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ASTROLOGY

Astrology in Bhagavad Gita in Hindi (भगवत गीता और ज्योतिष)

महाभारत के युद्ध के दौरान जब अर्जुन युद्ध के मैदान में अपने सामने सभी रिश्तेदारों को देखकर अवसाद के क्षेत्र में प्रवेश कर गए थे तब श्रीकृष्ण ने उन्हें जीवन के कुछ रहस्यमयी तथ्य बताये थे और ये पाठ 'श्रीमद भगवद गीता' के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस पुस्तक में दिए गए श्लोक वास्तव में श्रीकृष्ण के शब्द हैं और इसलिए महान पवित्र हैं और इन्हें कृष्ण भक्तों द्वारा मंत्र के रूप में लिया जाता है।

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इस गीता के बारे में मुख्य बात यह है कि यह वास्तव में किसी भी धर्म या समुदाय के लिए नहीं है, बल्कि समाज के कल्याण के लिए है। इसने इस रहस्य को उजागर किया है कि एक सफल जीवन कैसे जिया जाए, कर्म योग का क्या महत्व है, जीवन का महत्व क्या है, जीवन की विभिन्न स्थितियों से कैसे निपटा जाए आदि।

यदि कोई इसे पढ़े और गंभीरता से चिंतन करे तो फिर इसमें कोई संदेह नहीं है कि इसमें किसी व्यक्ति के संपूर्ण जीवन को बदलने की शक्ति है। यह हमारे व्यक्तित्व को एक सुपर विकसित व्यक्तित्व के रूप में विकसित करने के लिए महान सुझाव प्रदान करता है।

यहाँ इस लेख में मैं भगवद गीता में मौजूद सभी 18 अध्यायों के महत्व को बताने जा रहा हूँ जिसे जानकर आप इसे जरुर पढना चाहेंगे।

आइये जानते हैं कुछ महत्वपूर्ण बातें गीता के सम्बन्ध में :

  • गीता श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को लगभग 7000 साल पहले एकादशी के शुभ दिन पर बताई गई थी।
  • यह महान घटना कुरुक्षेत्र युद्ध के मैदान में घटित हुई थी।
  • भगवद् गीता में 700 श्लोक मौजूद हैं जो भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग के बारे में बता रहे हैं। इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि तनाव मुक्त जीवन कैसे जिया जाए और धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को आसानी से कैसे प्राप्त किया जाए।
  • एक वास्तविक बातचीत जो किसी के जीवन को बदल सकती है।

यह एक बड़े ही विचार का विषय है कि कर्म, भाग्य और ज्योतिष क्या है और एक मनुष्य के जीवन पर इनका क्या और कितना प्रभाव पड़ता है?

सबसे पहले कर्म को समझते हैं,

कर्म, मनुष्य का परमधर्म है, पूरी गीता ही निष्काम कर्म योग का शास्त्र है। गीता के अनुसार:

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥

अर्थात, बिना ज्ञान के केवल कर्म संन्यास मात्र से मनुष्य निष्कर्मतारूप सिद्धि को क्यों नहीं पाता इसका कारण जानने की इच्छा होने पर कहते हैं कोई भी मनुष्य कभी क्षण मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता क्योंकि सभी प्राणी प्रकृति से उत्पन्न सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों द्वारा परवश हुए अवश्य ही कर्मों में प्रवृत्त कर दिये जाते हैं। [यहाँ सभी प्राणी के साथ अज्ञानी (शब्द) और जोड़ना चाहिये (अर्थात् सभी अज्ञानी प्राणी ऐसे पढ़ना चाहिये) क्योंकि आगे जो गुणों से विचलित नहीं किया जा सकता इस कथन से ज्ञानियों को अलग किया है] अतः अज्ञानियों के लिये ही कर्मयोग है, ज्ञानियोंके लिये नहीं। क्योंकि जो गुणों द्वारा विचलित नहीं किये जा सकते उन ज्ञानियों में स्वतः क्रिया का अभाव होने से उनके लिये कर्मयोग सम्भव नहीं है।

वेद, उपनिषद और गीता, सभी कर्म को कर्तव्य मानते हुए इसके महत्व को बताते हैं।

वेदों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र और वैश्य को कर्म के आधार पर बांटा गया है, आप बताए गए माध्यम से सही-सही कर्म करते रहें तब आपके वही कर्म, धर्म बन जाएंगे और आप धार्मिक कहलायेंगे।

कर्म ही पुरुषार्थ है, धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्रों में कहा गया है कि कर्म के बगैर गति नहीं।
हमारे धर्मशास्त्रों में मुख्यतः 6 प्रकार के कर्मों का वर्णन मिलता है:

  1. नित्य कर्म (दैनिक कार्य)
  2. नैमित्य कर्म (नियमशील कार्य)
  3. काम्य कर्म (किसी मकसद से किया हुआ कार्य)
  4. निश्काम्य कर्म (बिना किसी स्वार्थ के किया हुआ कार्य)
  5. संचित कर्म (प्रारब्ध से सहेजे हुए कर्म) और
  6. निषिद्ध कर्म (नहीं करने योग्य कर्म)।

बृहदारण्यक उपनिषद  का पवमान मंत्र (1.3.28) कहता है:

ॐ असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय ॥
ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः ॥

अर्थात: हे ईश्वर! मुझे मेरे कर्मों के माध्यम से असत्य से सत्य की ओर ले चलो। मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।

अब ये कर्म कैसे होते है या कौन से उपर्युक्त कर्म हैं इसके विषय में गहराई से न जाते हुए अब बात करते हैं भाग्य की, भाग्य क्या है?

भाग्य या प्रारब्ध हमारे कर्मों के फल होते हैं। ईश्वर किसी को कभी कोई दण्ड या पुरस्कार नहीं देता, ईश्वर की व्यवस्थाएं हैं, जो नियमित और निरंतर चलते हुए भी कभी एक दूसरे के काम में हस्तक्षेप नहीं करतीं।  ईश्वर की स्वचालित व्यवस्थाओं में उन्होंने इस के लिए हमारे कर्मों को ही आधार बनाया है। जैसे कर्म वैसे ही उनके फल, जो जन्म-पुनर्जन्म चलते रहते हैं।

उदाहरण से समझते हैं, यदि आप आग को छूते हैं तो जलते हैं इसका आभास तुरंत होता है या अगर आप आम का पेड़ लगाते हैं तब समय आने पर उनमें आम का फल ही प्राप्त होता है। ठीक उसी प्रकार वह हमारे संचित कर्म होते हैं जो वर्तमान जीवन में भाग्य कहलाते हैं, अगर संचित कर्म अच्छे रहे तो आप भाग्यशाली बनेंगे।

कर्म और भाग्य को और अच्छे से समझने के लिए पुराणों में एक कथा का उल्लेख मिलता है। एक बार देवर्षि नारद बैकुंठ धाम गए। वहां उन्होंने भगवान विष्णु का नमन किया। नारद जी ने श्रीहरि से कहा, ‘‘प्रभु! पृथ्वी पर अब आपका प्रभाव कम हो रहा है। धर्म पर चलने वालों को कोई अच्छा फल नहीं मिल रहा, जो पाप कर रहे हैं उनका भला हो रहा है।’’

तब भगवान विष्णु ने कहा, ‘‘ऐसा नहीं है देवर्षि जो भी हो रहा है सब नियति के जरिए हो रहा है।’’

नारद बोले, ‘‘मैं तो देखकर आ रहा हूं, पापियों को अच्छा फल मिल रहा है और भला करने वाले, धर्म के रास्ते पर चलने वाले लोगों को बुरा फल मिल रहा है।’’

भगवान ने कहा, ‘‘कोई ऐसी घटना बताओ। नारद ने कहा अभी मैं एक जंगल से आ रहा हूं। वहां एक गाय दलदल में फंसी हुई थी। कोई उसे बचाने वाला नहीं था। तभी एक चोर उधर से गुजरा। गाय को फंसा हुआ देखकर भी नहीं रुका, वह उस पर पैर रखकर दलदल लांघकर निकल गया। आगे जाकर चोर को सोने की मोहरों से भरी एक थैली मिली।’’ थोड़ी देर बाद वहां से एक वृद्ध साधु गुजरा। उसने उस गाय को बचाने की पूरी कोशिश की। पूरे शरीर का जोर लगाकर उस गाय को बचा लिया लेकिन मैंने देखा कि गाय को दलदल से निकालने के बाद वह साधु आगे गया तो एक गड्ढे में गिर गया। प्रभु! बताइए यह कौन सा न्याय है?

नारद जी की बात सुन लेने के बाद प्रभु बोले, यह सही ही हुआ। जो चोर गाय पर पैर रखकर भाग गया था उसकी भाग्य में तो एक खजाना था लेकिन उसके इस पाप के कारण उसे केवल कुछ मोहरें ही मिलीं।

वहीं, उस साधु को गड्ढे में इसलिए गिरना पड़ा क्योंकि उसके भाग्य में मृत्यु लिखी थी लेकिन गाय को बचाने के कारण उसके पुण्य बढ़ गए और उसकी मृत्यु एक छोटी-सी चोट में बदल गई। यहां भी स्पष्ट है कि मनुष्य के कर्म से उसका भाग्य तय होता है।

बात हुई कर्म और भाग्य की, अब ज्योतिष क्या है?

आज का विज्ञान अभी इन बातों से कोसों दूर है लेकिन ईश्वरीय विधान पूर्णतः वैज्ञानिक है। एक सेकेंड के हजारवें हिस्से की गणना उपलब्ध है। चूंकि आपके कर्म आपके भाग्य का निर्धारण करते हैं तो उनको सही ढंग से प्रभावी बनाने के लिए ग्रहों, नक्षत्रों आदि की स्थिति और उनकी गति भी उन्ही के अनुरूप बनती है, जिससे हमें उनका फल मिल सके। ग्रह हमारे कर्मों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी गति यह निर्धारित करती है कि कब किस समय की उर्जा हमारे लिए लाभदायक है या हानिकारक है। समय की एक निश्चित्त प्रवृति होंने के कारण एक कुशल ज्योतिषी उसकी ताल को पहचान कर भूत, वर्तमान और भविष्य में होने वाली घटनाओं का विश्लेषण कर सकता है।

एक ही ग्रह अपने पांच स्वरूपों को प्रदर्शित करता है। अपने निम्नतम स्वरुप में अपने अशुभ स्वभाव/राक्षस प्रवृत्ति को दर्शाते हैं। अपने निम्न स्वरुप में अस्थिर और स्वेच्छाचारी स्वभाव को बताते हैं। अपने अच्छे स्वरुप में मन की अच्छी प्रवृत्तियों, ज्ञान, बुद्धि और अच्छी रुचियों के विषय में बताते हैं। अपनी उच्च स्थिति में दिव्य गुणों को प्रदर्शित करते हैं, और उच्चतम स्थिति में चेतना को परम सत्य से अवगत कराते हैं।

उदहारण के लिए मंगल ग्रह साधारण रूप में लाल रंग की ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करता है। अपनी निम्नतम स्थिति में वह अत्याधिक उपद्रवी बनाता है। निम्न स्थिति में व्यर्थ के झगड़े कराता है। अपनी सही स्थिति में यही मंगल ऐसी शक्ति प्रदान करता है कि निर्माण की असंभव कार्य भी संभव बना देता है।

अब इसका अर्थ हुआ कि वे हमारे कर्म के फल ही हैं जो भाग्य कहलाते हैं और उनको सही रूप से क्रियान्वित करने के लिए जो सटीक गणना या विज्ञान है वही ज्योतिष है।

आज ज्योतिषी तरह तरह के उपाय बताते हैं कि ऐसा करने से आपका भाग्य बदल जायेगा जबकि वास्तविकता यह है कि उन्हें कभी बदला नहीं जा सकता केवल अच्छे के प्रभाव को बढ़ा कर बुरे के असर को कम किया जा सकता है। लेकिन ऐसा कोई नही बताता कि अब तो अच्छे कर्म कर लें क्योंकि यह तो एक सतत और सर्वकालिक प्रक्रिया है, जिस प्रकार अभी आप पिछले कर्म का सुख-दुख भोग रहें हैं, वही आगे भी होना है अतः कर्म का ध्यान रखें।

श्रीमद्भगवद्गीता के रहस्य

'न कोई मरता है और न ही कोई मारता है, सभी निमित्त मात्र हैं... सभी प्राणी जन्म से पहले बिना शरीर के थे, मरने के उपरांत वे बिना शरीर वाले हो जाएँगे। यह तो बीच में ही शरीर वाले देखे जाते हैं, फिर इनका शोक क्यों करते हो।'- कृष्ण

हिन्दू धर्म के एकमात्र धर्मग्रंथ है वेद। वेदों के चार भाग हैं- ऋग, यजु, साम और अथर्व। वेदों के सार को वेदांत या उपनिषद कहते हैं और उपनिषदों का सार या निचोड़ गीता में हैं। गीता हिन्दुओं का सर्वमान्य एकमात्र धर्मग्रंथ है।

1. गीता के ज्ञान को भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कुरुक्षेत्र में खड़े होकर दिया था। यह श्रीकृष्‍ण-अर्जुन संवाद नाम से विख्‍यात है।

2. वैसे तो गीता श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुआ एक संवाद है, लेकिन कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण के माध्यम से उस कालरूप परम परमेश्वर ने गीता का ज्ञान विश्व को दिया। श्रीकृष्ण उस समय योगारूढ़ थे।

3. गीता के चौथे अध्याय में कृष्णजी कहते हैं कि पूर्व काल में यह योग मैंने विवस्वान को बताया था। विवस्वान ने मनु से कहा। मनु ने इक्ष्वाकु को बताया। यूं पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा से प्राप्त इस ज्ञान को राजर्षियों ने जाना पर कालान्तर में यह योग लुप्त हो गया। और अब उस पुराने योग को ही तुम्हें पुन: बता रहा हूं। परंपरा से यह ज्ञान सबसे पहले विवस्वान् (सूर्य) को मिला था। जिसके पुत्र वैवस्वत मनु थे।

4. श्रीकृष्ण के गुरु घोर अंगिरस थे। घोर अंगिरस ने देवकी पुत्र कृष्ण को जो उपदेश दिया था वही उपदेश श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन को देते हैं। छांदोग्य उपनिषद में उल्लेख मिलता है कि देवकी पुत्र कृष्‍ण घोर अंगिरस के शिष्य हैं और वे गुरु से ऐसा ज्ञान अर्जित करते हैं जिससे फिर कुछ भी ज्ञातव्य नहीं रह जाता है। यद्यपि गीता द्वापर युग में महाभारत के युद्ध के समय रणभूमि में किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को समझाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा कही गई थी, किंतु इस वचनामृत की प्रासंगिकता आज तक बनी हुई है।

5. गीता में भक्ति, ज्ञान और कर्म मार्ग की चर्चा की गई है। उसमें यम-नियम और धर्म-कर्म के बारे में भी बताया गया है। गीता ही कहती है कि ब्रह्म (ईश्वर) एक ही है। गीता को बार-बार पढ़ेंगे तो आपके समक्ष इसके ज्ञान का रहस्य खुलता जाएगा। गीता के प्रत्येक शब्द पर एक अलग ग्रंथ लिखा जा सकता है। गीता में सृष्टि उत्पत्ति, जीव विकासक्रम, हिन्दू संदेवाहक क्रम, मानव उत्पत्ति, योग, धर्म, कर्म, ईश्वर, भगवान, देवी, देवता, उपासना, प्रार्थना, यम, नियम, राजनीति, युद्ध, मोक्ष, अंतरिक्ष, आकाश, धरती, संस्कार, वंश, कुल, नीति, अर्थ, पूर्वजन्म, जीवन प्रबंधन, राष्ट्र निर्माण, आत्मा, कर्मसिद्धांत, त्रिगुण की संकल्पना, सभी प्राणियों में मैत्रीभाव आदि सभी की जानकारी है।

6. श्रीमद्भगवद्गीता योगेश्वर श्रीकृष्ण की वाणी है। इसके प्रत्येक श्लोक में ज्ञानरूपी प्रकाश है, जिसके प्रस्फुटित होते ही अज्ञान का अंधकार नष्ट हो जाता है। ज्ञान-भक्ति-कर्म योग मार्गो की विस्तृत व्याख्या की गयी है, इन मार्गो पर चलने से व्यक्ति निश्चित ही परमपद का अधिकारी बन जाता है।

7. 3112 ईसा पूर्व हुए भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। कलियुग का आरंभ शक संवत से 3176 वर्ष पूर्व की चैत्र शुक्ल एकम (प्रतिपदा) को हुआ था। वर्तमान में 1939 शक संवत है। आर्यभट्‍ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ईपू में हुआ। इस युद्ध के 35 वर्ष पश्चात भगवान कृष्ण ने देह छोड़ दी थी तभी से कलियुग का आरंभ माना जाता है। उनकी मृत्यु एक बहेलिए का तीर लगने से हुई थी। तब उनकी तब उनकी उम्र 119 वर्ष थी। इसका मतलब की आर्यभट्ट के गणना अनुसार गीता का ज्ञान 5154 वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था।

8. हरियाणा के कुरुक्षे‍त्र में जब यह ज्ञान दिया गया तब तिथि एकादशी थी। संभवत: उस दिन रविवार था। उन्होंने यह ज्ञान लगभग 45 मिनट तक दिया था। गीता में श्रीकृष्ण ने- 574, अर्जुन ने- 85, संजय ने 40 और धृतराष्ट्र ने- 1 श्लोक कहा है।

9. गीता की गणना उपनिषदों में की जाती है। इसी‍लिये इसे गीतोपनिषद् भी कहा जाता है। दरअसल, यह महाभारत के भीष्म पर्व का हिस्सा है। महाभारत में ही कुछ स्थानों पर उसका हरिगीता नाम से उल्लेख हुआ है। (शान्ति पर्व अ. 346.10, अ. 348.8 व 53)।

10. श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान अर्जुन को इसलिये दिया क्योंकि वह कर्त्तव्य पथ से भटकर संन्यासी और वैरागी जैसा आचरण करके युद्ध छोड़ने को आतुर हो गया था वह भी ऐसे समय जब की सेना मैदान में डटी थी। ऐसे में श्रीकृष्ण को उन्हें उनका कर्तव्य निभाने के लिए यह ज्ञान दिया। गीता को अर्जुन के अलावा और संजय ने सुना और उन्होंने धृतराष्ट्र को सुनाया।

11. गीता एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जिस पर दुनियाभर की भाषा में सबसे ज्यादा भाष्य, टीका, व्याख्या, टिप्पणी, निबंध, शोधग्रंथ आदि लिखे गए हैं। आदि शंकराचार्य, रामानुज, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्क, भास्कर, वल्लभ, श्रीधर स्वामी, आनन्द गिरि, मधुसूदन सरस्वती, संत ज्ञानेश्वर, बालगंगाधर तिलक, परमहंस योगानंद, महात्मा गांधी, सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन, महर्षि अरविन्द घोष, एनी बेसेन्ट, गुरुदत्त, विनोबा भावे, स्वामी चिन्मयानन्द, चैतन्य महाप्रभु, स्वामी नारायण, जयदयाल गोयन्दका, ओशो रजनीश, स्वामी क्रियानन्द, स्वामी रामसुखदास, श्रीराम शर्मा आचार्य आदि सैंकड़ों विद्वानों ने गीता पर भाष्य लिखे या प्रवचन दिए हैं। लेकिन कहते हैं कि ओशो रजनीश ने जो गीता पर प्रवचन दिए हैं वह दुनिया के सर्वश्रेष्ठ प्रवचन हैं।

किस समय, किसने गीता को महाभारत से अलग कर एक स्वतंत्र ग्रंथ का रूप दिया इसका कोई प्रमाण कहीं नहीं मिलता। आदि शंकराचार्य द्वारा भाष्य रचे जाने पर गीता जिस तरह प्रमाण ग्रंथ के रूप में पूजित हुई है, क्या वही स्थिति उसे इसके पूर्व भी प्राप्त थी, इसका निर्णय कर पाना कठिन है।

भगवत गीता और ज्योतिष

ज्योतिष को अपरा ( चारों वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष ) और परा के बीच का सेतु कहा गया है। चारों वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और तब आता है ज्योतिष। कहने का तात्पर्य यह कि ज्योतिष को अगर सम्पूर्णता में समझना है तो हमें वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद को जानना होगा।

(ज्ञानी काटे ज्ञान से, मुर्ख काटे रोये, कर्म गति टारे नहीं टरे)

भारतीय संस्कृति में मै गीता को सर्वोच्च ग्रन्थ (पुस्तक) मानता हूँ। क्रिया योग के प्रवर्तक महावातर बाबाजी के अनुसार भगवान श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को क्रिया योग की दीक्षा प्रदान की और गीता में उसका वर्णन भी किया। क्रिया योग के द्वारा इन्सान अपनी सभी समस्याओ से निजात पाकर इश्वर प्राप्ति के मार्ग पर चल सकता है। गीता अध्यन से व्यक्ति स्थिर प्रज्ञ बन जीवन की कठिन से कठिन समस्या का सामना धर्य से करता हुआ उसके समाधान पर पहुँचता है।

भारतीय ज्योतिष भी गीता की भांति, जीवन के कर्म और कर्मफल पर जोर देता है। भारतीय ज्योतिष मानता है की वर्तमान जन्मकुंडली पिछले जन्मों के कर्मो का ही परिणाम है।

गीता में ज्योतिष के नियमो का वर्णन भी मिलता है। ज्योतिष में तीनो कालों का निर्धारण करना होता है और गीता में भगवान कृष्ण स्वयं कह रहे है की मै काल हूँ। काल: कलयतामहम (10/30) अर्थात गणना करने वालों में मै काल हूँ। भगवान श्री कृष्ण जिस सूर्य से काल की गणना होती है उसे अपना स्वरुप बता रहे है “ज्योतिषां रविरंशुमान” (10/21)

नक्षत्रों का वर्णन भगवान ने ‘नक्षत्राणामहं शशी’ (10/21) पदों से किया है। इसी प्रकार महीनो का वर्णन मसानाम मार्गशीर्षोंहम (10/35), ऋतुओ का वर्णन ‘ऋतूनाम कुसुमाकर:’ पदों से किया है। इसी प्रकार उत्तरायण व दक्षिणायन का वर्णन आठवे अध्याय के 24, 25 श्लोको में किया है। समय की गणना में सम्भवामी युगे युगे (4/8) का जिक्र भी किया है जहाँ लाखों वर्षो का एक युग होता है। भारतीय काल गणना को सत्य, त्रेता, द्वापर व कलि इस प्रकार चार युगों में विभक्त किया गया है। इस सब का वर्णन आठवे अध्याय के 17 से 19 श्लोको में किया गया है।

ज्योतिषी के पास आने वाले लोगों में अधिकांश लोग ऐसे होते हैं जिनकी समस्या वर्तमान परिस्थिति के इतर मानसिक होती है। इस प्रकार की समस्याओं के निदान के लिए गीता में उपचार मिलते हैं। गीता के उपचार उपरांत भले ही इच्छित कार्य पूरा न हो लेकिन मानसिक संतुष्टि जरुर मिलती है। जीवन की उस समस्या से ऊपर उठने की समझ भी विकसित होती है।

जिन जातकों का चंद्रमा कमजोर होता है उनमें इसके प्रभाव अधिक तेजी से दृष्टिगोचर होते हैं।

गीता में ज्ञानयोग, कर्म योग, भक्ति योग ओर संन्यास योग की सुन्दर ढंग से चर्चा की गई है। आज के संदर्भ में अगर बात करें, तो गीता मनुष्य को कर्म का महत्व समझाती है। गीता में श्रेष्ठ मानव जीवन का सार बताया गया है।

'श्रीमद भगवद गीता' और ज्योतिष - कुंडली के दोषों का समाधान

सनातन हिन्दु धर्म में रामायण और गीता दोनों ग्रंथों का अपना विशेष महत्व है। रामायण हमें आदर्श जीवन जीना सीखाती हैं तो महाभारत हमें कर्म का पालन करने की शिक्षा देकर हमारे जीवन का मार्गदर्शन करती है। दोनों ही ग्रंथों की यह विशेषता है कि इसमें बताई गई बातें व्यवहारिक हैं और प्रत्येक व्यक्ति इन्हें अपने जीवन में प्रयोग कर सकता है। भगवान श्रीकॄष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को महाभारत कथा में कुरुक्षेत्र की भूमि पर युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व जो ग्यान दिया वह गीता के रुप में हम सभी के लिए मील का पत्थर है। इसे ग्यान का अमृत गंगा कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। गीता हमें न केवल सकारात्मकता देती है, वह हमें मुश्किल परिस्थितियों में राह भी दिखाती है। भावनात्मक रुप से सबल बनाती है। व्यवहारिक बनाती है और भावुकता पर नियंत्रण रखना सिखाती है। आत्मविश्वास को बनाए रखना सिखाती है। भाग्य पर भरोसा न कर, कर्मवादी बनें।

विश्वास से व्यक्ति ऊपर उठता है। सफलता कभी संदेह के साथ प्राप्त नहीं कि जा सकती, व्यक्ति के विचार ही उसे ऊपर उठाते है और नीचे भी विचार ही गिराते हैं, इसके अतिरिक्त आत्मा अमर है, सभी कार्य ईश्वर को समर्पित करते हुए कार्य करने चाहिए। भागवत गीता के इन सूत्रों में जीवन की सफलता के सूत्र विद्यमान है, इसके अतिरिक्त इस पवित्र ग्रंथ के अठारह अध्यायों के सार को ज्योतिष विद्या के गूढ़ सूत्रों के रुप में किया जाता रहा है। ज्योतिषीय सूत्रों के आधार पर जीवन का मार्गदर्शन और उपचार दोनों किया जा सकता है। जिनका उल्लेख आज हम अपने इस आलेख में करने जा रहे हैं-

गीता के अध्यायों में ज्योतिषीय उपचार के संकेत :

गीता के अठारह अध्यायों में कृष्ण जी ने जो संकेत दिए हैं उन्हें मैंने ज्योतिष के आधार पर विश्लेषित करने का प्रयास किया है। इसमें ग्रहों का प्रभाव और उनसे होने वाले नुकसान से बचने और उनका लाभ उठाने के संबंध में यह सूत्र बहुत काम के हैं-

गीता के अठारह अध्याय और ज्योतिष

गीता के अठारह अध्यायों में भगवान श्रीकृष्ण ने कुछ संकेत दिए हैं। जिनकी व्याख्या आज हम ज्योतिष विद्या के अनुरुप कर रहे है। इन सूत्रों का प्रयोग ग्रहों के फलादेश और अशुभ प्रभाव को दूर करने में किया जा सकता है। भागवत गीता से लिए जाने के कारण ये ज्योतिषीय सूत्र व्यावहारिक, सटिक और उपयोगी हैं।

गीता के अध्याय एवं ज्योतिष

गीता के प्रत्येक अध्यायों में भगवान श्रीकृष्ण ने जो संकेत दिए हैं, उन्हें ज्योतिष के आधार पर विश्लेषित किया गया है। इसमें ग्रहों का प्रभाव और उनसे होने वाले नुकसान से बचने और उनका लाभ उठाने के संबंध में यह सूत्र बहुत काम के लगते हैं।

1. शनि संबंधी पीड़ा होने पर प्रथम अध्याय का पठन करना चाहिए।
2. द्वितीय अध्याय, जब जातक की कुंडली में गुरू की दृष्टि शनि पर हो तब इसका पाठ करे ।
3. तृतीय अध्याय 10वां भाव शनि, मंगल और गुरू के प्रभाव में होने पर कारगर है ।
4. चतुर्थ अध्याय कुंडली का 9वां भाव तथा कारक ग्रह प्रभावित होने पर लाभकारी है ।
5. पंचम अध्याय भाव 9 तथा 10 के अंतरपरिवर्तन में लाभ देते हैं।
6. छठा अध्याय तात्कालिक रूप से आठवां भाव एवं गुरू व शनि का प्रभाव होने और शुक्र का इस भाव से संबंधित होने पर लाभकारी है।
7. सप्तम अध्याय का अध्ययन 8वें भाव से पीडित और मोक्ष चाहने वालों के लिए उपयोगी है।
8. आठवां अध्याय कुंडली में कारक ग्रह और 12वें भाव का संबंध होने पर लाभ देता है।
9. नौंवे अध्याय का पाठ लग्नेश, दशमेश और मूल स्वभाव राशि का संबंध होने पर करना चाहिए।
10. गीता का दसवां अध्याय कर्म की प्रधानता को इस भांति बताता है कि हर जातक को इसका अध्ययन करना चाहिए।
11. कुंडली में लग्नेश 8 से 12 भाव तक सभी ग्रह होने पर ग्यारहवें अध्याय का पाठ करना चाहिए।
12. बारहवां अध्याय भाव 5 व 9 तथा चंद्रमा प्रभावित होने पर उपयोगी है।
13. तेरहवां अध्याय भाव 12 तथा चंद्रमा के प्रभाव से संबंधित उपचार में काम आएगा।
14. आठवें भाव में किसी भी उच्च ग्रह की उपस्थिति में चौदहवां अध्याय लाभ दिलाएगा।
15. पंद्रहवां अध्याय लग्न एवं 5वें भाव के संबंध में लाभकारी है ।
16. सोलहवां मंगल और सूर्य की खराब स्थिति में उपयोगी है।
17. कुंडली के छठे भाव पर अशुभ प्रभाव हों या छ्ठे भाव के विषयों को हल करने के लिए सत्रहवां अध्याय उपयोगी है।
18. इस जन्म जन्मांतर के चक्रों से बाहर आने और मोक्ष की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को अठारहवें अध्याय का अध्ययन करना चाहिए।

गीता में योग शब्द को एक नहीं बल्कि कई अर्थों में प्रयोग हुआ है, लेकिन हर योग अंतत: ईश्वर से मिलने मार्ग से ही जुड़ता है। योग का मतलब है आत्मा से परमात्मा का मिलन। गीता में योग के कई प्रकार हैं, लेकिन मुख्यत: तीन योग का वास्ता मनुष्य से अधिक होता है। ये तीन योग हैं, ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग। महाभारत युदध् के दौरान जब अर्जुन रिश्ते नातों में उलझ कर मोह में बंध रहे थे तब भगवान श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन को बताया था कि जीवन में सबसे बड़ा योग कुछ है तो वह है, कर्म योग।

उन्होंने बताया था कि कर्म योग से कोई भी मुक्त नहीं हो सकता, वह स्वयं भी कर्म योग से बंधे हैं। कर्म योग ईश्वर को भी बंधन में बांधे हुए रखता है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया था कि भगवान शिव से बड़ा तपस्वी कोई नहीं हैं और वह कैलाश पर ध्यान योग मुद्रा में लीन रहते हैं। श्रीकृष्ण योग ने अर्जुन को 18 प्रकार के योग मुद्रा के बारे में जानकारी देकर उनके मन के मैल को साफ किया था। क्या हैं ये 18 योग मुद्राएं? गीता में उल्लेखित श्रीकृष्ण के इस ज्ञान को आइए हम भी जानें।

 

प्रथम अध्याय

अध्याय 1 (विषादयोग) – शनि व चन्द्र संबंधी पीडा के लिए

पहले अध्याय का नाम अर्जुनविषादयोग है। इसमें 46 श्लोकों द्वारा अर्जुन की मन: स्थिति का वर्णन किया गया है कि किस तरह अर्जुन अपने सगे-संबंधियों से युद्ध करने से डरते हैं और किस तरह भगवान कृष्ण उन्हें समझाते हैं। जब शौर्य और धैर्य, साहस और बल इन चारों गुणों से युक्त अर्जुन पर क्षमा और प्रज्ञा यानि बुद्घि का प्रभाव बढ़ा और उन्होंने युद्घ भूमि में हथियार डाल दिए तब उनके क्षात्रधर्म का स्थान कार्पण्य ने लिया। तब कृष्ण ने तर्क से, बुद्धि से, ज्ञान से, कर्म की चर्चा से, विश्व के स्वभाव से, उसमें जीवन की स्थिति से, दोनों के नियामक अव्यय पुरुष के परिचय से और उस सर्वोपरि परम सत्तावान ब्रह्म के साक्षात दर्शन से अर्जुन को वापस प्रेरित किया। इस अध्याय में इसी तत्वचर्चा परिचय दिया गया।

विषाद योग

विषाद यानी दुख। युद्ध के मैदान में जब अर्जुन ने अपनो को सामने देखा तो वह विषाद योग से भर गए। उनके मन में निराशा और अपनो के नाश का भय हावी होने लगा। तब भगवान श्रीकष्ण ने अर्जुन के मन से यह भय दूर करने का प्रयास किया। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिए, वही गीता बनीं। उन्होंने सर्वप्रथम विषाद योग से अर्जुन को दूर किया और युद्ध के लिए तैयार किया था।

  • गीता का उद्देश्य स्वधर्म-पालन में बाधक मोह का निवारण करना है। अहंकार और राग से स्वजन-आसक्ति उत्पन्न होती है, जो मोह का कारण है। 
  • स्वधर्म प्रवाह अनुकूल, सहज, स्वाभाविक और शास्त्रविहित धर्म है, जो निम्न दो प्रकार का है -
    • आत्मा सम्बन्धी वर्ण-धर्म, जो न बदलने वाला है, जैसे जीवन का परम-लक्ष्य अर्थात् आत्मा को जान कर परमात्मा में स्थित होना। यह आगामी बदलने वाले धर्म का आधार है।
    • शरीर (प्रकृति) सम्बन्धी आश्रम-धर्म जो देश, जाति और काल से बदलने वाला है।

विषाद का अकेलापन - विषाद में आदमी को लगता है कि वह अकेला पड़ चुका है। आमतौर पर आदमी के गहन भीतरी विचार ऐसे होते हैं जो अधिकांश लोगों में कॉमन होते हैं। प्रथम अध्याय में मोह और कर्तव्य के बीच तनाव से उपजे अकेलेपन का वर्णन है। ऐसा ही विषाद शनि पैदा करता है। केमद्रुम योग में ऐसा विषाद देखा जाता है।

प्रथम अध्याय - शनि दोष निवारक

श्रीमद भागवत गीता के प्रथम अध्याय का अध्ययन करने से शनि जनित दोषों का निवारण होता है। निराशा, हताशा की स्थिति में होने पर व्यक्ति का इस अध्याय का पाठ करना सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है। जन्मपत्री में जब शनि से चंद्र पीडित हो तो व्यक्ति निराशा भाव में आकर अवसादग्रस्त होता है। इस अवसाद से बाहर लाने में भागवत गीता का प्रथम अध्याय उपयोगी साबित होता है। इसके अलावा यदि जन्मपत्री में चंद्र केमाद्रुम योग के साथ स्थित हो तब भी व्यक्ति के निराशा भाव में जाने की संभावनाएं बनती है। इसके विपरीत चंद्रमा 1, 5 या 9वें अर्थात त्रिकोण भाव में स्थित हो तो चंद्रमा के परिणाम उत्कृष्ट प्राप्त होंगे।

लग्न, पंचम और नवम भाव त्रिकोण भाव होने के कारण शिक्षा, ग्यान और बुद्धि के प्रतीक भाव भी है। किसी भी शिष्य के द्वारा ग्यार्जन करने के लिए यह आवश्यक है कि शिष्य अपने गुरु के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दे, स्वयं को अपने गुरु में विलीन कर दें। जब गुरु और शिष्य के मध्य को अंतर ना रहें तो ग्यान स्वयं जातक के पास आता है। इस स्थिति में शक्ति स्वयं ही शिव हो जाता है। जब मन इच्छाओं या लक्ष्यों से मुक्त होता है, तब पूर्ण ज्ञान प्राप्त करता है।

 

दूसरा अध्याय

अध्‍याय 2 (सांख्‍ययोग) – जब जातक की कुण्डिली में गुरु की दृष्टि शनि पर हो

इस अध्याय का नाम सांख्ययोग है। गीता के दूसरे अध्याय सांख्य-योग+ में कुल 72 श्लोक हैं जिसमें श्रीकृष्ण, अर्जुन को कर्मयोग, ज्ञानयोग, सांख्ययोग, बुद्धि योग और आत्म का ज्ञान देते हैं। यह अध्याय वास्तव में पूरी गीता का सारांश है। इसे बेहद महत्वपूर्ण भाग माना जाता है। इसमें जीवन की दो प्राचीन संमानित परंपराओं का तर्कों द्वारा वर्णन आया है। अर्जुन को उस कृपण स्थिति में रोते देखकर कृष्ण ने उसका ध्यान दिलाया है कि इस प्रकार का क्लैव्य और हृदय की क्षुद्र दुर्बलता अर्जुन जैसे वीर के लिए उचित नहीं। उन्होंने बताया कि प्रज्ञादर्शन काल, कर्म और स्वभाव से होनेवाले संसार की सब घटनाओं और स्थितियों को अनिवार्य रूप से स्वीकार करता है। जीना और मरना, जन्म लेना और बढ़ना, विषयों का आना और जाना, सुख और दुख का अनुभव, ये तो संसार में होते ही हैं।

सांख्य योग

सांख्य योग के जरिये भगवान श्रीकृष्ण ने पुरुष की प्रकृति और उसके अंदर मौजूद तत्वों के बारे में समझाया। उन्होनें अर्जुन को बताया कि मनुष्य को जब भी लगे कि उस पर दुख या विषाद हावी हो रहा है उसे सांख्य योग यानी पुरुष प्रकृति का विश्लेषण करना चाहिए। मनुष्य पांच सांख्य से बना है- आकाश, आग, पानी, मिट्टी और हवा। अंत में मनुष्य इसी में मिलता है।

  • स्‍वधर्म-पालन में बाधक मोह के नाश के उपाय -
    • सांख्‍य-सिद्धान्‍त (ज्ञान-योग अथवा सन्‍यास-योग) -
      • आत्‍मा की अमरता, अखण्‍डता और व्‍यापकता का सतत विवेक, और उस विवेक से अहंकार का नाश।
      • देह का परिणामी और क्षण-भंगुर होने से देह-आसक्ति का त्याग।
      • कृर्तृत्व का त्याग।
    • योग कला (कर्मयोग) - 
      • स्थितप्रज्ञ अर्थात् बुद्धि से मन और मन से इन्द्रियों का निग्रह करते हुए, आ‍सक्ति-रहित (राग-रहित) बुद्धि से निष्का्म और भक्ति भाव से अपने और दूसरों के कल्याण के लिये देह को उपयोग करना।
      • संपूर्ण जीवन शास्‍त्र = निर्गुण सांख्‍य–सिद्धान्‍त + सगुण योग-कला + साकार स्थितप्रज्ञ।
      • अहंकार से विषय-ध्‍यान, विषय-ध्‍यान से विषय-आ‍सक्ति, विषय-आसक्ति से कामना, कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध, क्रोध से सम्‍मोह (मोह), सम्‍मोह से स्‍मृति-भ्रम, स्‍मृति-भ्रम से बुद्धि-नाश, बुद्धि-नाश से व्‍यावहारिक और परमार्थिक जीवन का पतन हो जाता है। 
      • भोर्क्तृत्व का त्याग।

श्री कृष्ण जी की दया - विषाद के बाद अर्जुन को गुरुज्ञान मिलता है कृष्ण से। शनि पर गुरू की दृष्टि से यह लाभ होता है। कुण्डली में यही स्थिति होने पर दूसरे अध्याय का पठन लाभ देता है।

द्वितीय अध्याय - गुरु दोष निवारक

यदि जन्मपत्री में गुरु शनि द्वारा पीड़ित हो तो व्यक्ति को भागवत गीता के द्वितीय अध्याय का अध्ययन करना चाहिए। द्वितीय अध्याय का अध्ययन करने से धन, ग्यान, संतान और शिक्षा की प्राप्ति होती है। यह अध्याय व्यक्ति को समझाता है कि व्यक्ति के जीवन में उसके संघर्षपूर्ण परिश्रम के अनुरुप होता है जब व्यक्ति अपने सभी प्रयासों और कर्म को आत्म-ज्ञान की आग में जलाता है और आगे बढ़ता है, अंहकार को साथ लेकर चलता है तो यही अहंकार बाधा उत्पन्न करता है और इस स्थिति में व्यक्ति का आत्मसमर्पण पूर्ण नहीं होने के कारण व्यक्ति को गुरुग्यान प्राप्त नहीं हो पाता है। अंहकार व्यक्ति को संघर्ष की स्थिति की ओर ले जाता है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को ईमानदार से प्रयास करने चाहिए। जब व्यक्ति में यह भावना आ जाती है कि सब कुछ करने वाला वह स्वयं है तो व्यक्ति में अंहकार भाव जन्म ले लेता है। इस अहंकार का त्याग ही गुरु पर शनि का प्रभाव कराता है।

 

तीसरा अध्याय

अध्‍याय 3 (कर्मयोग) - जब 10 वां भाव शनि, मंगल और गुरु के प्रभाव में हो

गीता का तीसरा अध्याय कर्मयोग है, इसमें 43 श्लोक हैं। श्रीकृष्ण इसमें अर्जुन को समझाते हैं कि परिणाम की चिंता किए बिना हमें हमारा कर्म करते रहना चाहिए। इस अध्याय में अर्जुन ने इस विषय में और गहरा उतरने के लिए स्पष्ट प्रश्न किया कि सांख्य और योग इन दोनों मार्गों में आप किसे अच्छा समझते हैं और क्यों नहीं यह निश्चित बतसते कि वे इन दोनों में से किसे अपनायें। इसपर कृष्ण ने स्पष्टता से उत्तर दिया कि लोक में दो निष्ठायें या जीवनदृष्टियां हैं। सांख्यवादियों के लिए ज्ञानयोग है और कर्ममार्गियों के लिए कर्मयोग है। अर्थात् जो साधारण समझ के लोग कर्म में लगे हैं उन्हें उस मार्ग से उखाड़ना उचित नहीं, क्योंकि वे ज्ञानवादी बन नहीं सकते, और यदि उनका कर्म भी छूट गया तो वे दोनों ओर से भटक जायेंगे।

कर्म योग

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि जीवन में सबसे बड़ा योग कर्म योग है। इस योग से देवता भी नहीं बच सकते। कर्म योग से सभी बंधे हैं। सभी को कर्म करना है। इस बंधन से कोई मुक्त नहीं हो सकता है। साथ ही यह भी समझाया की कर्म करना मनुष्य का पहला धर्म है। उन्होंने अर्जुन को समझाया कि सूर्य और चंद्रमा भी अपने कर्म मार्ग पर निरंतर प्रशस्त रहते हैं। तुम्हें भी कर्मशील बनना होगा।

  • मनुष्‍य गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने से बाध्‍य है, परन्‍तु योगी और भोगी के साधन और साध्‍य में अन्‍तर होता है -
    • भोगी भोजन (साध्‍य) के लिये कर्म (साधन) करता है।
    • योगी कर्म (साध्‍य) अर्थात् स्‍वधर्म-पालन के लिये भोजन (साधन) करता है। योगी का कर्म अपने शरीर के निर्वाह, चित्त-शुद्धि, समाज-कल्‍याण और दूसरों के लिये आर्दश-स्‍थापना के लिये होता है।
  • कर्म दर्पण समान भी है, जो हमें हमारे चित्त की शुद्धता को नापने और चित्त-शुद्धिकरण में सहायक होता है।
  • इन्द्रियों का विषय में राग और द्वेष, तथा उनके पीछे काम छिपा रहता है, जो ज्ञान को आच्‍छादित करके जीवात्‍मा को मोहित करता है। शरीर से श्रेष्‍ठ इन्द्रियाँ, इन्द्रियों से श्रेष्‍ठ मन, मन से श्रेष्‍ठ बुद्धि, बुद्धि से श्रेष्‍ठ आत्‍मा है। इसलिये आत्‍मा में स्थित रहकर, बुद्धि से मन और मन से इन्द्रियों को वश में करके काम-शत्रु का वध कर देना चाहिए।

शंका और समाधान - कर्म के प्रति शंका होना 10वें भाव पर शनि का प्रभाव है। इसके बाद जोश दिलाने का काम मंगल करता है और गुरु बताता है कि सही रास्ता क्या है।

तृतीय अध्याय - शनि, मंगल और गुरू प्रभाव

कालपुरुष या राशि चक्र की कुंडली में, पुरुषार्थ अर्थात मंगल ग्रह जब कर्म भाव अर्थात मकर राशि में पहुंचता है तो वह अपनी उच्चस्थ राशि में होता है। इसी प्रकार बृहस्पति ग्रह जब कालपुरुष के चतुर्थ भाव अर्थात कर्क राशि में पहुंचते है तो वो उच्चस्थ होते हैं। यहां से मंगल और गुरु की दूरी समसप्तक होती है। इस योग में पुरुषार्थ आध्यात्मिक ग्यान की आग में तप कर कुंदन हो जता है। मंगल ग्रह कार्य करने का सूचक है, गुरु मार्ग दिखाता है और शनि कर्म के लिए प्रेरित करता है। यह योग व्यक्ति को जुझारु स्वभाव देता है। 4था भाव और 10वां भाव कुंडली को दो समान भागों में विभाजित करने वाले केंद्रीय अक्ष के रूप में कार्य करते हैं। इसलिए जब कोई व्यक्ति अपने ज्ञान की अग्नि में अपने आप को जला या शुद्ध कर लेता है तो उसके सभी प्रयास सफल होने लगते हैं। अतः जब चन्द्रमा चतुर्थ या 10 वें भाव में हो और अष्टमेश या उसके स्वामी के साथ अनुकूल संबंध में हो तो फल शुभ रुप में प्राप्त होते है।

 

चौथा अध्याय

अध्‍याय 4 (ज्ञानकर्मसंन्‍यासयोग) –कुण्डली का 9 वां भाव तथा कारक ग्रह प्रभावित हो

ज्ञान कर्म संन्यास योग गीता का चौथा अध्याय है, जिसमें 42 श्लोक हैं। अर्जुन को इसमें श्रीकृष्ण बताते हैं कि धर्मपारायण के संरक्षण और अधर्मी के विनाश के लिए गुरु का अत्यधिक महत्व है। इस अध्याय में, जिसका नाम ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग है, यह बताया गया है कि ज्ञान प्राप्त करके कर्म करते हुए भी कर्मसंन्यास का फल किस तरह से प्राप्त किया जा सकता है। यहीं गीता का वह प्रसिद्ध वचन है कि जब जब धर्म की हानि होती है तब तब भगवान का अवतार होता है।

ज्ञान योग

भगवान श्रीकृष्ण अजुर्न से कहा कि ज्ञान अमृत समान होता है। इसे जो पी लेता है उसे कभी कोई बंधन नहीं बांध सकता। ज्ञान से बढ़कर इस दुनिया में कोई चीज़ नहीं होती है। ज्ञान मनुष्य को कर्म बंधनों में रहकर भी भौतिक संसर्ग से विमुक्त बना देता है।

  • अकर्म (निष्‍काम या सहज कर्म) = स्‍थूल कर्म (स्‍वधर्म) + सूक्ष्‍म विकर्म (शुद्ध-चित्त की भावना)। कर्मरूपी नोट पर विकर्म (भावना) की मुहर का महत्त्‍व होता है। चित्त को शुद्ध करने के लिये कामना त्‍याग कर के राग, द्वेष और क्रोध पर विजय पाने की आवश्‍यकता है। 

कर्म के धर्म की स्थापना व्यक्तित्व में स्थाई भाव की कमी को चौथा अध्याय पूरा कर सकता है।

चतुर्थ अध्याय - 9वां भाव तथा कारक ग्रह

फल की चिंता किए बिना कार्य करते रहना, इस अध्याय का सार है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब कोई व्यक्ति आगे बढ़ना चाहता है, उसके भीतर आगे बढ़ने की इच्छाएं भी मजबूत होती है परन्तु पूर्ण समर्पण और लक्ष्य में स्थिरता की कमी व्यक्ति की सफलता में बाधक बनती है। इच्छाएं व्यक्ति को पीछे की ओर खींचती हैं। लेकिन फिर भी एक स्पष्ट समझ है कि व्यक्ति को सभी इच्छाओं को दरकिनार करना पड़ता है और अंततः ज्ञान के मार्ग की ओर बढ़ता है और एक अच्छा शिष्य बनने की कोशिश करता है। जीत का विश्वास कभी भी किसी को युद्ध में हारने नहीं देता है और प्रकृति भी समय-समय पर ऐसे व्यक्ति का समर्थन करती है, इसलिए भले ही सबसे अच्छे परिणाम प्राप्त करने में सक्षम न हो, फिर भी परीक्षा को पास करना का लक्ष्य होना चाहिए। यदि चंद्रमा को 1, 3 या 7 वें (शक्ति या काम त्रिकोण) भाव में स्थित हो तो व्यक्ति को मिलने वाले परिणाम औसत होते हैं, लेकिन यह चंद्र व्यक्ति को सफलता अवश्य देता है, भले ही वह सफलता उच्च स्तर की न हो।

 

पांचवां अध्याय

अध्‍याय 5 (कर्मसंन्‍यासयोग) – भाव 9 तथा 10 का अंतर्परिवर्तन हो

कर्म संन्यास योग गीता का पांचवां अध्याय है, जिसमें 29 श्लोक हैं। अर्जुन इसमें श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि कर्मयोग और ज्ञान योग दोनों में से उनके लिए कौन-सा उत्तम है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि दोनों का लक्ष्य एक है परन्तु कर्म योग बेहतर है। पांचवा अध्याय कर्मसंन्यास योग नामक युक्तियां फिर से और दृढ़ रूप में कहीं गई हैं। इसमें कर्म के साथ जो मन का संबंध है, उसके संस्कार पर या उसे विशुद्ध करने पर विशेष ध्यान दिलाया गया है। यह भी कहा गया है कि एक स्थान पर पहुँचकर सांख्य और योग में कोई भेद नहीं रह जाता है। किसी एक मार्ग पर ठीक प्रकार से चले तो समान फल प्राप्त होता है। जीवन के जितने कर्म हैं, सबको समर्पण कर देने से व्यक्ति एकदम शांति के ध्रुव बिंदु पर पहुँच जाता है और जल में खिले कमल के समान कर्म रूपी जल से लिप्त नहीं होता।

कर्म वैराग्य योग

भगवान ने अर्जुन को बताया कि कर्म से कोई मुक्त नहीं, यह सच है, लेकिन कर्म को कभी कुछ पाने या फल पाने के लिए नहीं करना चाहिए। मनुष्य को अपना कर्म करना चाहिए यह सोचे बिना कि इसका फल उसे कब मिलेगा या क्या मिलेगा। कर्म के फलों की चिंता नहीं करनी चाहिए। ईश्वर बुरे कर्मों का बुरा फल और अच्छे कर्मों का अच्छा फल देते हैं।

  • कर्म-योग (सगुण) = सब कुछ कर के कुछ ना करना, जो साधकों के लिये सुलभ, सहज, स्‍वाभाविक और श्रेष्‍ठ साधन है।
  • संन्‍यास-योग (निर्गुण) = कुछ ना करते हुए सब कुछ करना, जो निष्‍ठा अथवा साध्‍य अर्थात् साधना की अंतिम अवस्‍था है, जिसमें सर्व संकल्‍पों का त्‍याग हो जाता है। 

धर्म और कर्म का मेल नौंवे तथा दसवें भाव का अंतर्संबंध धर्म और कर्म में द्वंद्व पैदा करता है। ऐसे में पांचवा अध्याय दोनों का रोल स्पष्ट कर शंकाओं का समाधान प्रस्तुतत करता है।

पंचम अध्याय - नवम तथा दशम भावेश में स्थान परिवर्तन

जिस व्यक्ति की कुंडली में नवमेश और दशमेश में राशि परिवर्तन योग बन रहा हो, उस व्यक्ति को पंचम भाव का अध्ययन करने से लाभ मिलता है। उत्तम सफलता अर्जित करने के लिए यह आवश्यक है कि परिणामों की चिंता किए बिना ही अपना उत्तम प्रदर्शन करते रहना चाहिए। इसके अतिरिक्त जन्मपत्री में जब चंद्र 2, 6 वें, 8 वें या 12 वें भावों में स्थित हो तो व्यक्ति को सबसे उत्तम विकल्प को छोड़ना पडता है। ऐसे में धैर्य के साथ प्रतीक्षा करने के लिए कहा गया है। इस स्थिति में जब भगवान कृष्ण भी चुप रहना पसंद करते हैं, तो इसका जवाब देने के लिए ज्योतिषी की आवश्यकता कहां है। धर्म और कर्म योग में यह योग विरोधाभास की स्थिति देता है। भाग्य और कर्म दोनों की भूमिकाओं को यह योग स्पष्ट करता है।

 

छठा अध्याय

अध्‍याय 6 (आत्‍मसंयमयोग) – तात्कालिक रूप से भाव 8 एवं गुरु व शनि का प्रभाव हो, साथ ही शुक्र की भाव स्थिति हो

आत्मसंयम योग गीता का छठा अध्याय है, जिसमें 47 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण, अर्जुन को अष्टांग योग के बारे में बताते हैं। वह बताते हैं कि किस प्रकार मन की दुविधा को दूर किया जा सकता है। छठा अध्याय आत्मसंयम योग है जिसका विषय नाम से ही पता चलता है कि जितने विषय हैं उन सबमें इंद्रियों का संयम श्रेष्ठ है। सुख में और दुख में मन की समान स्थिति, इसे ही योग कहते हैं।

ध्यान योग

ध्यान योग से मनुष्य खुद को मूल्यांकन करना सीखता है। इस योग को करना हर किसी के लिए जरूरी है। ध्यान योग में मन और मस्तिष्क का मिलन होता है और ऐसी स्थिति में दोनों ही शांत होते हैं और विचलित नहीं होते। ध्यान योग मनुष्य को शांत और विचारशील बनता है।

  • विकर्म का साधन एकाग्र-चित्त, जो ध्‍यान योग अर्थात् त्रिविध योग से प्राप्‍त होता है -
    • चित्त की चंचलता पर अंकुश अर्थात् शुद्ध व्‍यवहार जो परमार्थ ही है।
    • सतत, नियमित और परिमित आचरण अर्थात् इन्द्रियों पर सतत पहरा रखना।
    • सम-भाव और परमात्‍मा की सर्वव्‍यापकता का सतत अनुभव करना।
  • इनमें विध्‍वंसक-वैराग्‍य (जैसे घास उखाड़ना) और विधायक-अभ्‍यास (जैसे बीज बोना) सहायक होते हैं।

कर्म शुरु कब किया जाए - जब आठवां भाव और गुरु तथा शनि का काल हो। यानि स्याह अंधेरी रात के बाद की रोशनी में यह अध्याय बताता है कि ‘अब’ शुरु किया जाए। शुक्र लालसा पैदा करता है और शनि लालसा के बावजूद विरक्त रखता है।

छ्ठा अध्याय - अष्टम भाव पर गुरु, शनि और शुक्र का प्रभाव

जब किसी व्यक्ति की कुंडली में अष्टम भाव पर गुरु, शनि और शुक्र का प्रभाव आताहै तो व्यक्ति एक नए अध्याय की शुरुआत करता है। दुखों की रात के बाद सुख रुपी सूर्य के आगमन के जैसे यह योग फल देता है। इस योग से युक्त व्यक्ति को छ्ठे अध्याय का अध्ययन करना चाहिए। शुक्र और शनि दोनों का प्रभाव अष्टम भाव पर होने के कारण व्यक्ति में भोग और विरक्ति दोनों के भाव आते है और अंतत: व्यक्ति गुरु ग्रह के ग्यान मार्ग पर आगे बढ़ता है। इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर भक्ति मार्ग पर अग्रसर होने का संदेश यह अध्याय देता है।

 

सातवां अध्याय

अध्‍याय 7 (ज्ञानविज्ञानयोग) – 8 वें भाव से पीडि़त और मोक्ष चाहने वालों के लिए

ज्ञानविज्ञान योग गीता का सातवां अध्याय है, जिसमें 30 श्लोक हैं।  इसमें श्रीकृष्ण निरपेक्ष वास्तविकता और उसके भ्रामक ऊर्जा +माया+ के बारे में अर्जुन को बताते हैं। सातवें अध्याय की संज्ञा ज्ञानविज्ञान योग है। विज्ञान की दृष्टि से अपरा और परा प्रकृति के इन दो रूपों की व्याख्या गीता ने दी है। अपरा प्रकृति में आठ तत्व हैं, पंचभूत, मन, बुद्धि और अहंकार। इसमें ईश्वर की चेष्टा के संपर्क से जो चेतना आती है उसे परा प्रकृति कहते हैं, वही जीव है। आठ तत्वों के साथ मिलकर जीवन नवां तत्व हो जाता है। इस अध्याय में भगवान के अनेक रूपों का उल्लेख किया गया है।

विज्ञान योग

इस योग में मनष्य किसी खोज पर निकलता है। सत्य की खोज विज्ञान योग का ही अंग है। इस मार्ग पर बिना किसी संकोच के मनुष्य को चलना चाहिए। विज्ञान योग तप योग की ओर ही अग्रसर होता है।

  • विकर्म के लिये एकाग्रता के साथ-साथ भक्ति की भी आवश्‍यकता है, जो दो प्रकार की है - निष्‍काम और सकाम भक्ति।
  • सकाम से ही निष्‍काम की यात्रा आरम्‍भ होती है।
  • भक्त के प्रकार-
    • अर्थार्थी अर्थात् सांसारिक पदार्थों के लिये परमात्‍मा को भेजने वाला।
    • आर्त अर्थात् संकट निवारण के लिये परमात्‍मा को भजने वाला।
    • जिज्ञासु अर्थात् यथार्थरूप से जानने की इच्‍छा से परमात्‍मा को भजने वाला।
    • श्रेष्‍ठ-ज्ञानी अर्थात् ईश्वर की सर्वज्ञता में स्थित रहना और उस कारण-रूप अखण्‍ड आत्‍मा में स्थित अष्‍टधा और दुहरी प्रकृति की लीला को साक्षी-भाव से देखना। 

सभी समस्याओं का अंत – जब तक जीवन है समस्याएं बनी रहेंगी। फिर मोक्ष, सही सवाल। घटनाओं और साधनों का प्रभाव चित्त पर पडना बंद हो जाए। आमतौर पर जिन लोगों का आठवां भाव खराब हो यानि मोक्ष की ओर ले जाने की बजाय सांसारिकता में उलझाने वाला हो उन्हें इस अध्याय में अपेक्षित उत्तर मिलेंगे।

सप्तम अध्याय - अष्टम भाव पीड़ित और मोक्ष

अष्टम भाव दुख, विरक्ति, बाधाओं और कष्ट का भाव है, इस भाव का पीडित होना व्यक्ति को जन्मजन्मांतर के लिए मोक्ष का मार्ग दिखाता है। अत्यधिक कष्ट की स्थिति से गुजरने के बाद ही मोक्ष की राह खुलती है। जिस व्यक्ति की कुंडली या गोचर में आठवां भाव पीडित हो तो व्यक्ति को सप्तम अध्याय का अध्ययन करने से राहत मिलती है। और मोक्ष के योग बनते है। जब तक अष्टम भाव में व्यक्ति उलझा रहता है, तब तक व्यक्ति के लिए मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है।

 

आठवां अध्याय

अध्‍याय 8 (अक्षरब्रह्मयोग) – कुण्डली में मारक ग्रह और 12 वें भाव का संबंध हो

गीता का आठवां अध्याय अक्षरब्रह्मयोग है, जिसमें 28 श्लोक हैं। गीता के इस पाठ में स्वर्ग और नरक का सिद्धांत शामिल है। इसमें मृत्यु से पहले व्यक्ति को सोच, आध्यात्मिक संसार तथा नरक और स्वर्ग को जाने की राह के बारे में बताया गया है। इस अध्याय की संज्ञा अक्षर ब्रह्मयोग है। उपनिषदों में अक्षर विद्या का विस्तार हुआ और गीता में उसे अक्षरविद्या का सार कह दिया गया है। अक्षर ब्रह्म परमं, मनुष्य, अर्थात् जीव और शरीर की संयुक्त रचना का ही नाम अध्यात्म है। गीता के शब्दों में ॐ एकाक्षर ब्रह्म है।

अक्षर ब्रह्म योग

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि अक्षर ब्रह्म योग की प्राप्ति से ही ब्रह्मा, अधिदेव, अध्यात्म और आत्म संयम की प्राप्ति होती है। मनुष्य को अपने भौतिक जीवन का निर्वाह शून्य से करना चाहिए। अक्षर ब्रह्म योग के लिए मनुष्य को अपने अंदर के हर विचार और सोच को बाहर करना होता है। नए सिरे से मन को शुद्ध कर इस योग को कराना होता है।

  • जन्‍म-मरण चक्र में जो संस्‍कार प्रधान-रूप से मृत्‍यु के समय उपस्थित रहता है, वह गति का कारण होता है। इसलिये जीवन में सतत और प्रतिक्षण ये अभ्‍यास करने चाहियें-
    • शुभ संस्कारों का संचय।
    • भीतर मन से सतत ईश्वर-स्‍मरण (विकर्म) और बाहर देह से सेवारूपी स्‍वधर्माचरण। अक्षर ब्रह्म का ध्‍यान-
      • नाम अर्थात् ऊँ से।
      • गुण, कर्म और स्वाभाव से तत्त्व-स्‍मरण अर्थात् उदासीन, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, अनादि-अनन्त, नित्य, निराकार, निर्विकार, निष्क्रिय, एक, अखंण्ड, पूर्ण, कूटस्थ, अतीत, अजन्मा, सत-चित्त-आनन्द स्वरूप, सर्वाधार, सृष्टा, अधिष्ठाता, नियन्ता, सर्वशक्तिशाली और सर्वकल्याणकारी आदि।
  • आसक्ति का त्‍याग।

मौत का डर – जिन लोगों को मौत का डर सता रहा हो यानि आठवें भाव का संबंध बारहवें से हो उन्हें यह अध्याय पढना चाहिए।

अष्टम अध्याय - कारक ग्रह और द्वादश भाव संबंध

यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में मृत्यु कारक भाव द्वादश भाव से संबंध बनाए तो व्यक्ति को मौत का भय पीडित करता है। इस भय से बाहर आने के लिए व्यक्ति को श्रीमदभागवत गीता के अष्टम भाव का अध्ययन करना चाहिए। इस अध्याय का अध्ययन करने से व्यक्ति को मृत्यु के भय पर विजय प्राप्त होती है।

 

नवां अध्याय

अध्‍याय 9 (राजविद्याराजगुह्ययोग) – लग्नेश, दशमेश और मूल स्ववभाव राशि का संबंध हो

राजविद्याराजगुह्य योग गीता का नवां अध्याय है, जिसमें 34 श्लोक हैं। इसमें यह बताया है कि श्रीकृष्ण की आंतरिक ऊर्जा सृष्टि को व्याप्त बनाती है उसका सृजन करती है और पूरे ब्रह्मांड को नष्ट कर देती है। नवें अध्याय को राजगुह्ययोग कहा गया है, अर्थात् यह अध्यात्म विद्या और गुह्य ज्ञान सबमें श्रेष्ठ है। मन की दिव्य शक्तियों को किस प्रकार ब्रह्ममय बनाया जाय, इसकी युक्ति ही राजविद्या है। इस क्षेत्र में ब्रह्मतत्व का निरूपण ही प्रधान है। वेद का समस्त कर्मकांड यज्ञ, अमृत, और मृत्यु, संत और असंत, और जितने भी देवी देवता है, सबका पर्यवसान ब्रह्म में है।

राज विद्या गुह्य योग

इस योग में स्थिर रहकर व्यक्ति परम ब्रह्म के ज्ञान से रूबरू होता है। मनुष्य को परम ज्ञान प्राप्ति के लिए राज विद्या गुह्य योग का आत्मसात करना चाहिए। इसे आत्मसात करने वाला ही हर बंधनों से मुक्त हो सकता है।

  • राजयोग = कर्मयोग + भक्तियोग अर्थात् कर्म और कर्म-फल ईश्वर-समर्पण। 

खुद को जानने की कवायद – बहुत से लोगों में क्षमताएं तो बहुत होती है लेकिन वे बिलो-प्रोफाइल काम करते हैं और धीरे-धीरे अपनी क्षमताओं पर विश्वास खो देते हैं। लग्नेश, दशमेश और मूल स्वभाव राशि का संबंध होने पर ऐसे लोग फिर से अपनी लय पाने में कामयाब होते हैं। नवां अध्याय इसमें सहायता करता है।

नवम अध्याय - लग्नेश, दशमेश और मूल स्वभाव राशि

जन्मपत्री का लग्न भाव स्व भाव है, लग्नेश व्यक्ति के व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है और दशमेश को कर्म भाव का स्वामी कहा गया है, मूल स्वराशि से अभिप्राय: चंद्र राशि से है। तीनों एक दूसरे के मित्र संबंध में हों तो व्यक्ति को अपनी क्षमताओं के अनुरुप सफलता हासिल होती है। क्षमताओं के अनुरुप कामयाबी प्राप्त करने के लिए नवम अध्याय का अध्ययन करना चाहिए। इस अध्याय के अध्ययन से व्यक्ति को अपने छुपी हुई क्षमताओं के अनुरुप सफलता हासिल होती है।

दसवां अध्याय

अध्‍याय 10 (विभूतियोग) – इसका आम स्वरूप है और कर्म प्रधानता है। सभी के लिए

विभूति योग गीता का दसवां अध्याय है जिसमें 42 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बताते हैं कि किस प्रकार सभी तत्वों और आध्यात्मिक अस्तित्व के अंत का कारण बनते हैं। इस अध्याय का नाम विभूतियोग है। इसका सार यह है कि लोक में जितने देवता हैं, सब एक ही भगवान का अंश हैं। मनुष्य के समस्त गुण और अवगुण भगवान की शक्ति के ही रूप हैं। देवताओं की सत्ता को स्वीकारते हुए सबको विष्णु का रूप मानकर समन्वय की एक नई दृष्टि प्रदान की गर्इ है जिसका नाम विभूतियोग है।

विभूति विस्तार योग

मनुष्य विभूति विस्तार योग के जरिये ही ईश्वर के नजदीक पहुंचता है। इस योग के माध्यम से साधाक ब्रह्म में लीन हो कर अपने ईश्वर मार्ग पर प्रशस्त करता है।

  • ईश्वर की सर्वव्‍यापकता का अनुभव-
    • स्‍थूलरूप में प्रत्‍येक मानव, प्राणि और सृष्टि में।
    • तत्‍पश्‍चात स्थूल से सूक्ष्‍म में अनुभव करना।

अपनी पहचान – खुद को जानने की कवायद की पराकाष्ठा होती है खुद के स्वरूप तक पहुंचने की। ऐसे में कृष्ण स्पष्ट करते हैं कि परमब्रह्म से पैदा हुए तुच्छ से दिखने वाले मनुष्य का असली स्वरूप क्या है। तत्वमसि और अहम् ब्रह्मास्मि का क्या अर्थ है यहीं पता चलता है।

दशम अध्याय - कर्म का महत्व

जब भी व्यक्ति कर्म भाव से विमुख हो रहा हो या उसे आलस्य घेर रहा हो, वह भाग्यवादी होकर जीवन की ओर जा रहा हो तो व्यक्ति को भागवात गीता के नवम अध्याय का अध्ययन करना चाहिए। अपनी क्षमताओं को जागृत कर, जीवन जीवन का नाम ही कर्म है। जो करना है स्वयं को ही करना है इस भाव से जीना कर्मवादी बनाता है। व्यक्ति की सफलता में कर्म भाव का महत्व बहुत अधिक है। कर्म की राह पर चलने वाले व्यक्ति को एक न एक दिन सफलता हासिल हो ही जाती है।

 

ग्याहरवां अध्याय

अध्‍याय 11 (विश्‍वरूपदर्शनयोग) – जिनकी कुण्डली में लग्नेश 8 से 12 भाव तक हो

विश्वस्वरूपदर्शन योग गीता का ग्यारहवां अध्याय है जिसमें 55 श्लोक हैं। इस अध्याय में अर्जुन के निवेदन पर श्रीकृष्ण अपना विश्वरूप धारण करते हैं। ग्यारहवें अध्याय का नाम विश्वरूपदर्शन योग है। इसमें अर्जुन ने भगवान का विश्वरूप देखा। विराट रूप का अर्थ है मानवीय धरातल और परिधि के ऊपर जो अनंत विश्व का प्राणवंत रचनाविधान है, उसका साक्षात दर्शन।

विश्वरूप दर्शन योग

इस योग को मनुष्य जब कर लेता है तब उसे ईश्वर के विश्वरूप का दर्शन होता है। ये अनंत योग माना गया है। ईश्वर तक विराट रूप योग के माध्यम से अपना रूप प्राप्त किए हैं।

  • ईश्वर का समग्र विराट् विश्‍वरूप अर्थात् सर्वव्‍यापकता (देश से) और नित्‍यता (काल से)।
  • अंश में पूर्ण के दर्शन संभव है।

काम लगातार करते रहें – काम करते-करते एक बार विचार आता है कि क्यों कर रहे हैं। इस प्रकार का विचार लग्नेश के आठवें से बारहवें भाव तक के जातकों में कई बार आता है। ऐसे में बिना आसक्ति के लगातार काम में जुटे रहने के लिए ग्यारहवां भाव प्रेरित करता है। कई शंकाओं का समाधान भी होता है।

एकादश अध्याय - लग्नेश और अन्य ग्रह जब 8 से 12वें भाव के मध्य

यदि व्यक्ति की कुंडली में लग्नेश और अन्य सभी ग्रह 8वें भाव से 12वें भाव के मध्य स्थित हो तो व्यक्ति को भगवत गीता के एकादश भाव का अध्ययन करना चाहिए। जन्मपत्री के 8वें से 12वें तक का जीवन सफर व्यक्ति की बाधाओं, करियर, लाभ और व्ययों को स्पष्ट करता है। इन सभी में यदि व्यक्ति संतुलन स्थापित कर लेता है तो वह कर्मफल सिद्धांत को समझ लेता है। फल की चिंता न करना और अपना कर्म करते रहने की प्रेरणा ये भाव देते है। इसके अतिरिक्त इन भावों से व्यक्ति को बाधाओं से ना घबराते हुए, आगे बढ़ने की शक्ति भी मिलती है।

 

बारहवां अध्याय

अध्‍याय 12 (भक्तियोग) – भाव 5 व 9 तथा चंद्रमा प्रभावित होने पर

भक्ति योग गीता का बारहवां अध्याय है जिसमें 20 श्लोक हैं। इस अध्याय में कृष्ण भगवान भक्ति के मार्ग की महिमा अर्जुन को बताते हैं। इसके साथ ही वह भक्ति योग का वर्णन अर्जुन को सुनाते हैं। जब अर्जुन ने भगवान का विराट रूप देखा तो वह घबरा गया और घबराहट में उसके मुंह से ‘दिशो न जाने न लभे च शर्म’ वाक्य निकले। उसने प्रार्थना की, कि मानव के लिए जो स्वाभाविक स्थिति ईश्वर ने रखी है, वही पर्याप्त है।

भक्ति योग

भक्ति योग ईश्वर प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ योग है। बिना इस योग के भगवान नहीं मिल सकते। जिस मनुष्य में भक्ति नहीं होती उसे भगवान कभी नहीं मिलते।

  • भक्ति का उद्देश्‍य इन्द्रियों को विषयों में ना भटकने देना है, जो सगुण (कर्म-योग) से निर्गुण (संन्‍यास-योग) की यात्रा है, जो एक-दूसरे के परिपूरक हैं -
    • सगुण – ईश्वर की सेवा में इन्द्रिय-समर्पण (भक्तिमय) जो सुलभ है। इस भक्ति में मन के सूक्ष्‍म मल को मिटाने का सामर्थ्‍य है।
    • निर्गुण – ईश्वर की सेवा में इन्द्रिय-निग्रह (ज्ञानमय), जो साधकों के लिये कठिन है।

प्रारब्ध और भाग्य के साथ – पिछले जन्मों में हमने जो कार्य किए उनके साथ ही हमें इस जन्म में पैदा होना होता है। इसके साथ ही इस जन्म के लिए भी ईश्व‍र हमें कुछ देकर भेजता है। नेमतों के लिए ईश्वर का शुक्रिया अदा करते हुए दिमाग को स्थिर करने का उपाय भक्ति योग में।

द्वादश अध्याय - पंचम भाव, नवम भाव और चंद्रमा प्रभावित हो

यदि कुंडली में पंचम भाव एवं नवम भाव शुभ ग्रहों द्वारा प्रभावित हो और चंद्र पर भी शुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो व्यक्ति को श्रीमदभागवत गीता के द्वादश भाव का अध्ययन करने से सुख मिलता है। जीवन की इन परिस्थितियों में द्वादश अध्याय मार्गदर्शन दिखाने का कार्य करता है। पंचम भाव और नवम भाव पूर्वजन्म के पुण्य कर्मों और धार्मिक क्रियाओं के भाव हैं, इसके साथ ही चंद्र भी मन और अवचेतन मन में स्थिति पूर्व जन्म की स्मृतियों का सूचक है। इन सभी के कर्मों के फलस्वरुप व्यक्तियों को इस जन्म में सुख-दुख की प्राप्ति होती है।

 

तेहरवां अध्याय

अध्‍याय 13 (क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग) – भाव 12 तथा चंद्रमा के प्रभाव से संबंधित

क्षेत्र क्षत्रज्ञ विभाग योग गीता तेरहवां अध्याय है इसमें 35 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के ज्ञान के बारे में तथा सत्व, रज और तम गुणों द्वारा अच्छी योनि में जन्म लेने का उपाय बताते हैं। तेरहवें अध्याय में एक सीधा विषय क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का विचार है। यह शरीर क्षेत्र है, उसका जाननेवाला जीवात्मा क्षेत्रज्ञ है।

क्षेत्र विभाग योग

क्षेत्र विभाग योग ही वह जरिया है जिसे जरिये मनुष्य आत्मा, परमात्मा और ज्ञान के गूढ़ रहस्य को जान पाता है। इस योग में समा जाने वाले ही साधक योगी होते हैं।

  • तत्त्‍व-ज्ञानी यानी तत्त्‍वमसि –
    • क्षेत्र देह से देह-आसक्ति (जो भय का कारण है) त्‍याग कर उसे साधन रूप में उपयोग करना। क्षेत्र अर्थात् त्रिगुणात्‍मक मूल-प्रकृति, पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, दस इन्द्रियाँ, मन और पाँच इन्द्रियों के विषय (शब्‍द, स्पर्श, रूप, रस और गन्‍ध) से इच्‍छा, राग, द्वेष आदि विकार उत्‍पन्‍न होते हैं।
    • अलिप्‍त आत्‍मा क्षेत्रज्ञ है, जो साध्‍य है।
  • अखण्‍ड आत्‍मा ही -
    • देह-आसक्ति के तल पर उपद्रष्टा है।
    • नैतिकता के तल पर अनुमंता है।
    • धारण-पोषण के तल पर भर्ता अर्थात् सहायक है।
    • जीवन में फल-त्‍याग के तल पर भोक्ता है।
    • अधिष्‍ठाता व नियन्‍ता होने से महेश्‍वर है।
    • सत-चित्त-आनन्‍द होने से परमात्‍मा है।

दूसरी दुनिया से संबंध – इसके लिए चंद्रमा और बारहवें भाव का संबंध होना चाहिए।

त्रयोदश अध्याय - द्वादश भाव का चंद्र से संबंध

यदि कुंडली में चंद्र द्वादश भाव से संबंध रखता हो और द्वादशेश से किसी प्रकार से प्रभावित हो तो व्यक्ति को गीता के त्रयोदश अध्याय का अध्ययन करना चाहिए। बारहवां भाव चिंताओं और व्ययों है इस भाव से मन का जुडना व्यक्ति को चिंताशील बनाता है। ऐसा व्यक्ति किसी न किसी बात को लेकर चिंतित रहता है और उसका मन विचलित रहता है। गीता के त्रयोदश अध्याय का अध्ययन करने से उसकी चिंता का निवारण होता है और शांति की प्राप्ति होती है।

 

चौदहवां अध्याय

अध्‍याय 14 (गुणविभागयोग) – आठवें भाव में किसी भी उच्च के ग्रह की स्थिति में

गणत्रय विभाग योग है इसमें 27 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण सत्व, रज और तम गुणों का तथा मनुष्य की उत्तम, मध्यम अन्य गतियों का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं। अंत में इन गुणों को पाने का उपाय और इसका फल बताया गया है। इस अध्याय का नाम गुणत्रय विभाग योग है। यह विषय समस्त वैदिक, दार्शनिक और पौराणिक तत्वचिंतन का निचोड़ है। सत्व, रज, तम नामक तीन गुण हैं। अकेला सत्व शांत रहता है और अकेला तम भी निश्चेष्ट रहता है, किंतु दोनों के बीच में रजोगुण उन्हें सक्रिय करता है।

  • रजस् और तमस् को मिटाना (विनाशक साधन) और अलिप्‍त रह कर सत्त्‍व की पुष्टि (विधायक साधन) -
    • मोहित करने वाले तमस् का फल अज्ञान है। अज्ञान से प्रमाद और आलस्‍य (अकर्तव्‍य) का बन्ध है, जो शारीरिक श्रम से जीता जा सकता है।
    • रजस् का फल कामना और आसक्ति है। कामना और आसक्ति से कर्मों के फल का बन्‍ध (लोभ, विषयों की लालसा और सकाम कर्म) और अस्थिता होती है, जो कर्म योग (स्‍वधर्म-पालन) से जीते जा सकते हैं।
    • सत्त्‍व का फल सुख और ज्ञान है। सुख और ज्ञान से अभिमान और आसक्ति का बन्‍ध होता है, जो सातत्‍य-योग और ईश्वर को फल-समर्पण से जीते जा सकते हैं। सत्त्‍व की प्रधानता से विवेक का प्रकाश और वैराग्‍य उत्‍पन्‍न होता है।
    • अन्‍त में आत्‍म-ज्ञान (दृष्टा अथवा समत्‍व-योग) और भक्ति से भी गुणातीत हो जाना है।

अकस्मात लाभ – आठवें भाव में उच्च का ग्रह अचानक अध्यात्मिक उन्नति का लाभ दिलाता है। इसके लिए नियमित तैयारी होनी चाहिए।

चतुर्दश अध्याय - अष्ट्म भाव में उच्चस्थ ग्रह की स्थिति

यदि कुंडली के आठवें भाव में कोई उच्च का ग्रह स्थित हो तो व्यक्ति को चतुर्दश अध्याय का अध्ययन करना चाहिए। अष्टम भाव में उच्च के ग्रह की स्थिति परेशानियों, रोगों और बाधाओं को बड़े पैमाने का देती है। इस स्थिति में व्यक्ति निराशा और हताशा में जल्द आ सकता है। इस स्थिति से बाहर आने में चतुर्दश अध्याय सहयोग करता है। यह व्यक्ति को अचानक से अध्यात्म की ओर लेकर जाता है।

 

पंद्रहवां अध्याय

अध्‍याय 15 (पुरुषोत्तम-योग) – लग्न एवं 5 वें भाव के संबंध में देखेंगे

गीता का पंद्रहवां अध्याय पुरुषोत्तम योग है, इसमें 20 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण कहते हैं कि दैवी प्रकृति वाले ज्ञानी पुरुष सर्व प्रकार से मेरा भजन करते हैं तथा आसुरी प्रकृति वाले अज्ञानी पुरुष मेरा उपहास करते हैं। पंद्रहवें अध्याय का नाम पुरुषोत्तमयोग है। इसमें विश्व का अश्वत्थ के रूप में वर्णन किया गया है। नर या पुरुष तीन हैं, क्षर, अक्षर और अव्यय। इनमें पंचभूत क्षर है, प्राण अक्षर है और मनस्तत्व या चेतना की संज्ञा अव्यय है।

  • पुरुषोत्तम-योग = सेवक अक्षर पुरुष, सेव्‍य पुरुषोत्तम परमात्‍मा की क्षर सृष्टि से सेवा-साधना करता है। सर्वत्र में भक्ति, ज्ञान और कर्म की त्रिपुटि है अर्थात् प्रत्‍येक कर्म सेवामय, प्रेममय और ज्ञानमय होना चाहिए।

संभावनाएं – पिछले जन्म में क्या किया और इससे इस जन्म में कहां तक आगे बढा जा सकता है। पांचवा भाव लग्न को जो कुछ दे सकता है उसका लाभ लेने की कोशिश।

पंचदश अध्याय - लग्न और पंचम भाव के संबंध

पूर्व जन्म में हम क्या थे, और कौन से कार्यों के फलस्वरुप हमें यह जन्म प्राप्त हुआ। इसकी जानकारी लग्न और पंचम भाव से की जा सकती है। लग्न और पंचम का संबंध कुंडली में स्थित हो तो व्यक्ति को पंद्रहवें अध्याय का अध्ययन करने की सलाह दी जाती है।

 

सोलहवां अध्याय

अध्‍याय 16 (दैवासुरसम्‍पद्विभागयोग) – मंगल और सूर्य की खराब स्थिति में

दैवासुरसंपद्विभाग योग गीता का सोलहवां अध्याय है, इसमें 24 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण स्वाभाविक रीति से ही दैवी प्रकृति वाले ज्ञानी पुरुष तथा आसुरी प्रकृति वाले अज्ञानी पुरुष के लक्षण के बारे में बताते हैं। सोलहवें अध्याय में देवासुर संपत्ति का विभाग बताया गया है। आरंभ से ही ऋग्देव में सृष्टि की कल्पना दैवी और आसुरी शक्तियों के रूप में की गई है। एक अच्छा और दूसरा बुरा।

  • शास्‍त्र द्वारा प्रमाणित दैवी सम्‍पदाओं का विकास करना, जो मुक्ति का कारण हैं -
    • भक्ति, ज्ञान और कर्म।
    • निर्भयता जिसको आगे रखने से प्रगति होती है।
    • अहिंसा और सत्‍य को बीच में।
    • नम्रता को सबसे पीछे रखने से बचाव होता रहता है।
  • आसुरी सम्‍पदाओं, जो बन्‍ध का कारण हैं, जैसे अहंकार, अज्ञान, काम, क्रोध, लोभ आदि को संयम से जीतना चाहिए।

शक्ति हो और नियमित न हो – सूर्य या मंगल की कुण्डली में खराब स्थिति में यह अध्याय बहुत महत्वपूर्ण हो उठता है। इसके अध्ययन से अपनी गलतियों से बंद हो रहे रास्ते खुलते हुए नजर आने लगते हैं।

षोडश अध्याय - सूर्य अशुभ स्थित

जब सूर्य कुंडली में अशुभ या पीडित अवस्था में हो तो व्यक्ति को षोडश अध्याय का अध्ययण करना चाहिए। सूर्य आत्मकारक ग्रह है। आत्मा के पीडित होने पर संपूर्ण जीवन व्यथित हो जाता है। ऐसे में व्यक्ति इस जन्ममरण के चक्र में जन्मजंमातर में फंसा रहता है। इससे बाहर आने में यह अध्याय उपयोगी साबित होता है।

 

सत्रहवां अध्याय

अध्‍याय 17 (श्रद्धात्रयविभागयोग) – षष्ट भाव सम्बन्धी कष्ट निवारण हेतु

श्रद्धात्रय विभाग योग गीता का सत्रहवां अध्याय है, इसमें 28 श्लोक हैं। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बताते हैं कि जो शास्त्र विधि का ज्ञान न होने से तथा अन्य कारणों से शास्त्र विधि छोडऩे पर भी यज्ञ, पूजा आदि शुभ कर्म तो श्रद्धापूर्वक करते हैं, उनकी स्थिति क्या होती है। ये अध्याय श्रद्धात्रय विभाग योग है। इसका संबंध सत, रज और तम, इन तीनों गुणों से है, अर्थात् जिसमें जिस गुण का प्रादुर्भाव होता है, उसकी श्रद्धा या जीवन की निष्ठा वैसी ही बन जाती है। यज्ञ, तप, दान, कर्म ये सब इसी से संचालित होते हैं।

  • नित्‍य और नियमित कार्य-क्रम में बंधा हुआ मन मुक्‍त और प्रसन्‍न होता है। इसके लिये यज्ञरूपी कर्म से निम्‍न संस्‍थाओं की क्षति-पूर्ति अर्थात् साम्‍यावस्‍था में लाना चाहिए -
    • शरीर-संस्‍था (शरीर, वाणी और मन) का शुद्धिकरण तप और शुद्ध आहार से।
    • समाज-संस्‍था से ऋण-मुक्‍त होने के लिये तन, मन और धन से दान।
    • ब्रह्माण्‍ड-संस्‍था का निर्माण यज्ञ से।
  • उक्त कर्मों के मूल में सात्त्विकता, श्रद्धा और फिर ईश्वरार्पणता अर्थात् ऊँ तत्‍सत् (ऊँ = परमात्‍मा और सातत्‍य, तत् = अलिप्‍तता, सत् = सात्त्विकता)। यज्ञ में सात्त्विकता अर्थात् निष्फलता (तमस्-रहित) और सकामता (रजस्-रहित) का आभाव होता है। स्‍वार्थ (मैं) + परार्थ (तू) = परमार्थ (समग्रता) की भावना अर्थात् यज्ञ में अग्नि, पात्र, पदार्थ, कर्ता, आ‍हुति, क्रिया और फल आदि ब्रह्म ही हैं।

ऋण मुक्ति ही मोक्ष है – शरीर, मन, बुद्धि तीनो का शुद्धिकरण की कर्मो के ऋणों से मुक्ति प्रदाता है। इस जन्म के रोग, शोक, ऋण व शत्रुता इत्यादि जन्मों जन्मों के कर्मो का नतीजा है। प्रस्तुत अध्याय कर्मो को शुद्ध करते हुए परमात्मा की तरफ जाने का रास्ता बतलाता है ।

सत्रहवां अध्याय - छ्ठे भाव से संबंधित

कुंडली के छठे भाव पर अशुभ प्रभाव हों या छ्ठे भाव के विषयों को हल करने के लिए त्रयोदश अध्याय का अध्ययन करने के लिए कहा गया है। छ्ठा भाव रोग, ऋण और रिपु का है। जब इस भाव के कारकतत्व प्रभावी होते है तो व्यक्ति इन विषयों में ही फंस कर रह जाता है। जिससे बाहर आने के लिए सत्रहवां अध्याय के अध्ययन से लाभ मिलता है।

 

अठारहवां अध्याय

अध्‍याय 18 (मोक्षसंन्‍यासयोग) –

मोक्ष-संन्यास योग गीता का अठारहवां अध्याय है, इसमें 78 श्लोक हैं। यह अध्याय पिछले सभी अध्यायों का सारांश है। इसमें अर्जुन, श्रीकृष्ण से न्यास यानी ज्ञानयोग का और त्याग अर्थात फलासक्ति रहित कर्मयोग का तत्व जानने की इच्छा प्रकट करते हैं। अठारहवें अध्याय में मोक्षसंन्यास योग का जिक्र है। इसमें गीता के समस्त उपदेशों का सार एवं उपसंहार है। इसमें बताया गया है कि पृथ्वी के मानवों में और स्वर्ग के देवताओं में कोई भी ऐसा नहीं जो प्रकृति के चलाए हुए इन तीन गुणों से बचा हो। मनुष्य को क्या कार्य है, क्या अकार्य है, इसकी पहचान होनी चाहिए। धर्म और अधर्म को, बंध और मोक्ष को, वृत्ति और निवृत्ति को जो बुद्धि ठीक से पहचनाती है, वही सात्विक बुद्धि है।

  • कर्म सिद्धि हेतु अधिष्ठान (अर्थात् शरीर और देश), कर्ता, करण (अर्थात् बहि:करण और अन्‍त:करण), चेष्टा और दैव (अर्थात् संस्कार), ये पाँच कारण हैं। ज्ञाता + ज्ञान + ज्ञेय द्वारा कर्म प्रेरणा है, और कर्ता + करण + क्रिया से कर्म संग्रह होता है। इसमें अकर्तापन कर्म संग्रह को रोकने का उपाय है।
  • सतत स्‍वधर्म की अबाध्‍यता अर्थात् अधर्म और परधर्म का त्‍याग।
  • सत्त्‍व, रजस् और तमस् कर्म फल-त्‍यागपूर्वक करने चाहिए। रजस् और तमस् प्रधान कर्म का त्‍याग कर देना चाहिए। असल में फल-त्‍याग की कसौटी से रजस् और तमस् प्रधान (अर्थात् काम्‍य और निषिद्ध) कर्मों का अपने आप त्‍याग हो जाता है।
  • सदोष होने पर भी सहज और स्‍वाभाविकरूप से प्राप्त सत्त्‍व-प्रधान शास्त्रविहित यज्ञ-दान-तपरूप कर्तव्‍य-कर्मों (अर्थात प्रायश्चित, नित्‍य और नैमित्तिक कर्मों) को करना चाहिए, परन्‍तु ईश्वरार्पण द्वारा कर्म-फल, कर्म-आसक्ति, कर्तापन और कर्म-फल-त्‍याग के अभिमान का भी त्‍याग करना चाहिए।
  • सतत फल-त्याग से चित्त-शुद्धि होती है, और शुद्ध चित्त से किये गये कर्म में कर्तापन तीव्र से सौम्य, सौम्यत से सूक्ष्म  और सूक्ष्मर से शून्या हो जाता है, परन्तु क्रिया चलती रहती है, जो सिद्ध पुरुष की पराकाष्ठा अथवा अक्रिया की अवस्था है। जो क्रिया कर्तृत्वाभिमान पूर्वक की जाय तथा अनुकूल-प्रतिकूल फल देने वाली हो, वह क्रिया कर्म कहलाती है।
  • देह-आसक्ति टूटने पर सिद्ध पुरुष की निम्न तीन अवस्थाएँ होती हैं, जिसमें सब शुभ और सुन्दर होता है –
    • क्रियावस्था में क्रिया का निर्मल और आदर्श होना।
    • भावास्था में एकरुप हो कर समस्त पाप-पुण्य का दायित्व लेने पर भी स्वयं पाप-पुण्य से अलिप्त रहना।
    • ज्ञानावस्था में लेशमात्र कर्म को अपने पास नहीं रहने देना।

अठारहवां अध्याय - मोक्ष प्राप्ति

जन्म के साथ व्यक्ति की जीवन यात्रा शुरु होती है, और कई बार अनेको अनेक जन्मों तक चलती रहती है। इस जन्म जन्मांतर के चक्रों से बाहर आने और मोक्ष की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को अठारहवें अध्याय का अध्ययन करना चाहिए। इस अध्याय का अध्ययन करने से व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है।

गीता पाठ व अध्ययन द्वारा ज्ञान का विकास होना, सृष्टि के नियमो का ज्ञान होना, कर्मो व पुनर्जन्म का बोध होना, इश्वर प्राप्ति के सर्वोच्च विषय का चिंतन होना ही हमें वर्तमान समय के क्लेशो से मुक्त करता है और उन्नत जीवन जीने की ओर अग्रसर करता है।

इस प्रकार गीता के अट्ठारह अध्यायों का अध्ययन करने से व्यक्ति ज्ञानी बन, अपने पापों का नाश करता है, भगवतगीता के अट्ठारह अध्यायों के अध्ययन से व्यक्ति भवबंधन से मुक्ति पाकर ईश्वर में लीन हो जाता है। व्यक्ति की कुंड्ली के अशुभ योगों का निवारण भी गीता के अट्ठारह अध्यायों का अध्ययन कर किया जा सकता है।

यदि करते हैं भगवद्गीता का पाठ तो इन नियमों को जानना है आवश्यक

सार

महाभारत युद्ध से पहले भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेश ही भगवद्गीता के रूप में अलंकृत हैं। भगवद्गीता में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं।

विस्तार

जिस तरह प्रत्येक धर्म में उसका एक धार्मिक ग्रंथ होता है, उसी प्रकार से सनातन धर्म में गीता को धार्मिक ग्रंथ का दर्जा दिया गया है। भगवद्गीता महाभारत का एक भाग है। जब रणभूमि में अपने सगे-संबंधियों को देखकर अर्जुन विचलित हो जाते हैं और शस्त्र उठाने से मना कर देते हैं, तब भगवान श्री कृष्ण उनके ज्ञान चक्षु खोलने के लिए उपदेश देते हैं। महाभारत युद्ध से पहले भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को दिए गए ये उपदेश ही भगवद्गीता के रूप में अलंकृत हैं। भगवद गीता में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। भगवद्गीता मनुष्य को सही राह दिखाती है। यह एक धर्म से कहीं ज्यादा ऊपर है। इसके एक-एक श्लोक में ज्ञान है। जो व्यक्ति प्रतिदिन गीता पढ़ता है या श्रवण करता है उसके जीवन में सदैव सुख और संतुष्टि रहती है और वह हर परिस्थिति व संकट से निकलने में सक्षम रहता है। वैसे तो भक्ति भाव के साथ भगवद्गीता का पाठ कहीं भी किया जा सकता है लेकिन उसका पूर्ण फल प्राप्त करने के लिए इसके नियमों को जानना बेहद आवश्यक है। तो आइए जानते हैं भगवद्गीता के नियम।

भगवद्गीता पढ़ने के सर्वोत्तम लाभ के लिए नियम

सुबह के समय मन, मस्तिष्क और वातावरण में शांति एवं सकारात्मकता रहती है, अतः पाठ करते समय एकाग्रता बनी रहती है इसलिए गीता को सुबह के समय पढ़ें तो उत्तम रहता है।

गीता का पाठ सदैव स्नान करने के बाद ही करना चाहिए और हो सके तो पाठ करने से पहले चाय, दूध या पानी आदि नहीं पीना चाहिए। 

पाठ करते समय पूरी एकाग्रता रखना आवश्यक होता है इसलिए बीच-बीच में बोलना नहीं चाहिए और न ही इधर-उधर की बातों पर ध्यान देना चाहिए।

प्रतिदिन भगवद्गीता को एक निश्चित समय और निश्चित अवधि में पढ़ना चाहिए। रोजाना एक अध्याय करने का संकल्प भी कर सकते हैं।

जिस स्थान पर आप गीता पढ़ते हैं, वहां की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें। जिस स्थान पर गीता पढ़ते हैं, वहां की सफाई केवल आपके द्वारा की जानी चाहिए।

गीता पढ़ने के लिए एक साफ कंबल, ऊनी कालीन, फर के आसन आदि पर बैठना चाहिए। जिस आसन पर बैठकर गीता पढ़ते हैं उसे रोजाना नहीं बदलना चाहिए।

अध्याय शुरू करने से पहले भगवान गणेश और श्रीकृष्ण के किसी भी मंत्र को पढ़ना चाहिए। इसके लिए मंत्र को अर्थ सहित याद कर लेना चाहिए।

गीता में संस्कृत में अर्थ सहित श्लोक लिखें हैं। पहले प्रत्येक संस्कृत श्लोक को स्पष्ट उच्चारण के साथ पढ़ें और उसके बाद अनुवाद को भी समझते हुए पढ़ें।

प्रत्येक अध्याय को आरंभ से पहले और बाद में भगवान श्रीकृष्ण और भगवद्गीता के चरण कमलों को स्पर्श करें।

भगवद्गीता के जिस अध्याय का पाठ करने जा रहे हो उसका महात्म्य अवश्य पढ़ें।

भगवद्गीता मनुष्य को सही राह दिखाती है और अच्छे कर्म करने के लिए प्रेरित करती है इसलिए जब गीता के वचनों को अपने जीवन में भी पालन करने की कोशिश करें।

जो व्यक्ति प्रतिदिन गीता पढ़ने के साथ ही उसे अपने जीवन में भी पालन करता है, भगवान श्रीकृष्ण सदैव उसके साथ रहते हैं।

भगवद गीता - क्या कोई किसी का भाग्य बदल सकता है?

रामकृष्ण परमहंस ने अपने शिष्य नरेन्द्र को पांव के अंगूठे से छुआ और नरेंद्र विवेकानंद हो गए। मैं यह नहीं कहता कि यह घटना असत्य है पर क्या कोई विवेकानंद इस प्रकार बन सकता है? इससे तो ईश्वर के कर्म का सिद्धांत असत्य हो जायेगा। सन्त महात्माओं के साथ किसी न किसी के भाग्य की घटना क्रम की कहानी जुड़ी होती है। पर क्या सत्य है? यह प्रश्न विचारणीय है। एक प्रश्न यह भी उठता है इस प्रकार उनके अन्य शिष्य विवेकानंद क्यों नहीं हो गए?

विवेकानंद के विषय में रामकृष्ण कहा करते थे वह पुरातन सिद्ध ऋषि है। उसके लिए वह व्याकुल हो जाते थे। अतः अंगूठा लगाना और इस प्रकार विवेकानंद को आत्मबोध होना मात्र कर्मबंधन था। होनी अवश्यम्भावी है शेष खेल है चाहे सन्त खेले अथवा सामान्य मनुष्य।

ईसा ने अंधे को आंखे दी,कुष्ठ रोगी का रोग दूर किया,यह उन व्यक्तियों के कर्म फल थे जो वह भोग रहे थे और ईसा के दर्शन भी उनके किसी शुभ कर्मों का परिणाम था और उसका फल वह भले चंगे हो गए।

आपको एक कथा सुनाता हूँ

नर नारायण नाम के दो भाई थे। यह दोनों राजा धर्म के पुत्र थे और परम शिव भक्त थे इन दोनों ने हिमालय बद्रिकाश्रम के निकट कठिन तपस्या की। नारायण को परम बोध प्राप्त हुआ परन्तु नर जीव ही रहा। कालांतर में नारायण श्रीकृष्ण और नर अर्जुन हुए।

यह बड़ी अद्भुत कथा है। विचार कीजिये नर नारायण दोनों सगे भाई थे। दोनों में अति प्रेम था। दोनों ने एक साथ कठिन तपस्या की परन्तु निष्काम कर्म साधना के परिणाम स्वरूप केवल नारायण ही आत्मबोध को उपलब्ध हुए। यही नहीं अनेक जन्मों के बाद भी दूसरा भाई नर, जीव ही रहा और अर्जुन के रूप में जन्म लिया।

स्वयं ईश्वर ने अपने भाई अपने प्रेमी और साथ के साधक का भाग्य नहीं बदला उसे अपनी शक्ति से आत्म बोध नहीं कराया। क्योंकि ईश्वर किसी भी जीव के पाप और पुण्य नहीं लेते हैं। ईश्वर का विधान अटल है, निश्चित है। उनका न कोई अपना है न पराया। वह सब के लिए समान हैं।

भगवद्गीता में श्री भगवान ने अनेक स्थानों में
इसी बात का संकेत दिया है कि कोई किसी का भाग्य बदल नहीं सकता है और ईश्वर न किसी के पाप कर्म को न किसी के शुभ कर्म को ग्रहण करते हैं।

तेरे मेरे जन्म बहु, हुए अनेकों बार
मैं जानू सब जन्म को, तू नहिं जाने हाल।। 5-4।।

श्री भगवान बोले:- हे अर्जुन, तेरे और मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं, उन सबको मैं जानता हूँ परन्तु तू उनको नहीं जानता है।

कर्म फल इच्छा नहीं है, कर्म मुझमें लिप्त नहिं
तत्व मेरा जानता जो, कर्म में बंधता नहीं।। 14-4।।

यह संसार भेद यद्यपि मेरी सत्ता द्वारा हुआ है, परन्तु मेरे (आत्मा) द्वारा नहीं किया गया है क्योंकि कर्मो में मेरी स्पृहा नहीं है इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते हैं। इस प्रकार जो आत्मतत्व (मुझे) को जान लेता है वह कर्मो में नहीं बंधता है।

कल्प आदि विधि ने रचा, यज्ञ सहित भू लोक
यज्ञ करें कल्याण को, पूर्ण कामना होय।। 10 -5।।

प्रभु नहिं रचें, वरते प्रकृति, कर्तापन का भाव
यही नियम है कर्म का, यही कर्म फल संयोग।। 14-5।।

परमेश्वर वास्तव में अकर्ता है, वह संसार के जीवों के न कर्तापन की, न कर्मों की, न कर्म फल संयोग की रचना करते हैं; किन्तु स्वभाव ही इस सबका कारण है अर्थात माया का आरोपण जब ईश्वर में कर दिया जाता है तो उसे कर्ता समझने लगते हैं। परन्तु परमात्मा अपने अकर्ता स्वरूप में स्थित रहते हुए कोटि कोटि ब्रह्माण्डों का सृजन कर देते हैं। यह सब उनकी प्रकृति के कारण होता है। मनुष्य में भी प्रकृति (स्वभाव) उसके कर्तापन, कर्म और कर्मफल संयोग का कारण है।

प्रभु नहिं लेते जीव के, पुण्य पाप मय कर्म
ज्ञान ढका अज्ञान से, मोहित हैं जड़ जन्तु।। 15-5।।

परमात्मा न किसी के पाप कर्म को न किसी के शुभ कर्म को ग्रहण करता है। पाप और पुण्य जीवत्व भाव अथवा शरीर भाव के कारण उत्पन्न होते हैं। परमात्मा नित्य शुद्ध आत्मतत्व है, निराकार है अतः पाप पुण्य से उसका कोई वास्ता नहीं है। अज्ञान से ज्ञान ढका हुआ है; ब्रह्म माया से छिपा हुआ है, आत्मा अनात्म तत्वों से ढकी हुयी है, इस कारण जीव अपने स्वरूप को नहीं पहचान पाता और वह मोहित हो रहा है।

श्री भगवान, कर्म कैसे और क्यों होता है इसे भी बताते हैं।

ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय है, जिससे होता कर्म
कार्य करण क्रिया मिले उपजे संग्रह कर्म।। 18=18।।

ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय इनको तू कर्म का बीज जान अर्थात कर्म की प्रेरणा इन से ही होती है। ज्ञाता जो जानता है अर्थात जीव ज्ञाता है, ज्ञान जिसके द्वारा जाना जाये, ज्ञेय वस्तु अर्थात शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध द्वारा जानने में आने वाली वस्तु। जीव शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध की ओर दौड़ता है। कर्ता, करण, क्रिया यह तीन कर्म के अंग हैं। किसी कार्य को किया जाय अथवा नहीं; जब ज्ञाता इन्द्रियों द्वारा उस ओर बढ़ता है तो कर्ता कहलाता है। जब इन्द्रियों से औजार की तरह काम लेता है तो करण। इन्द्रियों के लिए कर्ता, जो क्रिया उत्पन्न करता है वह कर्म जैसे चलना,बोलना आदि।

भगवद्गीता के अन्त में श्री भगवान अर्जुन से पूछते हैं

श्रवण किया एकाग्र मन, परम ज्ञान को पार्थ
हुआ धनंजय नष्ट क्या, तामस जन्य सम्मोह।। 72-18 ।।

हे अर्जुन, इस धर्म उपदेश को तूने क्या एकाग्र चित्त होकर सुना क्या तेरी मूढ़ता, अज्ञान जनित बुद्धि भ्रम नष्ट हो गया, क्या तेरी क्लैव्यता समाप्त हो गयी क्या तू स्वरूप स्थिति को समझ गया है क्या तेरा जीव भाव समाप्त हो गया है, क्या तू ब्रह्म भाव में स्थित हो गया है?

अब देखिये भगवद्गीता के अन्त और उसके बाद भी अर्जुन जीव ही रहा। कर्मानुसार उनको श्री भगवान का साथ मिला।

कर्म का सिद्धांत बताता है जो कुछ भी आपको इस संसार में मिलता है वह आपके शुभ और अशुभ कर्मों का परिणाम है और जो आप वर्तमान और इस जीवन में कर रहे हैं उससे आपका भविष्य और अगला जीवन निश्चित होगा। यदि और सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो जैसी आपकी प्रकृति होगी वैसे आपके कर्म होंगे।

इसी प्रकृति के कारण आप धार्मिक होते हैं, सन्त दर्शन करते हैं, कृपा भी प्राप्त करते हैं पर यह सब अपरोक्ष रूप से आपके कर्मों का परिणाम है। ‘जैसी जस भवितव्यता तैसी मिली सहाय’ और भाग्य का निर्माण आपके कर्म करंगे। ‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा’। इसलिए

1- सदा स्वाभाविक कर्म करें।
2- शास्त्र सामत कर्म करें अथवा महापुरुषों का आचरण करें।
3- सभी कर्म अथवा कर्म फल ईश्वर को अर्पित कर दें।
4- जागते हुए( दृष्टा भाव से ) कर्म करें।
5- निष्काम कर्म केवल अनेक जन्मों का योगभ्रष्ट पुरुष, कोई विरला साधक ही कर सकता है। उस ओर प्रयासरत हों।

क्यों पढ़े भगवद्गीता का अध्याय 1:

गीता का पहला अध्याय अर्जुन के मन की स्थिति के बारे में है। इस स्थिति में क्या करना है और क्या नहीं करना है जब कर्तव्य और संबंध एक दूसरे के सामने आ जाये। असमंजस और संदेह की स्थिति में क्या करें।

वास्तव में प्रत्येक सामान्य व्यक्ति इस प्रकार की स्थितियों में प्रवेश करता है और इसलिए एक अनुभवी व्यक्ति के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। यहाँ अर्जुन ने अपने सभी रिश्तेदारों और प्रियतम को युद्ध के मैदान में देख कर उसी स्थिति में प्रवेश किया है। इसलिए वह सोच रहा है कि वह अपने ही रिश्तेदारों के साथ कैसे लड़ सकता है। यह जानने के लिए इस पाठ को पढ़ें कि कैसे वह श्रीकृष्ण से सवाल पूछ रहे हैं।

क्यों पढ़े भगवद्गीता का अध्याय 2:

दूसरे पाठ में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को स्पष्ट करना शुरू किया कि क्या करना है। यहाँ यह कहा जाता है कि यदि कोई व्यक्ति विवेक का पालन करता है या अपने कर्तव्यों का पालन अच्छी तरह से करता है तो जीवन से सारी चिंताएँ दूर हो जाती हैं। दुनिया क्षणभंगुर है, कुछ भी अमर नहीं है, हर चीज बदल रही है इसलिए किसी भी चीज के बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। हमारे कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाना और आरामदायक जीवन जीना अच्छा है। यदि शास्त्रों में दिए गए नियमों के अनुसार कोई भी बिना आसक्ति के कर्तव्य करता है, तो कुछ भी जीवन को परेशान नहीं करेगा।

क्यों पढ़े भगवद्गीता का अध्याय 3:

काम बहुत महत्वपूर्ण है, कोई भी काम किए बिना जीवन नहीं जी सकता है इसलिए सबसे अच्छी बात यह है कि बिना किसी झिझक के काम करना है। बिना काम के किसी को भी शांतिपूर्ण और सफल जीवन नहीं मिल सकता। यहां तक कि सर्वोच्च शक्ति भी इस ब्रह्मांड की भलाई के लिए कर्तव्यों का पालन कर रही है। तो कर्म की महत्ता को अगर समझना हो तो आपको अध्याय ३ का अध्ययन करना चाहिए।

क्यों पढ़े भगवद्गीता का अध्याय 4:

यह पाठ स्पष्ट कर रहा है कि स्वतंत्र जीवन कैसे जिया जाए और क्यों। कैसे किसी भी प्रकार के बंधन से मुक्ति संभव है और क्यों। यह पाठ तत्त्व ज्ञान पर आधारित है है। यदि किसी काम का आधार पता है तो किसी भी काम के साथ हमारे स्वयं को संलग्न करने की आवश्यकता नहीं है। मोह के बिना जब कोई भी काम किया जाता है तो हम किसी भी प्रकार के बंधन से बच जाते हैं, यह एक सफल जीवन जीने का तरीका है।

तत्त्व ज्ञान प्राप्त करके किसी भी प्रकार के पाप से भी पार होना संभव है। तो इस पाठ को अवश्य पढ़े।

क्यों पढ़े भगवद्गीता का अध्याय 5:

जीवन में सफलता प्राप्त करने का रहस्य भगवद् गीता के पाठ 5 में दिया गया है। इस पाठ में स्पष्ट किया गया है कि अगर मन को सम अवस्था में रखा जाए संतुलित रखा जाए तो हम किसी भी नकारात्मक स्थिति से बच सकते हैं। हमे ना तो नकारात्मक स्तिथि में परेशां होना चाहिए और ना ही अनुकूल स्थितियों में अती उत्साहित होना चाहिए ।

संत एक ऐसे व्यक्ति होते हैं या शक्ति होते है जो खुद को मन के मोहजाल से आजाद कर चुके होते हैं और इस नश्वर दुनिया को समझ चुके है। अध्याय ५ को पढकर हम ये जान सकते हैं की जीवन की हर परिस्थिति से कैसे निपटा जा सकता है।

क्यों पढ़े भगवद्गीता का अध्याय 6:

यह पाठ समता पर आधारित है अर्थात् इसमें ये बताया गया है की प्रत्येक व्यक्ति को मन को संतुलित रखने के लिए क्या कार्य करना चाहिए। समता के बिना किसी भी प्रकार की शंका, शोक आदि से पार पाना संभव नहीं है और मन ठीक से ध्यान नहीं लगा पाता है।

जो व्यक्ति समता में रहने में सक्षम है, वही व्यक्ति मन की सर्वश्रेष्ठ स्थिति को प्राप्त करने में सक्षम है। तो भगवद् गीता के इस पाठ में समता योग के बारे में बताया गया है जिसे सभी को जरुर पढना चाहिए।

क्यों पढ़े भगवद्गीता का अध्याय 7:

प्रत्येक वस्तु ईश्वर है, कहीं न कहीं भगवान वासुदेव हैं, ईश्वर के अलावा कुछ नहीं है और यही वास्तविकता है। हर एक को इस तथ्य को जानने की कोशिश करनी चाहिए जिसके बाद जीवन आसान और सफल हो जाता है। अध्याय 7 हमे इस बात पर विश्वास करने के कारण बताता है की हर जगह, हर पल में इश्वर है। तो इस अध्याय को जरुर पढ़िए। 

क्यों पढ़े भगवद्गीता का अध्याय 8:

मृत्यु के बाद का जीवन मन की वर्तमान स्थिति पर निर्भर करता है इसलिए हमेशा चौकस रहें। हमें इस तरह से व्यवहार करने की कोशिश करनी चाहिए कि मृत्यु के समय हमें सर्वोच्च शक्ति की याद रहे ताकि आसानी से मोक्ष प्राप्त हो सके। यहां 8 वें अध्याय में कृष्ण जी ने मृत्यु के बाद जीवन का रहस्य बताया है कि वर्तमान शरीर छोड़ने के बाद व्यक्ति को किस प्रकार का जन्म मिलता है। यह एक बहुत बड़ा रहस्य है और अगर जीवन में वास्तविक सफलता चाहिए तो हर किसी को यह पाठ अवश्य पढ़ना चाहिए। अनेक रहस्यमई सवालों के जवाब देता है अध्याय 8।

क्यों पढ़े भगवद्गीता का अध्याय 9:

प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर प्राप्ति का अधिकार है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि व्यक्ति किस जाति, धर्म, देश का है। कृष्ण विचारों को साझा कर रहे हैं कि भगवान सोचते हैं कि व्यक्ति इस दिव्य शरीर को प्राप्त करने के बाद भी सर्वोच्च शक्ति प्राप्त करने की कोशिश क्यों नहीं करता है।

भगवान मानव शरीर के महत्व को स्पष्ट कर रहे हैं और दिखा रहे हैं कि केवल इसी शरीर के होने से ही कोई भी दिव्य अवस्था को प्राप्त कर सकता है। इस अध्याय को पढ़कर ये पता चलता है की हमारा शरीर कितना काम का है, कितना दिव्य है।

क्यों पढ़े भगवद्गीता का अध्याय 10:

इस दुनिया में जो कुछ भी अच्छा है वह ईश्वर की उपस्थिति के कारण है लेकिन व्यक्ति सुंदरता और मनोरंजन में उलझ जाता है। व्यक्ति को ईश्वर के बारे में सोचने के लिए चिंतन शक्ति का उपयोग करना चाहिए और कुछ नहीं, यही सफल जीवन का रहस्य है। भगवद् गीता के इस पाठ में यह बात सामने आई है। अध्याय १० को पढके आप ये जान पायेंगे की कैसे इश्वर हर जगह मजूद है और सभी पे कृपा बरसा रहा है। 

क्यों पढ़े भगवद्गीता का अध्याय 11:

ब्रह्मांड ईश्वर की रचना है और इसलिए हर चीज ईश्वर के भीतर है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपने दिव्य दर्शन दिखाए हैं और अर्जुन ने उनके भीतर हर चीज़ को पाया है जैसे कि ब्रह्मा, विष्णु महेश, यक्ष, गन्धर्व, सिद्ध, क्रोध, खतरनाक चीजें इत्यादि। इसे जानने के लिए  दिव्य दृष्टि की आवश्यकता है जो सिर्फ इश्वर कृपा से ही संभव है। लेकिन यह जानकर कि यह ईश्वर है, हम अपने जीवन का उत्थान कर सकते हैं। यह रहस्य भगवद् गीता के अध्याय 11 में दिया गया है।

क्यों पढ़े भगवद्गीता का अध्याय 12:

यहां कृष्ण ने भक्तों के महत्व को बताया है। जो व्यक्ति भगवान को हर वस्तु समर्पित करता है, वह भगवान कृष्ण के अनुसार सबसे अच्छा है। भगवान हर सच्चे भक्त की रक्षा करते हैं इसलिए समता की स्थिति में रहें और भगवान को हमेशा याद रखें। जानिए इस पाठ में भक्ति के रहस्यमई लाभों के बारे में।

क्यों पढ़े भगवद्गीता का अध्याय 13:

केवल एक चीज जो ज्ञात होनी चाहिए वह है सर्वोच्च शक्ति को अमूर्त रूप में जानना (अर्थात तत्त्व  ज्ञान)। जो भगवान को अमूर्त रूप में जानता है उसे सर्वोच्च शक्ति का आशीर्वाद मिलता है और इस जीवन में वास्तविक सफलता मिलती है। अमर होने का रहस्य भगवद् गीता के तेरहवें पाठ में दिया गया है।

क्यों पढ़े भगवद्गीता का अध्याय 14:

14 वें अध्याय में तीन गुणों के बारे में बताया गया है। 3 गुण यानी तमो गुण, राजो गुण और सतो गुण, इन्ही तीनो गुणों के मेल से ही दुनिया बनी है।

गीता के 14 वें अध्याय में ये बताया गया है की ३ गुणों के आधार पे व्यक्ति का व्यक्तित्त्व कैसे प्रभावित होता है। इनको जानकार कोई भी व्यक्ति एक दुर्लभ और उच्च गति हासिल कर सकता है। तो जीवन की इस गुप्त अवधारणा को समझने के लिए इस पाठ को अवश्य पढ़ें।

क्यों पढ़े भगवद्गीता का अध्याय 15:

भगवान इस ब्रह्मांड को दशकों से चला रहे हैं। भगवान इस ब्रह्मांड में होने वाली किसी भी चीज का स्रोत है। तो यह हर एक का कर्तव्य है कि वह ईश्वर की पूजा करे और सर्वोच्च शक्ति को जानने के लिए साधना करे। यही मानव जीवन का रहस्य है। इस अध्याय १५ में हम भगवान की विभिन्न शक्तियों को जान सकते हैं।

क्यों पढ़े भगवद्गीता का अध्याय 16:

व्यक्ति विभिन्न प्रकार के व्यवहार के कारण विभिन्न प्रकार के जन्म लेता है, इसलिए प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह जीवन जीने के लिए और मोक्ष प्राप्त करने के लिए सर्वोत्तम प्रक्रिया अपनाए। यह हर दुख से मुक्त होने का तरीका है।

जो व्यक्ति बुरा करता है, वह नरक को प्राप्त करता है और व्यक्ति अच्छा करता है, स्वर्ग को प्राप्त करता है, इसलिए सब कुछ कर्म पर निर्भर करता है। इसलिए यदि किसी को जन्म, पुनर्जन्म आदि की अवधारणा को समझना है तो उसे भगवद् गीता के 16 वें पाठ को पढ़ना चाहिए।

क्यों पढ़े भगवद्गीता का अध्याय 17:

यहां श्रीकृष्ण द्वारा भक्ति के रहस्यों को साफ किया जाता है। विभिन्न प्रकार के लोगों की भक्ति विभिन्न प्रकार की होती है और उन्हें विभिन्न प्रकार के भोजन से भी पहचाना जा सकता है। तो भगवद गीता के सत्रहवें पाठ में इस रहस्य के बारे में पढ़ें।

क्यों पढ़े भगवद्गीता का अध्याय 18:

जीवन में उत्थान के लिए 3 प्रकार के मार्ग हैं - कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति योग हैं। अपनी प्रकृति और रुचि के अनुसार व्यक्ति किसी भी मार्ग को अपना ले तो निश्चित रूप से जीवन में सफलता मिलेगी। भगवान उस व्यक्ति की रक्षा करते हैं जो भक्ति के साथ कर्तव्यों का पालन करते हैं। भक्त किसी भी पाप और पुण्य से दूर है। इसलिए भगवान पर भरोसा रखिये, सर्वोच्च शक्ति में विश्वास करिए, कर्तव्य निभाइए और एक स्वतंत्र जीवन जी लीजिये, जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करिए।

तो भगवद् गीता किसी भी धर्म से संबंधित नहीं है, यह हर एक के लिए है, यह सफल जीवन जीने के लिए है, यह जीवन को समझाता है, गीता मानव जीवन के रहस्यों को जानने में मदद करता है। इसे पढ़ें और अर्जुन की तरह अपनी शंकाओं को दूर करें।

भगवत गीता में है LIFE मैनेजमेंट की खास बातें, जो आपको जरूर जानना चाहिए

श्रीमद भगवत गीता दुनिया के चंद ग्रंथों में से एक है जो आज भी सबसे ज्यादा पढ़े जाते हैं और जीवन पथ पर कर्मों और नियमों पर चलने की प्रेरणा देते हैं।

श्रीमद भगवत गीता दुनिया के चंद ग्रंथों में से एक है जो आज भी सबसे ज्यादा पढ़े जाते हैं और जीवन पथ पर कर्मों और नियमों पर चलने की प्रेरणा देते हैं। गीता हिन्दुओं में सर्वोच्च माना जाता है, वहीं विदेशियों के लिए आज भी यह शोध का विषय है। इसके 18 अध्यायों के करीब 700 श्लोकों में हर उस समस्या का समाधान मिल जाता है जो कभी न कभी हर इंसान के सामने खड़ी हो जाती है। यदि हम इसके श्लोकों का अध्ययन रोज करें तो हम आने वाली हर समस्या का हल बगैर किसी मदद के निकाल सकते हैं।

आज आपको गीता के उन्हीं सूत्रों से आपको अवगत कराने जा रहा है जो हर मोड़ पर हमें आने वाली समस्याओं से निपटने की प्रेरणा देते हैं। गीता के यही श्लोक सभी के लिए 'लाइफ मैनेजमेंट' का काम करते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण (अर्जुन से) कहते हैं कि तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी मत सोच। इसलिए तू फल को सोचते हुए कर्म मत कर और न ही सोच कि फल की आशा के बिना कर्म क्यों करूं।

कर्म करते समय फल की इच्छा मन में भी न हों

भगवान कृष्ण अर्जुन से जो कह रहे हैं इसका भाव यह है कि मनुष्य को बिना फल की इच्छा से अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा और ईमानदारी से करना चाहिए। यदि कर्म करते वक्त फल की इच्छा मन में हो तो आप पूर्ण निष्ठा के साथ वह कर्म नहीं कर पाएंगे निष्काम कर्म ही सर्वश्रेष्ठ रिजल्ट देता है। इसलिए बिना किसी फल की इच्छा से मन लगाकर अपना काम करते रहना चाहिए। फल देना, न देना व कितना देना ये सभी बातें परमात्मा पर छोड़ दो क्योंकि परमात्मा ही सभी का पालनकर्ता है।

भगवान श्रीकृष्ण (अर्जुन से) कहते हैं कि कर्म न करने का आग्रह त्यागकर, अपयश-यश के विषय में समबुद्धि होकर योगयुक्त होकर, कर्म कर, समत्व को ही योग कहते हैं।

पूजा-पाठ और मंदिर जाना ही धर्म नही

धर्म का अर्थ कर्तव्य से है। अक्सर हम कर्मकांड, पूजा-पाठ, तीर्थ और मंदिरों को ही धर्म समझ बैठते हैं। हमारे ग्रंथों ने कर्तव्य को ही धर्म बताया है।श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपने कर्तव्यों को पूरा करने में कभी अपयश-यश और लाभ-हानि का विचार नहीं करना। बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य पर एकाग्र करके काम करना चाहिए। इससे मन में शांति रहेगी और बेहतर परिणाम मिलेंगे। आज युवा अपने कर्तव्यों में लाभ-हानि को तोलता रहता है। फिर उस कर्तव्य को पूरा करने के बारे में ही सोचता रहता है। कई बार वह तात्कालिक नुकसान देख काम को ही टाल देते हैं, फिर बाद में उससे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ता है।

जो व्यक्ति योग नहीं करता उस व्यक्ति में निश्चय करने की बुद्धि भी नहीं रहती है और उसके मन में किसी के प्रति भावना भी नहीं होती है। ऐसे व्यक्ति को शांति और सुख दोनों ही नहीं मिल पाते हैं।

मन को नियंत्रित रखेंगे तो सुख मिलेगा

हर व्यक्ति चाहता है कि वह सुखी है। सुख की तलाश में वह भटकता रहता है। लेकिन, सुख का मूल तो उसके मन में ही है। जिस मनुष्य का मन इंद्रियों, धन, वासना और आलस्य में लिप्त रहेगा तो उस व्यक्ति के मन में भावना नहीं हो सकती। इसलिए सुख प्राप्त करने के लिए अपने मन पर नियंत्रण बेहद जरूरी है।

जो व्यक्ति सभी इच्छाओं और कामनाओं को त्याग दे और मनता रहित और अहंकार रहित होकर कर्तव्यों का पालन करे उसे ही शांति मिलती है।

कर्तव्य पालन से मिलती है शांति

श्रीकृष्ण भगवान कहते हैं कि अपने मन में कोई भी कामना या इच्छा रहती है तो शांति नहीं मिल सकती। हम जो कर्म करते हैं उसके साथ अपेक्षित परिणाम को साथ में देखने लगते हैं। अपनी पसंद के परिणाम की इच्छा हमें दिन पर दिन कमजोर करने लगती है। मन में ममता या अहंकार आदि भावों को मिटाकर तन्मयता से कर्तव्यों का पालन करने से ही शांति मिलती है।

कोई भी व्यक्ति एक पल के लिए भी बगैर कर्म के नहीं रह सकता। इस संसार के सभी जीव प्रकृति के अधीन हैं। यह प्रकृति हर प्राणी से अपने हिसाब से कुछ न कुछ कर्म जरूर करवा लेती है, साथ में उसके परिणाम भी देती है।

कर्म के प्रति उदासीन न होना

बुरे परिणामों के डर से अगर ये सोच लें कि हम कुछ नहीं करेंगे तो ये हमारी मूर्खता है। खाली बैठे रहना भी एक तरह का कर्म ही है, जिसका परिणाम हमारी आर्थिक हानि, अपयश और समय की हानि के रूप में मिलता है। सारे जीव प्रकृति यानी परमात्मा के अधीन हैं, वो हमसे अपने अनुसार कर्म करवा ही लेगी और उसका परिणाम भी मिलता है। इसलिए कभी भी कर्म के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिए, अपनी क्षमता और विवेक के आधार पर हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिए।

शास्त्रों में बताए गए अपने धर्म के मुताबिक कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है और कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध हो पाएगा।

अपने-अपने धर्म का करें पालन

श्रीकृष्ण कहते हैं कि हर मनुष्य को अपने-अपने धर्म का पालन करते हुए कर्म करना चाहिए। जैसे- विद्यार्थी का धर्म है विद्या को प्राप्त करना, सैनिक का कर्म है देश की रक्षा करना, जो लोग कर्म नहीं करते, उनसे श्रेष्ठ वे लोग होते हैं जो कर्म करते हैं। क्योंकि बिना कर्म किए तो शरीर का पालन-पोषण संभव नहीं होता है। जिस व्यक्ति का जो कर्तव्य तय है उसका पालन करते रहना चाहिए।

जैसा आचरण श्रेष्ठ पुरुष करते हैं उसी प्रकार सामान्य पुरुष भी आचरण करने लगते हैं। जिस कर्म को श्रेष्ठ पुरुष करते हैं, उसी को आदर्श मानकर बाकी लोग अनुसरण करते हैं।

उच्च अधिकारी मेहनत करेंगे तो कर्मचारी भी करेंगे

श्रीकृष्ण ने इस श्लोक में बताया है कि श्रेष्ठ पुरुष को सदैव अपने पद और गरिमा के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए, क्योंकि वे जैसा व्यवहार करेंगे, सामान्य पुरुष भी उसकी नकल करेंगे। उदाहरण यह है कि यदि किसी संस्थान में उच्च अधिकारी पूरी मेहनत और निष्ठा से काम करते हैं, तो वहां के दूसरे कर्मचारी भी वैसे ही मेहनत करते हैं, लेकिन यदि उच्च अधिकारी काम को टालते हैं तो कर्मचारी उनसे भी ज्यादा लापरवाह हो जाते हैं।

जो ज्ञानी पुरुष होते हैं वे कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम या कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे किंतु स्वयं परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुआ और सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसे ही कराए।

कोई भी कितना भटकाए अपने काम पर अटल रहना चाहिए

ये कांपीटिशन का दौर है, हर कोई आगे निकल जाना चाहता है। ऐसे में ज्यादातर संस्थानों में ये होता है कि कुछ चतुर छात्र अपना काम तो पूरा कर लेते हैं, लेकिन अपने साथी को उसी काम को टालने के लिए प्रोत्साहित करते हैं अथवा काम के प्रति उसके मन में लापरवाही का भाव भरने लगते हैं। श्रेष्ठ छात्र वही होता है जो अपने काम से दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन जाता है। संस्थान में उसी छात्र का भविष्य सबसे ज्यादा उज्वल होता है।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो मनुष्य मुझे जिस प्रकार भजता है जिस इच्छा से मेरा स्मरण करता है, उसी के अनुरूप मैं उसे फल देता हूं। सभी लोग सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।

जैसा व्यवहार करेंगे वैसा ही हमारे साथ होगा

इस श्लोक के जरिए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि संसार में जो मनुष्य जैसा व्यवहार दूसरों के साथ करता है, दूसरे भी उसी र्रकार का व्यवहार उसके साथ करते हैं। उदाहरण यह है कि जो लोग ईश्वर का स्मरण मोक्ष प्राप्ति के लिए करते हैं, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। जो किसी अन्य इच्छा से प्रभु का स्मरण करता हैं, उनकी वह इच्छाएं भी प्रभु कृपा से पूरी हो जाती है। कंस ने सदैव श्रीकृष्ण को मृत्यु के रूप में स्मरण किया। इसलिए, श्रीकृष्ण ने मृत्यु प्रदान की। हमें भी परमात्मा को वैसे ही याद करना चाहिए जैसा रूप पाना चाहते हैं।

Bhagwat Geeta : गीता के ये सूत्र बदल देंगे जीवन, कभी नहीं मिलेगी असफलता

अगर आप जीवन में परेशान है, कोई सही मार्ग नहीं मिल पा रहा हो, असफलता के कारण मन दुखी हो तो भगवत गीता ( Bhagwat Geeta ) के केवल इन श्लोकों को भगवान श्री कृष्ण का ध्यान करते हुए पढ़ने से तत्काल मार्गदर्शन मिलने लगता है। जानें भगवत गीता के सफलता दिलाने वाले 9 श्लोक।

1- योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय।
सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।

अर्थ- हे धनंजय (अर्जुन), कर्म न करने का आग्रह त्यागकर, यश-अपयश के विषय में समबुद्धि होकर योगयुक्त होकर, कर्म कर, (क्योंकि) समत्व को ही योग कहते हैं।

2- नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत: सुखम्।।

अर्थ- योगरहित पुरुष में निश्चय करने की बुद्धि नहीं होती और उसके मन में भावना भी नहीं होती। ऐसे भावनारहित पुरुष को शांति नहीं मिलती और जिसे शांति नहीं, उसे सुख कहां से मिलेगा।

3- विहाय कामान् य: कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह:।
निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति।।

अर्थ- जो मनुष्य सभी इच्छाओं व कामनाओं को त्याग कर ममता रहित और अहंकार रहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है, उसे ही शांति प्राप्त होती है।

4- न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै:।।

अर्थ- कोई भी मनुष्य क्षण भर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। सभी प्राणी प्रकृति के अधीन हैं और प्रकृति अपने अनुसार हर प्राणी से कर्म करवाती है और उसके परिणाम भी देती है।

5- नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।

अर्थ- तू शास्त्रों में बताए गए अपने धर्म के अनुसार कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।

6- यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।

अर्थ- श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं, सामान्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करने लगते हैं। श्रेष्ठ पुरुष जिस कर्म को करता है, उसी को आदर्श मानकर लोग उसका अनुसरण करते हैं।

7- न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्म संगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्।।

अर्थ- ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे किंतु स्वयं परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुआ और सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसे ही करावें।

8- ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्या पार्थ सर्वश:।।

अर्थ- हे अर्जुन। जो मनुष्य मुझे जिस प्रकार भजता है यानी जिस इच्छा से मेरा स्मरण करता है, उसी के अनुरूप मैं उसे फल प्रदान करता हूं। सभी लोग सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।

9- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ।।

अर्थ- भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन। कर्म करने में तेरा अधिकार है। उसके फलों के विषय में मत सोच। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो और कर्म न करने के विषय में भी तू आग्रह न कर।

गीता के वे उपदेश, जिन्हें अपनाकर जी सकते हैं तनाव मुक्त जीवन

अपने क्रोध पर काबू रखें। क्रोध से भ्रम पैदा होता है और भ्रम से बुद्धि विचलित होती है। इससे स्मृति का नाश होता है और इस प्रकार व्यक्ति का पतन होने लगता है।

कुरुक्षेत्र के रण में भगवान श्रीकृष्ण ने जो गीता का ज्ञान अर्जुन को दिया था वह संदेश पूरे मानव जाति के लिए उपयोगी है। अगर हम श्रीमद्भगवत गीता के कुछ ज्ञान को हम अपने जीवन में आत्मसात करें तो कई कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी। आप तनाव रहित जीवन का निर्वाह कर पाएंगे।

गीता के उन उपदेशों के बारे में जानते हैं, जो सभी को अपने जीवन में अपनाना चाहिए।

वर्तमान का आनंद लो

1. बीते कल और आने वाले कल की चिंता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जो होना है वही होगा। जो होता है, अच्छा ही होता है, इसलिए वर्तमान का आनंद लो।

आत्मभाव में रहना ही मुक्ति

2. नाम, पद, प्रतिष्ठा, संप्रदाय, धर्म, स्त्री या पुरुष हम नहीं हैं और न यह शरीर हम हैं। ये शरीर अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश से बना है और इसी में मिल जाएगा। लेकिन आत्मा स्थिर है और हम आत्मा हैं। आत्मा कभी न मरती है, न इसका जन्म है और न मृत्यु! आत्मभाव में रहना ही मुक्ति है।

यहां सब बदलता है

3. परिवर्तन संसार का नियम है। यहां सब बदलता रहता है। इसलिए सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय, मान-अपमान आदि में भेदों में एक भाव में स्थित रहकर हम जीवन का आनंद ले सकते हैं।

क्रोध शत्रु है

4. अपने क्रोध पर काबू रखें। क्रोध से भ्रम पैदा होता है और भ्रम से बुद्धि विचलित होती है। इससे स्मृति का नाश होता है और इस प्रकार व्यक्ति का पतन होने लगता है। क्रोध, कामवासना और भय ये हमारे शत्रु हैं।

ईश्वर के प्रति समर्पण

5. अपने को भगवान के लिए अर्पित कर दो। फिर वो हमारी रक्षा करेगा और हम दुःख, भय, चिन्ता, शोक और बंधन से मुक्त हो जाएंगे।

नजरिए को शुद्ध करें

6. हमें अपने देखने के नजरिए को शुद्ध करना होगा और ज्ञान व कर्म को एक रूप में देखना होगा, जिससे हमारा नजरिया बदल जाएगा।

मन को शांत रखें

7. अशांत मन को शांत करने के लिए अभ्यास और वैराग्य को पक्का करते जाओ, अन्यथा अनियंत्रित मन हमारा शत्रु बन जाएगा।

कर्म से पहले विचार करें

8. हम जो भी कर्म करते हैं उसका फल हमें ही भोगना पड़ता है। इसलिए कर्म करने से पहले विचार कर लेना चाहिए।

अपना काम करें

9. कोई और काम पूर्णता से करने से कहीं अच्छा है कि हम अपना ही काम करें। भले वह अपूर्ण क्यों न हो।

समता का भाव रखें

10. सभी के प्रति समता का भाव, सभी कर्मों में कुशलता और दुःख रूपी संसार से वियोग का नाम योग है।

Bhagavad Gita Quotes in Hindi – भगवत गीता के अनमोल वचन

श्रीमद भगवद गीता हिंदुओं का एक ऐसा सर्वश्रेष्ठ धर्मग्रंथ है, जो की हम लोगों को एक सही दिशा में जाने के लिए प्रेरित करती है।

भागवत गीता लोगों को सही दिशा में मार्गदर्शन करती है और उन्हें गलत रास्ते में जाने से रोकती है।

इसमें जो उपदेश बताए गए है वो भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं कुरूक्षेत्र के युद्ध के दौरान अर्जुन को बताए थे।

जब महाभारत का युद्ध हुआ था, तब अर्जुन अपनों के खिलाफ युद्ध करने से मना कर रहे थे तो भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता के उपदेशों के माध्यम से धर्म और कर्म के सच्चे ज्ञान से अवगत कराया था।

आज श्रीमद् भागवत गीता के उपदेश हमारे देश में ही नही बल्कि विदेशों में भी लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हो रही है।

तो आइए पढ़ते है आज Bhagavad Gita Quotes in Hindi जो कि आपको जीवन में आगे बढ़ने के लिए हमेशा प्रेरित करते है।

1. जो हुआ वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है वह अच्छा हो रहा है, जो होगा वो भी अच्छा ही होगा।

2. हे अर्जुन ! तुम्हारा क्या गया जो तुम रोते हो, तुम क्या लाए थे जो तुमने खो दिया, तुमने क्या पैदा किया था जो नष्ट हो गया, तुमने जो लिया यहीं से लिया, जो दिया यहीं पर दिया, जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का होगा, क्योंकि परिवर्तन ही संसार का नियम है।

3. जीवन न तो भविष्य में है, न अतीत में है, जीवन तो बस इस पल में है।

4. जन्म लेने वाले के लिए मृत्यु उतनी ही निश्चित है, जितना कि मरने वाले के लिए जन्म लेना। इसलिए जो अपरिहार्य है, उस पर शोक नही करना चाहिए।

5. कोई भी व्यक्ति जो चाहे बन सकता है, यदि वह व्यक्ति एक विश्वास के साथ इच्छित वस्तु पर लगातार चिंतन करें।

6. मैं सभी प्राणियों को एकसमान रूप से देखता हूं, मेरे लिए ना कोई कम प्रिय है ना ही ज्यादा, लेकिन जो मनुष्य मेरी प्रेमपूर्वक आराधना करते है, वो मेरे भीतर रहते है और में उनके जीवन में आता हूं।

7. मनुष्य अपने विश्वास से निर्मित होता है, जैसा वह विश्वास करता है, वैसा वह बन जाता है।

8. फल की अभिलाषा छोड़कर कर्म करने वाला पुरुष ही अपने जीवन को सफल बनाता है।

9. हे अर्जुन ! क्रोध से भ्रम पैदा होता है, भ्रम से बुद्धि व्यग्र होती है, जब बुद्धि व्यग्र होती है, तब तर्क नष्ट हो जाता है, जब तर्क नष्ट होता है तब व्यक्ति का पतन हो जाता है।

10. मेरा तेरा, छोटा बड़ा, अपना पराया, मन से मिटा दो, फिर सब तुम्हारा है और तुम सबके हो।

11. सदैव संदेह करने वाले व्यक्ति के लिए प्रसन्नता न इस लोक में है और न ही परलोक में।

12. जो लोग मन को नियंत्रित नही करते है, उनके लिए वह शत्रु के समान काम करता है।

13. नरक के तीन द्वार होते है - वासना, क्रोध और लालच।

14. हे अर्जुन ! हम दोनों ने कई जन्म लिए है, मुझे याद है लेकिन तुम्हें नही।

15. हे अर्जुन ! जो कोई भी व्यक्ति जिस किसी भी देवता की पूजा विश्वास के साथ करने की इच्छा रखता है, में उस व्यक्ति का विश्वास उसी देवता में दृढ़ कर देता हूं।

16. हे अर्जुन ! मन अशांत है और इसे नियंत्रित करना कठिन है, लेकिन अभ्यास से इसे वश में किया जा सकता है।

17. वह व्यक्ति जो सभी इच्छाएं त्याग देता है और ‘में’ और ‘मेरा’ की लालसा और भावना से मुक्त हो जाता है, उसे अपार शांति की प्राप्ति होती है।

18. धरती पर जिस प्रकार मौसम में बदलाव आता है, उसी प्रकार जीवन में भी सुख-दुख आता जाता रहता है।

19. इतिहास कहता है कि कल सुख था, विज्ञान कहता है कि कल सुख होगा, लेकिन धर्म कहता है, अगर मन सच्चा और दिल अच्छा हो तो हर रोज सुख होगा।

20. जो होने वाला है वो होकर ही रहता है, और जो नहीं होने वाला वह कभी नहीं होता, ऐसा निश्चय जिनकी बुद्धि में होता है, उन्हें चिंता कभी नही सताती है।

21. समय से पहले और भाग्य से अधिक कभी किसी को कुछ नही मिलता है।

22. जो व्यवहार आपको दूसरों से पसंद ना हो, ऐसा व्यवहार आप दूसरों के साथ भी ना करें।

23. जब जब इस धरती पर पाप, अहंकार और अधर्म बढ़ेगा, तो उसका विनाश कर पुन: धर्म की स्थापना करने हेतु, में अवश्य अवतार लेता रहूंगा।

24. हे अर्जुन ! में भूतकाल, वर्तमान और भविष्यकाल के सभी जीवों को जानता हूं, लेकिन वास्तविकता में कोई मुझे नही जानता है।

25. केवल व्यक्ति का मन ही किसी का मित्र और शत्रु होता है।

26. वह व्यक्ति जो अपनी मृत्यु के समय मुझे याद करते हुए अपना शरीर त्यागता है, वह मेरे धाम को प्राप्त होता है और इसमें कोई शंशय नही है।

27. अच्छे कर्म करने के बावजूद भी लोग केवल आपकी बुराइयाँ ही याद रखेंगे, इसलिए लोग क्या कहते है इस पर ध्यान मत दो, तुम अपना काम करते रहो।

28. मनुष्य को परिणाम की चिंता किए बिना लोभ- लालच और निस्वार्थ और निष्पक्ष होकर अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।

29. मानव कल्याण ही भगवत गीता का प्रमुख उद्देश्य है, इसलिए मनुष्य को अपने कर्तव्यों का पालन करते समय मानव कल्याण को प्राथमिकता देना चाहिए।

30. मनुष्य को जीवन की चुनौतियों से भागना नहीं चाहिए और न ही भाग्य और ईश्वर की इच्छा जैसे बहानों का प्रयोग करना चाहिए।

31. परिवर्तन ही संसार का नियम है, एक पल में हम करोड़ों के मालिक हो जाते है और दुसरे पल ही हमें लगता लगता है की हमारे आप कुछ भी नही है।

32. अपने आपको भगवान के प्रति समर्पित कर दो, यही सबसे बड़ा सहारा है, जो कोई भी इस सहारे को पहचान गया है वह डर, चिंता और दुखो से आजाद रहता है।

33. न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के मालिक हो, यह शरीर 5 तत्वों से बना है – आग, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश, एक दिन यह शरीर इन्ही 5 तत्वों में विलीन हो जाएगा।

34. कोई भी इंसान जन्म से नहीं बल्कि अपने कर्मो से महान बनता है।

35. जब इंसान अपने काम में आनंद खोज लेते हैं तब वे पूर्णता प्राप्त करते है।

36. तुम क्यों व्यर्थ में चिंता करते हो? तुम क्यों भयभीत होते हो? कौन तुम्हे मार सकता है? आत्मा न कभी जन्म लेती है और न ही इसे कोई मार सकता है, ये ही जीवन का अंतिम सत्य है।

37. हे अर्जुन ! मैं धरती का मधुर सुगंध हूँ, मैं अग्नि की ऊष्मा हूँ, सभी जीवित प्राणियों का जीवन और सन्यासियों का आत्मसंयम भी मैं ही हूँ।

38. मन की गतिविधियों, होश, श्वास, और भावनाओं के माध्यम से भगवान की शक्ति सदा तुम्हारे साथ है।

39. हे अर्जुन ! प्रबुद्ध व्यक्ति के लिए, गंदगी का ढेर, पत्थर, और सोना सभी समान है।

40. हे अर्जुन ! बुद्धिमान व्यक्ति को समाज कल्याण के लिए बिना आसक्ति के काम करना चाहिए।

Vastu Shastra Benefits (वास्तु शास्त्र के लाभ)

वास्तु शास्त्र के लाभ (Vastu Shastra Benefits): वास्तु शब्द ‘वस्तु’ शब्द से बना है। अत: कोई भी योजना एवं निर्मित वस्तु ‘वास्तु’ के अंतर्गत आती है। कठोपनिषद में कहा है- “अजोरजीयान्मह्तो महीयानात्मास्य” अर्थात चाहे कोई वस्तु (Vastu Shastra Benefits) अत्यंत बड़ी हो या अत्यंत छोटी उसका निर्माण पंचमहाभूतों से ही हुआ है। इनको (वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी और आकाश) अधिक से अधिक प्राक्रतिक स्त्रोतों से कैसे पाया जाए, यह सब वास्तु कला में निहित है।

भगवद्गीता के तीसरे अध्याय के श्लोक 27 में कहा गया है –

प्रक्रते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहंकारविमूढात्मा कतहिमिति मन्यते ॥

अर्थात् समस्त क्रम प्रक्रति के गुणों द्वारा ही सम्पादित होते है, लेकिन फिर भी अहंकार से मोहित हुए अंत: करण वाला पुरुष यह मान लेता है, कि मैं कर्ता हूँ।

ऋग्वेद में कई स्थलों पर ‘वास्तोस्पति’। नामक देवता का उल्लेख मिलता है। गृह निर्माण से पूर्व इस देवता का आवाहन किया जाता था। परवर्ती वास्तु-साहित्य में त्वष्ट्रा को एक कुशल कारीगर माना गया है। वैदिक साहित्य में ग्राम, पुर, दुर्ग, गढ़ या प्राकार, गृह, वेदिका, तोरण, यूप(स्तम्भ), शब्दों का प्रयोग बहुतायत में मिलता है। इनसे ज्ञात होता है कि वैदिक काल में वास्तु-विद्या का प्रचलन था। भवन निर्माण के चार मुख्य कारण है –

  • पहला – विभिन्न आवश्यकताओं के अनुरूप भवन की योजना।
  • दूसरा – आराम और सुविधा के अनुरूप उपयुक्त आकार-प्रकार का चयन।
  • तीसरा – बाह्य एवं अंत: साज-सज्जा।
  • चौथा – संरचनात्मक विकास जो कि तकनीकी पक्ष से सम्बन्ध है।

प्रथम प्रवर्तक विश्वकर्मा:

भगवान “विश्वकर्मा” को वास्तुशास्त्र (Vastu Shastra Benefits) का प्रथम प्रवर्तक एवं आचार्य माना जाता है। दक्षिण भारत में लोक-प्रचलित समरांगण सूत्रधार में एक कथा आती है जो इस प्रकार है –

ब्रह्मा ने सृष्टि के बाद संसार बनाने की योजना का प्रारूप बनाने का सम्पूर्ण भार महाराजा पृथु को सौंप दिया था। परन्तु पृथु राजा होने के कारण स्थापत्य कैसे करते? वे पितामह के पास पहुंचे। उधर वसुंधरा (पृथ्वी) भी ब्रह्मा के पास पहुंची। दोनों की बातें सुनकर ब्रह्मा ने विश्वकर्मा को बुलाया और संसार के निर्माण का कार्य उन्हें सौंपा। विश्वकर्मा ने अब तक देवपुरियों का निर्माण किया था। संसार के निर्माण हेतु ही उन्होंने वास्तुशास्त्र (Vastu Shastra Benefits) के सिद्धांत बनाए। उन्होंने कहा – ‘वास्तुविद को सामुद्रिक, गणित, ज्योतिष और छंद का ज्ञान अवश्य करना चाहिए।’ विश्वकर्मा देवताओं के वास्तुविद थे। जो बाद में भूवासियों के लिए प्रथम वास्तु (Vastu Shastra Benefits) प्रवर्तक बने।

वास्तु शास्त्र लाभ (Vastu Shastra Benefits):

भारतीय दर्शन मनुष्य के चार लक्ष्य बताता है – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। समस्त भारतीय शास्त्रों का परम लक्ष्य इनको प्राप्त करने का मार्ग बताना है। इन चारों की प्राप्ति के लिए शरीर मन और बुद्धि का अनुकुल होना अनिवार्य है अर्थात शरीर स्वस्थ होगा, मन स्थिर होगा और बुद्धि निर्मल होगी तो इनकी प्राप्ति सहज में हो सकेगी। ऐसा तभी सम्भव है जब भवन अव्यक्त ऊर्जाओं को ध्यान में रखकर निर्मित किया जायेगा। भारतीय दर्शन का एक छोर सृष्टि विज्ञान है और दूसरा आत्म-ज्ञान।

सृष्टि विज्ञान विश्व की रचना, स्थिति एवं प्रलय के सिद्धांत एवं क्रम का निरूपण करते हुए यह भी स्पष्ट करता है कि मानव का इससे क्या सम्बन्ध है? सृष्टि की अपनी संरचना, गति एवं नियति है। संरचना से तात्पर्य यही है कि सृष्टि के समस्त अंग (सूर्य, चन्द्रमा व अन्य ग्रहादि, पृथ्वी व इसके पशु-पक्षी, वृक्ष और मनुष्य आदि) है। गति से तात्पर्य यह है कि सृष्टि की समस्त वस्तुएं निरंतर परिवर्तनशील है, परन्तु यह (परिवर्तन) व्यवस्थित और क्रमबद्ध है। सृष्टि की संरचना और गति ही इसकी नियति है जिसका नियंता ईश्वर है।

समस्त जीव ऋतुओं के परिवर्तन एवं पर्यावरण के उतार-चढाव के प्रभाव को संवेदनशील होने के कारण एक निश्चित सीमा तक ही सह सकते है। प्रत्येक प्राणी अपनी सुरक्षा हेतु आश्रय बनाता है, आश्रय का अर्थ उस स्थान से है जहां प्राणी रहता है। जलचर एवं थलचर अपनी सुविधानुसार स्थान परिवर्तित कर लेते है जबकि मनुष्य ने अपने समन्वित विकास हेतु भवन रूपी आश्रय की व्यवस्था की और इसके लिए समय-समय पर अनेक सिद्धांत बनाए। इन सिद्धांतों का लक्ष्य यही था – ऐसा उत्तम भवन बने जो मानव की विविध आवश्यकताओं की पूर्ति सहित शान्ति एवं सम्पन्नता प्रदान कर सके।

भारतीयों ने वास्तु (Vastu Shastra Benefits) को एक धार्मिक कृत्य माना। उन्होंने वास्तु कला को विभिन्न खोजों के उपरान्त वैज्ञानिकता के साथ साथ धार्मिक आधार प्रदान किया ताकि सभी लोग वास्तु के सिद्धांतों को ग्रहण करते रहें। हजारों बरसों से अनेकानेक उतार चढावों के पश्चात हम आज भी शास्त्र निहित वास्तु (Vastu Shastra) सिद्धांतों से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए है तभी तो भवन निर्माण से पूर्व भूमि पूजन करते है और ग्रह प्रवेश के लिए शुभ मुहूर्त निकालते है। भारतीय मनुष्यों ने वास्तुशास्त्र (Vastu Shastra Benefits) को धर्म एवं ज्योतिष का एक अंग माना है, परन्तु फिर भी इसके सिद्धांत विज्ञान की कसौटी पर सत्य सिद्ध होते है। जिन्होंने वास्तुशास्त्र (Vastu Shastra)के सिद्धांतों का पालन किया हैं उनमें से अधिकाँश स्वस्थ सुखी एवं शांत है। दक्षिण भारत में वास्तु सिद्धांतों का प्रचलन अधिक है और वहां के लोग इन्हें व्यवहार में भी लाते है जिस कारण उनका जीवन अधिक शान्तिप्रद है।

ग्राम, नगर और गृह निर्माण की चर्चा जिसमें हो उसे वास्तुशास्त्र (Vastu Shastra) कहते है। वास्तु सिद्धांतों के आधार और निर्मित भवन या इनके आधार पर भवनों को वास्तु दोष से मुक्त कर देने पर ये सुख-शान्ति व समृद्धिकारक होते है। यह जान लें कि गृहस्थ के कोई भी कार्य अपने गृह (भवन) आवास (घर) में शुभ होते है। दूसरे के घर में किये गए कर्म शुभफलदायी नहीं होते है? वस्तुत: गृहस्थ के लिए आवास का बनाना आवश्यक है।

वास्तु विकास (Vastu Shastra Development):

भारतीय वास्तुविद्या का जन्म वैदिक काल में ही हुआ, लेकिन इसका रूप वेदान्तों के समय में स्थिर हुआ। पुराणों और आगमों में इसका विकास हुआ। बाद में वास्तुविद्या के आचार्यो ने उसे एक अलग शास्त्र का रूप प्रदान किया।

वैदिक काल से 13वीं शताब्दी तक भारतीय वास्तुशास्त्र (Vastu Shastra Development) की दशा और दिशा अच्छी रही, परन्तु बाद में निरंतर यह भटकता रहा और धीरे-धीरे विस्म्रति की गर्त में चला गया। भटकाव और उपेक्षा के बाद जो वास्तुशास्त्र (Vastu Shastra Development) हमें प्राप्त हुआ है, उसे समझना सरल नहीं है। प्रसिद्ध वास्तु विद्वान् द्विजेन्द्र नाथ शुक्ल कहते है- वास्तुशास्त्र (Vastu Shastra Development) की न कोई व्याख्या है और न कोई कोश।

गुरु शिष्य की परम्परा भी अविदमान है। यद्यपि दक्षिण भारत के शिल्पी आज भी मयमत या विश्वकर्मीय वास्तु के सिद्धांतों का अनुकरण करते है। अनेक शिल्पियों को वास्तु सिद्धांत कंठस्थ है, पर वे उनकी न तो शास्त्रीय व्याख्या कर सकते है और न भाषा ही समझते है। यह शास्त्र पितृ-पितामहगत है। यह अवश्य है सभी थोड़े-बहुत ज्ञाता है, शेष तो कर्म का कौशल अभ्यास जन्य होता है नाकि शास्त्र-जन्य। वास्तुशास्त्र के जो ग्रन्थ विगत शताब्दियों में प्राप्त हुए है, उनकी व्याख्या तो नगण्य है।

वास्तुशास्त्र (Vastu Shastra) के उदभावकों में विश्वकर्मा तथा मय के नाम अधिक लोकप्रिय थे। विश्वकर्मा को देवों का स्थापित या देव-वास्तु प्रवर्तक माना गया। मय असुर-वास्तु-प्रवर्तक के रूप में जगत प्रसिद्ध हुए। भारत में स्थापत्य विषयक दोनों धारणाएं साथ साथ विकसित होती रहीं। कालान्तर में उनके विभिन्न तत्व एक दूसरे में घुलमिल गए, लेकिन फिर भी कतिपय मौलिक अंतर दीर्घकाल तक विद्यमान रहा।

वास्तुशास्त्र (Vastu Shastra) विषयक ग्रन्थों की सूचि विस्तृत है। शास्त्रीय ग्रन्थों के अतिरिक्त वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत, अष्टाध्यायी, अर्थशास्त्र, जैन तथा बौद्ध ग्रन्थ, आगम, तन्त्र, पुराण एवं ब्रहत्संहिता अदि ग्रन्थों में वास्तु-विषयक सामग्री यत्र-तत्र वर्णित है।

वास्तु वैदिक साहित्य (Vedic Vastu Shastra):

भारतीय साहित्य में ऋग्वेद सबसे अधिक प्राचीन है। उसमें वास्तु या स्थापत्य सम्बन्धी अनेक उल्लेख मिलते है। उनसे ज्ञात होता है ईसा पूर्व द्वितीय सहस्त्राब्दी के पूर्व भारतीयों को भवन निर्माण का सर्वाधिक ज्ञान था। चारों वेदों तथा परवर्ती वैदिक साहित्य में ऐसे उल्लेख प्राप्त होते है जो स्थापत्य व वास्तु के विविध अंगों पर प्रकाश डालते है। ऋग्वेद तथा अथर्वेद में भवन विन्यास का जो रूप उपलब्ध है उसकी परम्परा भारत में निरन्तर जारी रही।

वैदिक साहित्य से ज्ञात होता है कि भवन निर्माण कला में सादगी एवं सुरुचि थी। लोगों का जीवन सादा था इसलिए निवास गृहों में आडम्बर आवश्यक न समझा जाता था। सौन्दर्य बौद्ध-वैदिक आर्यों में विधमान था। इसका ज्ञान ऋग्वेद एवं परवर्ती वैदिक साहित्य से होता है।

वास्तु का रूप (Shape of Vastu):

वास्तु या स्थापत्य को ललित कला कहा गया है। भारतीय परम्परा में वास्तु को वेदांग से समुद्रभूत कहा गया है। इसका विशेष सम्बन्ध ज्योतिष एवं कल्प से जोड़ा गया है। मूलतः स्थापत्य भवन-निर्माण कला है। ‘भवन’ मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है और आज बढती जनसंख्या को द्रष्टिगत करें तो आवास की समस्या महत्वपूर्ण है।

आदि से ही मानव को जीवन रक्षा हेतु किसी आश्रय की आवश्यकता पड़ी। प्रारम्भ में वृक्ष, शाखाएं, पर्वत व पहाड़ की कन्दराएँ या गुफाएं उसके आश्रय बने। कालान्तर में मानव द्वारा प्राक्रतिक गुफाओं के अतिरिक्त स्वत: ही पहाड़ों को काट-छांटकर आश्रय के लिए गुफाएं बनाई जाने लगीं।

मानव सभ्यता के विकास के साथ निवास में भी परिवर्तन आया। कन्दराओं व गुफाओं को छोड़कर मानव समतल भूमि पर आ बसा। अपने निवास के लिए उसने पत्थर, मिट्टी और लकड़ी के द्वारा घर बनाए। तभी से संघटित जीवन की परम्परा आरम्भ हुई, जिसने ग्रामो, पुरों और नगरों को जन्म दिया। शनै:-शनैः भवन निर्माण विकसित सभ्यता का एक प्रमुख अंग बन गया।

भवन निर्माण में भी भू-चयन, मापन और संस्कार आदि तत्व भी विकसित हुए। धीरे-धीरे आश्रय या निवास के अतिरिक्त पूजा पाठ के लिए भी भवनों की आवश्यकता पड़ने लगीं, इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए मंदिरों का निर्माण होने लगा। भारतीय धार्मिक वास्तु का इतिहास तो अत्यंत रोचक है। इसी आवश्यकताओं के अनुरूप वास्तु ने लौकिक वास्तु एवं धार्मिक वास्तु में दो रूप ग्रहण कर लिए।

लौकिक वास्तु मानव की अपनी मूलभूत आवश्यकता आश्रय के लिए भवन निर्माण के रूप में विकसित हुआ। धार्मिक वास्तु के विकास में धार्मिक कारण प्रधान था, इसके मूल में प्रतिमा पूजन के साथ साथ इष्ट देवों मृत राजाओं तथा प्रिय कुटुम्बियों की मूर्तियों को सुरक्षित रखने की आकांशा थी। मानव ने अकेले या सामूहिक रूप में प्रार्थना करने हेतु खुले स्थान की अपेक्षा आवेष्टित या परिवृत्त स्थान अधिक उपयुक्त समझा।

वास्तु प्रयोग (Use of Vastu Shastra):

वास्तुशास्त्र (Vastu Shastra Applications) का पहला प्रयोग ऋग्वेद के सूत्रों में मिलता है। सिन्धुघाटी की सभ्यता के निष्कर्ष बताते है कि उस काल में वास्तुशास्त्र (Vastu Shastra) अपने चरमोत्कर्ष पर थी। वैसे भी भारतीय वास्तुशास्त्र (Indian Vastu Shastra) का उदभव वेदांग से माना गया है। चारों वेदों के चार ही उपवेद लिखे गए है। चार उपवेदों में एक स्थापत्य वेद भी था। इस स्थापत्य को ही अन्य शब्दों में वास्तु कहते है।

Er. Rameshwar Prasad invites you to the Wonderful World of Indian Astrology.

Engineer Rameshwar Prasad

(B.Tech., M.Tech., P.G.D.C.A., P.G.D.M.)

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