन जब हम F.M. रेडियों को निश्चित फ्रीकवेंसी पर लाते है तो वह उसी चैनल को पकड़ता है जो उस पर सेट है किसी अन्य चैनल को नहीं।
कुछ इसी प्रकार से हमारे आसपास के वातावरण में तमाम तरह की प्राकृतिक उर्जायें प्रवाहित हो रही है जिन्हें आकर्षित करने के लिए हमें अपने घर के वास्तु को भी एक निश्चित फ्रीकवेंसी पर सेट करना होता है। एक घर जब निर्मित होता है तो उसका वास्तु उस घर के अंदर निवास करने वाले लोगो के लिए एक विशेष प्रकार की फ्रीकवेंसी को तय कर देता है जो कि उस वातावरण विशेष के लिए निर्धारित उर्जाओं को ही पकड़ता है। जब एक घर वास्तु सम्मत होता है तो वह अपने आसपास से गुजर रही सकारात्मक उर्जाओं को अपनी और आकर्षित करता है और गृह-निवासियों को शुभ परिणाम प्रदान करता है। जब तक वह फ्रीकवेंसी बदलेगी नहीं तब तक उसकी ओर आकर्षित होने वाली उर्जाये भी वही बनी रहेगी और उसी के अनुरूप शुभ और अशुभ परिणाम भी हासिल होंगे। वास्तु किस प्रकार से कार्य करता है इसे विस्तार से समझने के लिए हम इसके कुछ तकनीकी पहलुओं को समझने की आवश्यकता होगी जो कि इस प्रकार है –
पृथ्वी का चुम्बकीय प्रवाह एवं वास्तु –
ध्यान देने वाली बात है कि पृथ्वी एक बडे चुम्बक (magnet) के समान है। और इस चुम्बकीय बल के विद्यमान होने का एक विशेष कारण है। दरअसल पृथ्वी के आंतरिक भाग में मुख्यतः ठोस लोहा पाया जाता है। यह ठोस लोहा तरल धातु के घेरे में अवस्थित होता है। पृथ्वी के Core (आंतरिक भाग) में प्रवाहमान तरल धातु विद्युत् धाराओं (Electric Currents) का निर्माण करती है, जिसके परिणामतः हमारे चुम्बकीय क्षेत्र (Magnetic Fields) का निर्माण होता है।
सरल भाषा में अगर समझे तो पृथ्वी के केंद्र में विद्यमान तरल धातु के निरंतर हलचल होने से पृथ्वी के चुम्बकीय तत्व सक्रिय रहते है। और इससे पृथ्वी के चारों ओर एक चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न होता है। और चुम्बक की एक विशेषता होती है कि इसके दो ध्रुव होते है। इसलिए अगर पृथ्वी पर चुम्बकीय क्षेत्र विद्यमान है तो निश्चित ही इसके दो चुम्बकीय ध्रुव भी होंगे। हालाँकि दिलचस्प बात यह है कि चुम्बकीय ध्रुवों की अवस्थिति भौगोलिक ध्रुवों से भिन्न होती है।
गौरतलब है कि भौगोलिक उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव वे है जहाँ देशांतर रेखाएं उत्तर से दक्षिण तक मिलती है दूसरे शब्दों में भौगोलिक ध्रुव पृथ्वी के उस अक्ष को मिलाने वाले बिन्दुओं को कहते है जिन पर पृथ्वी घुमती है। लेकिन कम्पास में सुई उत्तरी चुम्बकीय ध्रुव की ओर इशारा करती है और यह उत्तरी चुम्बकीय ध्रुव भौगोलिक उत्तरी ध्रुव से दूर स्थित है। यह उत्तरी कनाडा के एल्स्मेरे द्वीप पर स्थित है। यानी कि कम्पास की सुई उत्तरी चुम्बकीय ध्रुव को दर्शाती है ना कि भौगोलिक उत्तरी ध्रुव को।
अब अगर वास्तु शास्त्र के नजरिये से इसके महत्त्व को देखा जाए तो हमें दो बातों पर गौर करना होगा –
तो ऐसे में वास्तु शास्त्र के नियम व सिद्धांत भवनों व घरों में मौजूद इन चुम्बकीय बलों के द्वारा निर्मित विपरीत स्वाभाव वाली उर्जाओं को संतुलित करने का कार्य करते है।
पृथ्वी एवं उर्जा का प्रवाह –
पृथ्वी सौरमंडल का एक बेहद विशाल और जीवन से युक्त गृह है। पृथ्वी ना सिर्फ सूर्य का परिक्रमण करती है बल्कि यह अपने अक्ष पर परिभ्रमण भी करती है। यह परिस्थितियां पृथ्वी पर उर्जा के विशेष प्रवाह को सुनिश्चित करती है। यानि कि पृथ्वी के निश्चित अक्षीय झुकाव, इसके द्वारा सूर्य की परिक्रमा करना और अपने अक्ष पर पश्चिम से पूर्व की ओर परिभ्रमण करने से पृथ्वी का उत्तरी-पूर्वी भाग अधिकाधिक उर्जा ग्रहण करता है। पृथ्वी द्वारा उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के माध्यम से ब्रह्माण्ड द्वारा ग्रहण की गई उर्जा पृथ्वी के अन्य भागों में प्रवाहित होती है।
चूँकि पृथ्वी पर निर्मित होने वाले भवन या अन्य निर्माण भी इसी गृह का एक भाग है तो ऐसे में पृथ्वी पर उर्जा का यह प्रवाह इन भवनों में भी लागू होता है। इसीलिए वास्तु शास्त्र के अनुसार किसी भी भवन का निर्माण इस प्रकार किया जाता है कि उत्तर-पूर्वी हिस्सा शुभ उर्जा के प्रवाह के लिए अधिकाधिक खुला रखा जाए। भवन में इस हिस्से का बंद होना उर्जा के सकारात्मक प्रवाह को बाधित करता है। इसके अलावा नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) में सदैव भारी निर्माण कराया जाना चाहिए ताकि उत्तर-पूर्व से प्रवाहित सकारात्मक उर्जा तो भवन में संचित की ही जा सके साथ ही दक्षिण-पश्चिम से नकारात्मक उर्जा का प्रवाह भी अवरुद्ध किया जा सके|
भूखंड आकार एवं उर्जा –
भूखंड का आकार कितना महत्वपूर्ण होता है इसका अंदाजा मिस्त्र के रहस्यमयी पिरामिडों की संरचना के द्वारा लगाया जा सकता है। पिरामिड शब्द का अर्थ होता है ‘केंद्र में अग्नि’। पिरामिडों का निर्माण बेहद सक्षम लोगों द्वारा किया गया था जिन्हें व्यक्ति के अवचेतन मन और ब्रह्माण्ड की चेतना व इसमें प्रवाहित होने वाली उर्जाओं के बारे में गहन ज्ञान था। उन्होंने पिरामिडों के रूप में एक ऐसी संरचना का निर्माण किया था जिसमे कि ध्यान में सहायक उर्जाओं का एकत्रीकरण हो सके। पिरामिड के अंदर से निकलने वाली तरंगे कुछ विशेष प्रकार के विचारों को जन्म देने में सहायक होती है जोकि अन्य किसी संरचना से निर्मित भवन में संभव नहीं है। कुछ इसी तरह से हम जिन घरों में निवास करते है उनका आकार भी विशिष्ट प्रकार की उर्जाओं को अपनी और आकर्षित करता है।
वास्तु शास्त्र के अनुसार शुभ उर्जा के निरंतर प्रवाह के लिए एक वर्गाकार भूखंड किसी भी अन्य आकार के भूखंड की तुलना में श्रेष्ठ होता है। प्राचीन वास्तु ग्रन्थों और रचनाओं में पाया गया है कि वृताकार भवन में नकारात्मक्र उर्जा एकत्रित होती है वही वर्गाकार संरचना में सकारात्मक उर्जा प्रवाहित होती रहती है। अतः किसी भूखंड को खरीदते वक्त या घर का निर्माण करते वक्त वर्गाकार संरचना को सदैव प्राथमिकता दी जानी चाहिए। चूँकि हमेशा वर्गाकार भूखंड नहीं मिल सकते है अतः आयताकार भूखंड भी एक अन्य विकल्प है। हालाँकि लम्बाई और चौड़ाई के अनुपात में बहुत अधिक अंतर नहीं होना चाहिए।
वास्तु और उर्जायें –
जैसा की आपको पूर्व में बताया जा चुका है कि सृष्टि में पंच मूलभूत तत्व जीवन को संभव बनाते है। प्राचीनकाल में हमारे ऋषि-मुनियों ने ब्रह्माण्ड के कुछ रहस्य जाने और उनके आधार पर कुछ नियम व पद्धतियाँ विकसित किये जिन्हें कालान्तर में वास्तु शास्त्र के सिद्धांतों के रूप में जाना गया।
उपरोक्त वर्णित प्रभावों के अध्ययन के आधार पर वास्तु शास्त्र के नियम व सिद्धांत निर्धारित किये गए है। भवन निर्माण के वक्त इन ब्रह्माण्डीय शक्तियों के सही संतुलन पर व्यक्ति के जीवन में सुख-समृद्धि, अच्छा स्वास्थ्य और बेहतर जीवन को आकर्षित किया जा सकता है।
यद्यपि वास्तु शास्त्र के नियम सभी जगह पर समान रूप से लागू होते है लेकिन फिर भी कुछ मामलों में इनके अलग-अलग प्रभाव देखने को मिलते है। इसलिए वास्तु शास्त्र के नियम लागू करते वक्त तीन बातों का हमेशा ख्याल रखा जाता है –
वास्तु शास्त्र और ज्योतिष दोनों में ही परिणामों का अध्ययन करते वक्त इन तीनों चीजों का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए क्योंकि समय, व्यक्ति और स्थान के बदलते ही मिलने वाले परिणामों में भी परिवर्तन आ जाता है। उदाहरण के लिए भारत में जब किसी अविवाहित युवक या युवती की कुंडली देखी जाती है तो अक्सर उसमे लव मैरिज या अरेंज्ड मैरिज का योग देखा जाता है लेकिन इस प्रकार का योग किसी आधुनिक पश्चिमी देश में देखना अव्यावहारिक होगा। क्योंकि वहाँ की संस्कृति में अरेंज्ड मैरिज का कोई स्थान नहीं है तो ऐसे में जो योग विशेष किसी व्यक्ति की कुंडली में भारत के परिप्रेक्ष्य में अरेंज्ड मैरिज दिखा रहा है वह योग किसी स्थान या संस्कृति के परिवर्तन होने पर भिन्न प्रकार के परिणाम देगा। अतः सिर्फ ज्योतिष ही नहीं बल्कि वास्तु शास्त्र में भी समय, व्यक्ति और स्थान को देखकर के ही अंतिम निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए। हालाँकि वास्तु शास्त्र और ज्योतिष के मूलभूत सिद्धांत प्रत्येक समय, प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक स्थान पर बिलकुल समान रहते है उनमे किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं आता है।
एक सुखी और समृद्ध जीवनयापन के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि हमारे आसपास के वातावरण में विद्यमान उर्जाओं का भी एक सकारात्मक प्रवाह निरंतर बना रहे। वास्तु शास्त्र के अंतर्गत घर या किसी अन्य प्रकार का निर्माण करते वक्त इन्ही विभिन्न प्राकृतिक उर्जाओं के मध्य उचित सामंजस्य स्थापित किया जाता है जिन पर वास्तु शास्त्र के सिद्धांत आधारित है। वास्तु शास्त्र के सिद्धांत इन विभिन्न प्राकृतिक उर्जाओं और इनके प्रभाव पर आधारित होते है –
यह सभी शक्तिशाली प्राकृतिक उर्जायें अपने प्रभाव से वातावरण में बड़े परिवर्तन करने में सक्षम होती है। इन ऊर्जाओं में न्यायसंगत संतुलन स्थापित करके ही व्यक्ति के जीवन में स्थिरता और शुभ परिणामों की प्राप्ति संभव हो पाती है।
इन उर्जाओं में किसी प्रकार का असंतुलन जीवन में भी अस्थिरता व संघर्ष का कारण बनता है और परिणामतः आपको कड़ी मेहनत, ईमानदारी और दिन-रात जद्दोजहद करने के बाद भी जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में असफलता ही हाथ लगती है। आप अपने व्यक्तिगत जीवन में भी इन चीजों का अनुभव कर सकते है क्योंकि आपका जीवन जिस राह पर जाता है, वो मात्र एक संयोग नहीं है। निश्चित ही मेहनत, प्रतिभा और कौशल जीवन में बड़ा मुकाम हासिल करने में अहम भूमिका निभाते है। लेकिन आपको मिलने वाली सफलता और असफलता सिर्फ आपकी मेहनत और आपकी प्रतिभा पर ही निर्भर नहीं करती है। क्योंकि इस दुनिया में प्रतिभावान और बहुत मेहनती लोग भी हमेशा सफलता नहीं पाते हैं और उनसे कम प्रतिभाशाली लोग भी बड़ी सफलता हासिल कर लेते हैं।
इसका उदाहरण आपको अपनी खुद की जिंदगी में देखने को मिल जाएगा। आपके परिचितों में, आस-पड़ोस में या फिर की रिश्तेदारों में भी आप ऐसे लोगों को जानते होंगे जो कि मेहनती और प्रतिभावान हैं लेकिन बावजूद इसके बड़े संघर्षों से गुजर रहे हैं। वही दूसरी और ऐसे लोग भी आपको मिलेंगे जो कम मेहनत और ज्यादा काबिलियत ना होने के बावजूद एक के बाद एक सफलता हासिल किये जा रहे हैं। तो निश्चित ही कुछ और भी है जो हमारी जिन्दगी की राह को तय कर रहा है। आखिर वो क्या है जो हमारे जीवन को इतने बड़े स्तर पर प्रभावित करता है ? ब्रह्माण्ड की वो कौनसी शक्ति है जो हमारे अवचेतन मस्तिष्क पर प्रभाव डालती है जिससे हमारे जीवन की दशा और दिशा तय होती है ?
दरअसल ये वो ही शक्ति है जिससे इस संसार का अस्तित्व है और जिसने इस सृष्टि की और इसमें विद्यमान प्रत्येक वस्तु की रचना की है। ये शक्ति हमारे चारों ओर व्याप्त ब्रह्माण्डीय उर्जा है जिसे हम कॉस्मिक एनर्जी भी कहते हैं। प्राचीनकाल में मौजूद विद्वानों को जगत में व्याप्त उर्जाओं का गहन ज्ञान था। वे इस बात से भलीभांति परिचित थे कि किसी भी भूभाग में ब्रह्माण्डीय उर्जा अपने सुक्ष्म रूप में निरंतर प्रवाहमान रहती है। इसी उर्जा का सही संतुलन हमारे जीवन में प्रगति का कारण बनता है।
ये कॉस्मिक एनर्जी हमारी पूरी जिन्दगी को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करती हैं। हालाँकि अब यहाँ ये सवाल उठता है कि ये ब्रह्माण्डीय उर्जायें, विभिन्न प्राकृतिक तत्व, सृष्टि में विद्यमान गुण और अन्य कई पहलू किस प्रकार हमें प्रभावित करते हैं ? किस प्रकार ये किसी भवन में सात्विक उर्जा का प्रवाह सुनिश्चित करते हैं ? और इन सबमे भारत का प्राचीनकालीन भवन निर्माण विज्ञान ‘वास्तु शास्त्र’ क्यों सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है ? तो आइये एक-एक करके जानते है कि किस प्रकार से ये प्राकृतिक शक्तियां हमारे जीवन की दशा और दिशा निर्धारित करने में अहम् भूमिका निभाती है। इनमे हम निम्न बातों पर वास्तु शास्त्र का दृष्टिकोण रखेंगे –
त्रिगुण –
प्राचीनकाल में वास्तु ऋषियों व विद्वानों ने त्रिगुणों : सत्व, तमस और रजस को विभिन्न दिशाओं से जोड़ा। इन त्रिगुणों को किसी निर्मित भवन में अलग-अलग दिशाओं में विभिन्न अनुपातों में स्थान दिया और उन दिशाओं और उनकी विशेषताओं को इन त्रिगुणों के माध्यम से वर्गीकृत किया। वास्तु शास्त्र के नजरिये से इन त्रिगुणों का बहुत महत्त्व है इसलिए पहले ये जानना आवश्यक हो जाता है कि आखिर इन त्रिगुणों की क्या विशेषता होती है और ये किस प्रकार पृथ्वी पर जीवन को प्रभावित करते है।
गौरतलब है कि वैदिक दर्शनों में षडदर्शन के बारे में हमें जानकारी मिलती है और इनमे भी सांख्य दर्शन का दृष्टिकोण अन्य की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक है। त्रिगुणों के बारे में हमें सांख्य दर्शन में बेहद वैज्ञानिक और गहन जानकारी प्राप्त होती है। सांख्य दर्शन के अनुसार त्रिगुणों से इस सृष्टि की रचना हुई है। ये त्रिगुण सत्व, रजस व तमस के रूप में जाने जाते है। ये त्रिगुण सृष्टि की उत्पति से लेकर परमाणु की संरचना तक जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करते है।
ध्यान देने योग्य है कि क्वांटम फिजिक्स के अनुसार विश्व दो अविभाज्य मूलभूत कणों से बना है : क्वार्क और लेप्टोन। अविभाज्य मूलभूत कणों से आशय ऐसी इकाइयों से है जोकि सरल और संरचनाहीन हो और जिनका अन्य किसी इकाइयों में विभाजन ना हो सके। यानि कि क्वांटम फिजिक्स के अनुसार ये अविभाज्य मूलभूत कण क्वार्क और लेप्टोन है और कपिल मुनि के अनुसार समस्त सृष्टि में व्याप्त अविभाज्य मूलभूत कणों (Fundamental Particles) में प्रत्येक के अंदर तीन गुण व्याप्त होते है – सत्व, रजस और तमस। प्रकृति सत्व, तमस और रजस नामक गुणों के बीच की साम्यावस्था है यानि कि मूलभूत कणों में उपस्थित ये तीनो गुण मुलावस्था में एक-दुसरे के प्रभाव से सुषुप्त अवस्था में ही रहते है। इन तीनो तत्वों की इसी साम्यावस्था को ही प्रकृति कहते है। वेदों के अनुसार प्राण उर्जा के द्वारा ही मूलभूत कणों की साम्यावस्था भंग होती है और उसके बाद ही सृष्टि की रचना प्रारंभ होती है।
इन तीनो तत्वों की विशेषताओं की बात करें तो निष्क्रियता, आलस्य, क्षीणता, स्थिरता, इत्यादि तमस है। तमस क्रियाशीलता, गति और परिवर्तन का अभाव है। एक उर्जाहीन व शक्तिहीन व्यक्ति तामसी प्रवृति का माना जाता है। वही रजस तत्व क्रिया, गति, परिवर्तन, क्रोध, सक्रियता, इत्यादि का प्रतीक है। सत्व इन दोनों गुणों का संतुलन होता है। जहाँ जन्म रजस है और मृत्यु तमस है वही जीवन की यौवनावस्था सत्व का प्रतीक है। वृद्धि, निरंतरता, सुंदर वस्तुएं, पुष्प, सूर्योदय और वास्तु सम्मत भवन, इत्यादि सत्व के द्योतक है।
प्राचीनकाल में वास्तु ऋषियों ने इन तीनो गुणों को विभिन्न दिशाओं से जोड़ा। किसी भी भवन की नैऋत्य दिशा में पृथ्वी तत्व को तामसी माना गया, आग्नेय और वायव्य दिशाओं को रजस गुण प्रधान और जल तत्व से युक्त ईशान दिशा को सत्व गुण से सम्बंधित माना गया। चारों मुख्य दिशाओं पर दो-दो गुणों का सम्मिलित प्रभाव रहता है।
सूर्योदय की सात्विक गुणों से युक्त किरणें ईशान में पड़ती है जो कि भवन में सकारात्मक उर्जा को प्रवाहमान करती है अतः वास्तु में इस स्थान को अधिकाधिक शुभ उर्जा के ग्रहण के लिए खुला छोड़ा जाता है या शुद्ध जलाशय के निर्माण की सलाह दी जाती है। वास्तु सम्मत भवन में नैऋत्य बंद और भारी क्षेत्र होता है फलतः यह सौर उर्जा और अन्य ब्रह्माण्डीय उर्जायें कम मात्रा में ग्रहण कर पाता है इसीलिए इसे तमस गुण प्रधान दिशा मानते है। यह दिशा मास्टर बेडरूम, भारी वस्तुओं इत्यादि के लिए बेहद उपयुक्त होती है। वही वायव्य और आग्नेय दो दिशाएं रजस गुण प्रधान होती है। अग्नि की रजस उर्जा आग्नेय दिशा को किचन, जनरेटर, हीटर, गीजर इत्यादि के लिए उत्तम दिशा बनाती है। वायु की रजस उर्जा वायव्य दिशा को अतिथि कक्ष, गैराज, विदेश गमन के इच्छुक व्यक्तियों, विवाह योग्य अविवाहित युवतियों के लिए श्रेष्ठ दिशा बनाती है।
पंचतत्व–
इस संसार और मानव शरीर का निर्माण समान तत्वों से हुआ है। जैसा कि प्राचीन ग्रंथो में भी कहा गया है कि – “कण कण में ईश्वर का वास है”। उसका कुल तात्पर्य यही है कि ये संसार हमारा ही विस्तारित रूप है और हम इसका सूक्ष्म स्वरुप है क्योंकि ब्रह्माण्ड में जो उर्जा विशाल मात्रा में व्याप्त है वही उर्जा मानव शरीर में सूक्ष्मतम रूप में विद्यमान है। ये उर्जा प्रत्येक जगह उपस्थित है, फिर चाहे वो कोई भूभाग हो या फिर कि कोई निर्जीव या सजीव वस्तु।
हमारे गृह पर जीवन का अस्तित्व यहाँ मौजूद पंच तत्वों (वायु, जल, आकाश, अग्नि, पृथ्वी) के कारण ही संभव है और इनके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। लेकिन स्वस्थ और समृद्ध जीवन के लिए इन पंच तत्वों का होना ही काफी नहीं है, बल्कि इनमे एक बेहतर संतुलन भी आवश्यक है। वास्तु इन्ही पंच तत्वों के सही संतुलन और समन्वय की एक उत्तम वैज्ञानिक पद्धति है। जिसके जरिये हमारे आस पास की नकारात्मक उर्जा को ख़त्म कर, सकारात्मक उर्जा को बढ़ाने के उपाय किये जाते है ताकि हम एक सुखी और वैभवपूर्ण जीवनयापन कर सके।
जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी व आकाश ये पंचतत्व हमारे अंदर और बाहर हमेशा विद्यमान रहते है। घर की प्रत्येक किसी एक तत्व विशेष से प्रभावित होती है। ये तत्व न सिर्फ जीवनदायिनी है बल्कि ये जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से निरंतर प्रभावित करते है। इसीलिए इन पांच तत्वों का वास्तु शास्त्र में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।
8 दिशाएं –
मुख्य रूप से चार प्रमुख दिशाओं उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम से सभी लोग परिचित होते है। हालाँकि वास्तु शास्त्र में चार और प्रमुख दिशाओं को स्थान दिया जाता है। इन दिशाओं को ईशान (उत्तर-पूर्व), आग्नेय (दक्षिण-पूर्व), नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) और वायव्य (उत्तर-पश्चिम) के रूप में जाना जाता है। इन सभी दिशाओं की अलग-अलग विशेषताएं और प्रभाव होते है और इन्ही को ध्यान में रखकर भवन का निर्माण किया जाता है ताकि उसमे निवास करने वाले लोगो को सर्वोत्तम परिणामों की प्राप्ति हो।
9 ग्रह –
वास्तु शास्त्र और ज्योतिष शास्त्र में उल्लेखित नौ ग्रहों का परस्पर गहरा सम्बन्ध होता है। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति घर का वास्तु ठीक कराने के लिए किसी वास्तु विशेषज्ञ के पास सामान्यतया तभी जाता है जब चतुर्थ भाव या चतुर्थ भाव के स्वामी पर गोचरवश बृहस्पति दृष्टिपात करें और इस प्रकार की परिस्थिति में भूमि सम्बन्धी सुधार करने के योग बनते है। इसके अलावा भवन में वास्तु संशोधन के योग तब भी बनते है जब चतुर्थ भाव के स्वामी की अन्तर्दशा आने वाली होती है। यही नहीं बल्कि घर की प्रत्येक दिशा किसी ना किसी ग्रह विशेष से प्रभावित होती है अतः वास्तु में सभी नौ ग्रहों सूर्य, चंद्रमा, मंगल, राहु, बृहस्पति, शनि, बुध, केतु, शुक्र इत्यादि के प्रभावों का भी अध्ययन किया जाता है।
16 जोन –
वास्तु शास्त्र के अनुसार प्रत्येक भवन में 16 जोन (Energy Fields) होते है और प्रत्येक जोन की अपनी विशेषता या गुण के चलते उसमे कुछ निश्चित कार्य ही किये जाए तो सर्वश्रेष्ठ फल प्राप्त होते है। इन 16 जोन का विभाजन इनमे उपस्थित उर्जाओं की उपस्थिति के आधार पर किया गया है| इन उर्जाओं का प्रभाव ही वो कारण होता है कि घर में किसी स्थान विशेष में आपका पढने में अधिक मन लगता है और अन्य स्थान पर नहीं। इसी प्रकार घर में किसी एक जगह आपको अच्छी नींद आती है और किसी अन्य स्थान पर सोने पर आपको बैचेनी, अनिद्रा या सुबह उठने पर उर्जा की कमी महसूस होती है। यही कारण है कि वास्तु में प्रत्येक कार्य के लिए कुछ विशेष जोन निर्धारित किये गए है जिनके अनुसार भवन निर्माण करने पर उत्तम नतीजों की प्राप्ति होती है।
32 पद –
वास्तु शास्त्र में सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक है घर का मुख्य द्वार। घर का मुख्य द्वार किस दिशा में और किस स्थान पर स्थित है यह बात घर के निवासियों पर सकारात्मक या नकारात्मक रूप में बहुत गंभीर प्रभाव डालती है। अतः किसी भवन में उचित स्थान पर मुख्य द्वार के निर्माण के लिए प्रत्येक लम्बाई (Length) और चौडाई (Width) को 9 (9 X 9 = 81) भागों में विभाजित किया जाता है, जिससे बाहरी भाग पर कुल मिलाकर 32 खाने या पद बनते है। हर दिशा में कुछ ऐसे भाग होते है जिन पर मुख्य द्वार का निर्माण शुभ होता है तो कुछ ऐसे भाग होते है जिनमे मुख्य द्वार का निर्माण अशुभ होता है। उदाहरण के लिए निम्न भाग मुख्य द्वार के निर्माण के लिए सर्वोत्तम होते है –
उत्तर दिशा – मुख्य, भल्लाट और सोम
पूर्व दिशा – पर्जन्य, जयंत
दक्षिण दिशा – गृहक्षत
पश्चिम दिशा – पुष्पदंत, वरुण
45 उर्जा क्षेत्र –
वास्तु शास्त्र के अनुसार जब भी किसी भवन का निर्माण होता है तो उस भवन में 45 विभिन्न उर्जा क्षेत्र भी अस्तित्व में आ जाते है। इन उर्जा क्षेत्रों में बना संतुलन-असंतुलन हमें निरंतर प्रभावित करता है। ध्यान देने योग्य है कि हमारे शरीर में जीवन का अस्तित्व एक उर्जा विशेष की विद्यमानता के कारण ही संभव है। जिस समय यह उर्जा हमारे शरीर से गमन कर जाती है उसी समय हमारी देह का भी अंत हो जाता है। तो जिस प्रकार से जब एक व्यक्ति जन्म लेता है तो उसमे एक उर्जा भी अस्तित्व में आती है जिसे आप रूह भी कह सकते है, ठीक उसी प्रकार एक भवन के निर्माण के दौरान भी उसमे विभिन्न उर्जा क्षेत्रों का निर्माण होता है जोकि उस भवन में निवास करने वाले लोगो को प्रभावित करती है। जैसे-जैसे भवन का निर्माण आगे बढ़ता है उसी अनुसार भवन में उर्जा क्षेत्र निर्मित होने लगते है। इनमे स्थापित उचित और सकारात्मक संतुलन ही जीवन को भी सकारात्मक व संतुलित बनाता है।
वास्तु शास्त्र के अनुसार पृथ्वी पर उर्जा का प्रवाह उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम की ओर विशाल ग्रिड लाइन्स के रूप में होता है। इसके परिणामस्वरूप एक विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र का निर्माण होता है। इन ग्रिड लाइन्स को हर्टमैन ग्रिड और करी ग्रिड लाइन्स के रूप में जाना जाता है।
डॉ. मैनफेड ने अपने अध्ययन में पाया कि प्राकृतिक विद्युत् रेखाओं का एक जाल पृथ्वी को घेरे हुए है। ये रेखाएं ईशान (North-East) से नैऋत्य (South-West) की ओर व आग्नेय (South-East) से वायव्य (North-West) की ओर प्रवाहमान रहती है। उर्जा रेखाओं के इस प्रवाह को करी ग्रिड (Currie Grid) के नाम से जाना जाता है। इन रेखाओं के मिलन बिन्दुओं पर सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव दोगुना हो जाता है।
ठीक इसी प्रकार जर्मनी के डॉ. हार्टमैन ने उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम की ओर चलने वाले उर्जा रेखाओं के प्रवाह को खोजा। जिन्हें हार्टमैन ग्रिड (Hartmann Grid) के नाम से जाना जाता है। करी रेखाओं के समान ही हार्टमैन रेखाओं के मिलन बिंदु भी बेहद शक्तिशाली होते है।
हार्टमैन रेखाओं को करी रेखाओं के ऊपर स्थापित करने पर और भी अधिक संवेदनशील व शक्तिशाली ग्रिड का निर्माण होता है।
व्यक्ति के स्वस्थ रहने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह इन ग्रिड्स के अंदर ही निवास करें लेकिन इन रेखाओं के मिलन बिन्दुओं पर बिलकुल नहीं सोये क्योंकि इन रेखाओं के मिलन बिन्दुओं पर जियोपैथिक स्ट्रेस जोन निर्मित हो जाता है जोकि स्वास्थ्य के लिहाज से बेहद घातक सिद्ध होता है। जियोपैथिक स्ट्रेस जोन कई प्रकार की गंभीर व दीर्घकालीन बिमारियों का तो कारण बनता ही है साथ ही यह स्थान विशेष में नकारात्मक उर्जा भी उत्पन्न करता है जिससे की व्यक्ति में सही और सकारात्मक निर्णय लेने की क्षमता पर भी असर पड़ता है। फलतः स्वास्थ्य के अतिरिक्त भी अन्य कई समस्याओं से रूबरू होना पड़ता है।
चूँकि वास्तु का मूलभूत कार्य अशुभ उर्जाओं के प्रवाह को ख़त्म कर शुभ उर्जाओं के प्रवाह को सुनिश्चित करना है तो ऐसे में जिन घरों में जियोपैथिक स्ट्रेस जोन उपस्थित होता है वहां पर निर्मित नकारात्मक उर्जाओं की समस्या के समाधान के लिए वास्तु शास्त्र एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। उर्जा के प्रवाह को पुनः उसकी प्राकृतिक अवस्था में लौटाने के लिए वास्तु शास्त्र के विज्ञान का उपयोग किया जाता है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि मानव जीवन को सुखी, स्वस्थ और वैभवपूर्ण बनाने के लिए जिन सिद्धांतो का पालन भवन निर्माण के वक्त किया जाता है वही वास्तु शास्त्र का विज्ञान कहलाता है।
वास्तु-शास्त्र का प्रचलन दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। कुछ लोग इस पर अंध्-विश्वास की सीमा तक विश्वास करते हैं और अपने बने बनाए भवनों में तोड़-फोड़ कर लाखों का नुकसान कर बैठते हैं। दूसरे इसे बिल्कुल पोंगा पंथी मानते हैं। दोनों ही अवस्थाओं को प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता। वास्तु-शास्त्र हो या ज्योतिष-शास्त्र, इसे अंधविश्वास या वहम नहीं बनाना चाहिए। आत्मविश्वास सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। पर यह निश्चित है कि दोनों ही शास्त्र मात्र ढकोसला नही हैं। दर्शन-शास्त्र की बात मानें तो प्रत्येक प्राणी या वस्तु की स्थिति देश (space) और काल (time) से आबद्ध है। वास्तव में हम ब्रह्माण्डीय प्राणी हैं। हमारे अस्तित्व का कण-कण और पल-पल अनादि, अपार और अनन्त वैश्विक सूक्ष्म डोरियों से बंधा हुआ है।
वास्तु-शास्त्र की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की जाती है - प्रथमत: वस्तु से संबंधित जो प्राणी के बाह्य जगत के घात-प्रतिघात (interaction) से संबंध् रखता है। भारतीय चिंतन परम्परा के आधर पर कोई भी वस्तु मात्र जड़ नहीं है, इसमें चेतन समाहित है अत: यह समीपस्थ चेतना के पुंज प्राणियों को प्रभावित करती है। मानव-जीवन अपने चारों ओर के वातावरण से प्रभावित होता है। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश आदि प्राकृतिक संसाध्नों से उर्जा प्राप्त कर अपनी जीवन यात्रा पूरी करता है। वास्तु शास्त्र व्यवस्थित ढंग से उसकी संगति बैठाता है। बाह्य जगत से सामंजस्य और समरसता बैठाने का काम वास्तु-शास्त्र करता है। कुछ लोग इसका संबंध-वास (dwelling place) से भी मानते हैं।
पहले कहा गया कि हम सब देश (space) से आबद्ध हैं। वह दस भागों में विभक्त है जिन्हें दिशाएं कहा गया है। अधिकतर लोग चार दिशाएं मानते हैं पर दिशाएं दस हैं। चार मुख्य दिशाएं पूर्व, उत्तर पश्चिम तथा दक्षिण एवं उन चारों दिशाओं के कोने ईशान (पूर्वोत्तर), आग्नेय (दक्षिण-पूर्व), नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) तथा वायव्य (उत्तर-पश्चिम)। इसके अतिरिक्त दो दिशाएं और हैं- उधर्व व अध: (उपर व नीचे)।
मानव जीवन पर दिशाओं के प्रभाव को जानने से पहले हमें याद रखना होगा कि पृथ्वी एक बहुत बड़ा चुम्बकीय ग्रह है। इसके दो सिरे हैं : उत्तरी ध्रुव व दक्षिणी ध्रुव। चुम्बक का लौह तत्व से आकर्षण सर्वविदित है। मानव शरीर का 66 प्रतिशत अंश तरल है जिसमें लौह तत्व की बहुलता है इसलिए मानव एक चलता फिरता चुम्बक है जिसकी संगति भौगोलिक चुम्बक से अवश्य बैठनी चाहिए। इसीलिए दक्षिण दिशा की ओर पैर करके सोना घातक माना गया है क्योंकि इससे भौगोलिक उत्तरी ध्रुव और मानवीय उत्तरी ध्रुव एक मुखी होने के नाते असंतुलन पैदा करता है क्योंकि समान चुम्बकीय ध्रुव विकर्षण कारक होते हैं। हमें सदा दक्षिण की ओर सिर करके सोना चाहिए जिससे भौगोलिक व मानवीय चुम्बकीय ध्रुवों में आकर्षण बैठ सके। व्यावहारिक वास्तु-शास्त्र का प्रारंभिक ज्ञान प्राप्त करने से पहले हमें दसों दिशाओं के बारे में कुछ मूलभूत बातें जानना आवश्यक है।
1. पूर्व-दिशा : यह प्रकाश, ज्ञान, चेतना का स्रोत है। भगवान सूर्य इस दिशा में उदित होकर सभी प्राणियों में स्फूर्ति व उर्जा का संचार करते हैं। इन्द्र इसके देवता हैं और सूर्य ग्रह। पूजा ध्यान, चिंतन तथा अन्य बौद्धिक कार्य पूर्वाभिमुख होकर करने से इनकी गुणवत्ता बढ़ जाती है। इस दिशा की ओर खुलने वाला भवन सर्वोत्तम माना गया है। प्रात:काल पूर्व दिशा से आने वाली हवा का घर में निर्वाध रूप से प्रवेश होना चाहिए ताकि सारा घर सकारात्मक उर्जा से आपूरित हो जाए।
2. आग्नेय : अग्नि इसके देवता हैं और शुक्र ग्रह। आग्नेय दिशा में जलाशय आदि (waterbody) नहीं होना चाहिए। इस दिशा में रसोई का होना बहुत शुभ है। आग्नेय दिशा में ऊंची भूमि धनदायक मानी गई है। इस दिशा की ओर मुंह करके गंभीर चिंतन कार्य नहीं करना चाहिए।
3. दक्षिण-दिशा : इसके देवता यम हैं और मंगल ग्रह। यह दिशा सबसे अशुभ मानी गई है परन्तु इस ओर सर कर सोना स्वास्थ्य-र्वध्क व शांतिदायक है। यदि इस ओर भूमि ऊंची हो तो वह सब कामनाएं संपूर्ण करती है और स्वास्थ्य र्वध्क होती है। भवन कभी भी दक्षिण की ओर नहीं खुलना चाहिए बल्कि इस दिशा में शयन-कक्ष होना उत्तम है।
4. दक्षिण-पश्चिम : निऋति नामक राक्षस इसका अधिष्ठता है और राहु-केतु इसके ग्रह हैं। यह दिशा भी कुछ शुभ नहीं है। पर गृह स्वामी और स्वामिनी का निवास स्थान इसी दिशा में होने से उनका अधिकार बढ़ता है। संभवत: यह इस बात का द्योतक है कि शासक की तरह गृहस्वामी को भी अवांछनीय और शरारती तत्वों पर नियंत्राण रखना चाहिए। इस दिशा में भी द्वार नहीं होना चाहिए तथा इस ओर जल-प्रवाह प्राणघातक, कलहकारी व क्षयकारक माना गया है। इस दिशा में शौचालय, भंडार-गृह होना उचित है।
5. पश्चिम दिशा : वरुण इसके देवता हैं और शनि ग्रह। यह सूर्यास्त की दिशा है। इसलिए पश्चिमाभिमुख होकर बैठना मन में अवसाद पैदा करता है। पश्चिम में भोजन करने का स्थान उत्तम है। सीढ़ियां, बगीचा, कुंआ आदि भी इस ओर हो सकता है। पश्चिम की ओर सिर करके सोने से प्रबल चिन्ता घेर लेती है।
6. वायव्य दिशा : इस दिशा के देवता वायु हैं तथा चन्द्रमा ग्रह। यह दिशा चंचलता का प्रतीक है। इस दिशा की ओर मुख करके बैठने से मन में चंचलता आती है और एकाग्रता नष्ट होती है। जिस कन्या के विवाह में विलम्ब हो रहा हो, उसे इस दिशा में निवास करना चाहिए जिससे उसका विवाह शीघ्र हो जाए। दुकान आदि व्यापारिक प्रतिष्ठान वायव्य दिशा में होने से ग्राहकों का आवागमन बढ़ेगा तथा सामान जल्दी बिकेगा। ध्यान चिंतन तथा पठन-पाठन के लिए यह दिशा उत्तम नहीं है।
7. उत्तर दिशा : कुबेर तथा चन्द्र इसके देवता हैं तथा बुद्ध इसका ग्रह है। यह दिशा शुभ कार्यों के लिए उत्तम मानी गई है। पूजा, ध्यान, चिंतन, अध्ययन आदि कार्य उत्तराभिमुख होकर करने चाहिए। धन के देवता कुबेर की दिशा होने के कारण इस दिशा की ओर द्वार समृद्धि दायक माना गया है। देव-गृह, भंडार और घन-संग्रह का स्थान इसी दिशा में होना चाहिए। इस ओर जलाशय (water body) का होना अत्युत्तम है पर कभी भी इस ओर सिर करके नहीं सोना चाहिए।
8. ईशान (उत्तर-पूर्व) : इसके देवता भगवान शंकर और ग्रह बृहस्पति हैं। दसों दिशाओं में यह सर्वोत्तम दिशा है। यह ज्ञान (पूर्व) और समृद्धि; (उत्तर) का मेल है। इस ओर द्वार होना सबसे अच्छा है। इससे आने वाली वायु सारे घर को सकारात्मक उर्जा से परिपूरित कर देती है। पूजा स्थान इसी दिशा में होना चाहिए। जल-स्थान (water body) बगीचा आदि इस दिशा के सुप्रभाव को बढ़ा देता है और घर में सुख-समृद्धि लाता है।
व्यावहारिक वास्तु-शास्त्र में दिशाओं का महत्व है। भली-भांति समझ कर उनके उपयोग से जीवन में लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
वास्तु शास्त्र का आधार प्रकृति है। आकाश, अग्नि, जल, वायु एवं पृथ्वी इन पांच तत्वों को वास्तु-शास्त्र में पंचमहाभूत कहा गया है। शैनागम एवं अन्य दर्शन साहित्य में भी इन्हीं पंच तत्वों की प्रमुखता है। अरस्तु ने भी चार तत्वों की कल्पना की है। चीनी फेंगशुई में केवल दो तत्वों की प्रधानता है - वायु एवं जल की। वस्तुतः ये पंचतत्व सनातन हैं। ये मनुष्य ही नहीं बल्कि संपूर्ण चराचर जगत पर प्रभाव डालते हैं। वास्तु शास्त्र प्रकृति के साथ सामंजस्य एवं समरसता रखकर भवन निर्माण के सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है। ये सिद्धांत मनुष्य जीवन से गहरे जुड़े हैं।
वास्तु दोष निवारण के कुछ सरल उपाय
कभी-कभी दोषों का निवारण वास्तुशास्त्रीय ढंग से करना कठिन हो जाता है। ऐसे में दिनचर्या के कुछ सामान्य नियमों का पालन करते हुए निम्नोक्त सरल उपाय कर इनका निवारण किया जा सकता है।
पूजा घर पूर्व-उत्तर (ईशान कोण) में होना चाहिए तथा पूजा यथासंभव प्रातः 06 से 08 बजे के बीच भूमि पर ऊनी आसन पर पूर्व या उत्तर की ओर मुंह करके बैठ कर ही करनी चाहिए।
पूजा घर के पास उत्तर-पूर्व (ईशान कोण) में सदैव जल का एक कलश भरकर रखना चाहिए। इससे घर में सपन्नता आती है। मकान के उत्तर पूर्व कोने को हमेशा खाली रखना चाहिए।
घर में कहीं भी झाड़ू को खड़ा करके नहीं रखना चाहिए। उसे पैर नहीं लगना चाहिए, न ही लांघा जाना चाहिए, अन्यथा घर में बरकत और धनागम के स्रोतों में वृद्धि नहीं होगी।
पूजाघर में तीन गणेशों की पूजा नहीं होनी चाहिए, अन्यथा घर में अशांति उत्पन्न हो सकती है। तीन माताओं तथा दो शंखों का एक साथ पूजन भी वर्जित है। धूप, आरती, दीप, पूजा अग्नि आदि को मुंह से फूंक मारकर नहीं बुझाएं। पूजा कक्ष में धूप, अगरबत्ती व हवन कुंड हमेशा दक्षिण पूर्व में रखें।
घर में दरवाजे अपने आप खुलने व बंद होने वाले नहीं होने चाहिए। ऐसे दरवाजे अज्ञात भय पैदा करते हैं। दरवाजे खोलते तथा बंद करते समय सावधानी बरतें ताकि कर्कश आवाज नहीं हो। इससे घर में कलह होता है। इससे बचने के लिए दरवाजों पर स्टॉपर लगाएं तथा कब्जों में समय समय पर तेल डालें।
खिड़कियां खोलकर रखें, ताकि घर में रोशनी आती रहे।
घर के मुख्य द्वार पर गणपति को चढ़ाए गए सिंदूर से दायीं तरफ स्वास्तिक बनाएं।
महत्वपूर्ण कागजात हमेशा आलमारी में रखें। मुकदमे आदि से संबंधित कागजों को गल्ले, तिजोरी आदि में नहीं रखें, सारा धन मुदमेबाजी में खर्च हो जाएगा।
घर में जूते-चप्पल इधर-उधर बिखरे हुए या उल्टे पड़े हुए नहीं हों, अन्यथा घर में अशांति होगी।
सामान्य स्थिति में संध्या के समय नहीं सोना चाहिए। रात को सोने से पूर्व कुछ समय अपने इष्टदेव का ध्यान जरूर करना चाहिए।
घर में पढ़ने वाले बच्चों का मुंह पूर्व तथा पढ़ाने वाले का उत्तर की ओर होना चाहिए।
घर के मध्य भाग में जूठे बर्तन साफ करने का स्थान नहीं बनाना चाहिए।
उत्तर-पूर्वी कोने को वायु प्रवेश हेतु खुला रखें, इससे मन और शरीर में ऊर्जा का संचार होगा।
अचल संपत्ति की सुरक्षा तथा परिवार की समृद्धि के लिए शौचालय, स्नानागार आदि दक्षिण-पश्चिम के कोने में बनाएं।
भोजन बनाते समय पहली रोटी अग्निदेव अर्पित करें या गाय खिलाएं, धनागम के स्रोत बढ़ेंगे।
पूजा-स्थान (ईशान कोण) में रोज सुबह श्री सूक्त, पुरुष सूक्त एवं हनुमान चालीसा का पाठ करें, घर में शांति बनी रहेगी।
भवन के चारों ओर जल या गंगा जल छिड़कें।
घर के अहाते में कंटीले या जहरीले पेड़ जैसे बबूल, खेजड़ी आदि नहीं होने चाहिए, अन्यथा असुरक्षा का भय बना रहेगा।
कहीं जाने हेतु घर से रात्रि या दिन के ठीक १२ बजे न निकलें।
किसी महत्वपूर्ण काम हेतु दही खाकर या मछली का दर्शन कर घर से निकलें।
घर में या घर के बाहर नाली में पानी जमा नहीं रहने दें।
घर में मकड़ी का जाल नहीं लगने दें, अन्यथा धन की हानि होगी।
शयनकक्ष में कभी जूठे बर्तन नहीं रखें, अन्यथा परिवार में क्लेश और धन की हानि हो सकती है।
भोजन यथासंभव आग्नेय कोण में पूर्व की ओर मुंह करके बनाना तथा पूर्व की ओर ही मुंह करके करना चाहिए।
FOR VASTU SHASTRA IN HINDI CLICK HERE
FOR 45 DEVTAS OF VASTU PURUSHA MANDALA IN HINDI CLICK HERE
FOR 16 VASTU ZONES IN HINDI CLICK HERE
FOR FIVE ELEMENTS OF VASTU IN HINDI CLICK HERE
FOR AYADI VASTU IN HINDI CLICK HERE
FOR GEOPATHIC STRESS VASTU IN HINDI CLICK HERE
FOR VASTU AND COSMIC ENERGY IN HINDI CLICK HERE
FOR VASTU TIPS IN HINDI - CLICK HERE
VASTU TIPS FOR PAINTINGS - CLICK HERE
VASTU TIPS FOR CLOCK IN HINDI - CLICK HERE
VASTU TIPS FOR REMOVING NEGATIVE ENERGY IN HINDI - CLICK HERE
VASTU TIPS FOR POSITIVE ENERGY IN HINDI - CLICK HERE
VASTU TIPS FOR CAREER IN HINDI - CLICK HERE
VASTU TIPS FOR MONEY IN HINDI - CLICK HERE
VASTU TIPS FOR HAPPY MARRIED LIFE IN HINDI - CLICK HERE
VASTU TIPS FOR PLOTS IN HINDI - CLICK HERE
FOR VASTU TIPS ON BEDROOM IN HINDI - CLICK HERE
FOR AROMA VASTU TIPS - CLICK HERE
Engineer Rameshwar Prasad(B.Tech., M.Tech., P.G.D.C.A., P.G.D.M.) Vaastu International
|