A Multi Disciplinary Approach To Vaastu Energy

वास्तु के पंचमहाभूत - तत्व (Five Elements)

पंच-तत्व एवं वास्तु शास्त्र (Panchtatva and Vastu Shastra)

वास्तुशास्त्र हमारे भारत की प्राचीनतम वैज्ञानिक विधाओं में से एक हैं। ‘वास्तु’ का अर्थ है प्रकृति और हमारे आसपास के वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करना। मौजूदा दौर में देखा गया है कि जितने भी नए भवन निर्माण हो रहें हैं, उनमें वास्तु के सिद्धांतों का पालन किया जा रहा है, क्योंकि लोगों को समझ आ गया है कि जो भी निर्माण भवन स्थापत्य कला के अनुरूप नहीं हैं, वहां लोगों को तमाम तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। मसलन, तमाम तरह की बीमारियां, परिवार में सामंजस्य की कमी, विचारों में मतभेद, धन की कमी एवं कलह आदि। ऐसे में वास्तुशास्त्र भवन, मनुष्य और आसपास के वातावरण में संतुलन स्थापित करता है।

प्रत्येक मनुष्य अपने निवास स्थान और अपने कार्य क्षेत्र को ऐसा बनाना चाहता है कि वह उसमें सुखी तथा संतुष्ट रह सके। इसके लिए उस स्थान पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव डालती शक्तियों को पूरी तरह समझना व उन्हें नियंत्रित करना आवश्यक है। वास्तु ज्ञान के प्रयोग से स्थान की प्रकृति व वहाँ उपस्थित तत्वों की शक्तियों को नियंत्रित करके शुभ प्रभाओं में वृद्धि एवं अशुभ प्रभाओं में कमी लाई जा सकती है।

कोई भी वस्तु पंचमहाभूत से निर्मित है। इन्हीं पंच महाभूत तत्वों के गुण सम्मिलित होकर किसी स्थान को प्रभावित करते हैं। वास्तु को समझने के लिए इन पंच महाभूतों का एक संक्षिप्त परिचय आवश्यक है।

ब्रह्मांड की हर वस्तु मूल रूप से पंच तत्वों- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी के निश्चित अनुपात में मिश्रण के अनंत संयोगों से बना है। इन्हीं पाँचों तत्वों को पंच महाभूत कहा गया है। अपने अंदर, अपने आसपास, अपने आवास में, अपने विचार में, इन्हीं पंचमहाभूतों में सामंजस्य स्थापित करने से वांछित शक्ति, शांति और सुख की प्राप्ति होती है। वास्तुशास्त्र इन्हीं पाँचों मौलिक तत्वों में पूर्ण सामंजस्य स्थापित करा कर सहज लाभ प्राप्त कराने में हमारी मदद करता है।

मत्स्य पुराण के अनुसार कर्ण, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका, ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध क्रमशः इनके विषय हैं।

ये विषय ही बुद्धि के गुण हैं जिनका समावेश मन में होता है जो सर्वोपरि इंद्रिय है। जब मन में पूजन करने की इच्छा जागृत होती है तो मन सृष्टि करता है जिससे ओंकार का जन्म होता है। यह ओंकार ही आकाश है। ओंकार यानी आकाश का गुण ध्वनि है। आकाश की विकृति से वायु की समुत्पत्ति होती है। वायु के गुण हैं ध्वनि और स्पर्श। वायु के इन गुणों के प्रादुर्भाव से तेज उत्पन्न होता है। तेज अर्थात अग्नि तत्व में शब्द और स्पर्श के साथ रूप का गुण भी आ जाता है। तेज के विकार से जल की उत्पत्ति होती है जिसमें शब्द, स्पर्श और रूप के साथ रस का गुण भी सम्मिलित हो जाता है। जल की तन्मात्रा से भूमि तत्व उत्पन्न होता है जिसमें पाँचों ज्ञानेन्द्रियों द्वार ग्राह्य पाँचों गुण शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध होते हैं। यही बुद्धि है, ज्ञान है जिसे मनुष्य अपने ज्ञानेन्द्रियों से भोगता है।

समरांगण सूत्रधार के अनुसार ब्रह्मा ने जब प्रजा-सृष्टि आरंभ किया तो विश्व के कारण-स्वरुप महान अर्थात महत् की सृष्टि हुई। तदुपरान्त महत् से तीन प्रकार के अहंकार की सृष्टि हुई। महत के सात्विक विचार से मन, राजस से इन्द्रियाँ और तामस से तन्मात्राएँ उत्पन्न हुई। पुनः तन्मात्राओं से पंच महाभूतों - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश की उत्पत्ति हुई। यह ब्रह्मांड जिसमें पंच तत्व स्थित हैं वह महत से व्याप्त है और महत व्यक्त में प्रवेश करता है पुनः व्यक्त अव्यक्त में प्रवेश कर जाता है। इस प्रकार यह व्यक्त ही ग्राह्य और ग्राहक भाव से भूतों का उत्पादक माना गया है।

स्पष्ट है कि मनुष्य का ज्ञान वही है जो उसकी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ग्राह्य है। ये ग्राह्य विषय ही पंच तत्वों का बोध करते हैं। ब्रह्मांड की हर वस्तु में इन्हीं पाँच तत्वों का बोध संभव है। अतः वास्तुशास्त्र में इन्हें ही मौलिक तत्व की संज्ञा दी गई है।

आकाश तत्व यानी विस्तार, स्थान, या शून्य का होना है। भारतीय दर्शन में इसे अलग-अलग शब्दों में परिभाषित किया गया है। इसे देखा नहीं जा सकता, स्पर्श नहीं किया जा सकता, इसमें सुगंध या स्वाद भी नहीं होता परन्तु इन सबके पश्चात भी यह सर्वत्र व्याप्त है। आयुर्वेद में इसे ध्वनि की संज्ञा दी गई है। यह ब्रह्मांड का वह आध्यात्मिक सत्व है जिसमें सारी प्रक्रियाएँ होती है। इसका न आदि है न ही अंत।

आकाश वह अनंत क्षेत्र है जिसमें सारे नक्षत्र, सूर्य, आकाशगंगा, सम्पूर्ण ब्रह्मांड समाया हुआ है। इसकी मुख्य विशेषता ध्वनि है। वास्तुशास्त्र में आकाश का आशय भवन का खुला भाग है। यह भवन का आँगन है जिसे ब्रह्म स्थान माना गया है। इस स्थान के कारण भवन में नैसर्गिक ऊर्जा का प्रवाह निर्बाधित रूप से होता रहता है। जिस प्रकार ब्रह्मांड में आकाश का महत्व है उसी प्रकार भवन में खुले स्थान का महत्व है। भवन में खुले स्थान की आवश्यकता, मात्रा और दिशा-स्थिति का एक सामंजस्य होता है। वास्तु के अनुसार यह सामंजस्य ही भवन में सही ऊर्जा संचार सहायक होता है जो भवन निवासी को लाभान्वित करता है। घर में आकाश तत्व बौद्धिक विचारों का संचार करता है। यह हर वस्तु को अपनी प्रकृति के अनुसार क्रिया-कलाप करने के लिए पर्याप्त स्थान प्रदान करता है।

आकाश तत्व विस्तार, फैलाव, प्रसार का प्रतीक है। ये आकाश ही है जिसमे सितारें, गृह, उपग्रह और अन्य खगोलीय पिंड मौजूद हैं। घर में आकाश तत्व की उपस्थिति से तात्पर्य खुलेपन से है। यानि की घर में जितना खुलापन होगा, प्रकाश की व्यवस्था होगी उतनी ही मात्र में घर में आकाश तत्त्व विद्यमान रहेगा। चूँकि आकाश तत्त्व ब्रह्मस्थान का प्रतिनिधित्व करता है अतः घर के ब्रह्मस्थान में अगर संभव हो तो छत का कुछ हिस्सा खुला छोड़ना चाहिए जिस प्रकार से पुराने समय में बनने वाले मकानों में घर के बीच में स्थित चौक के ऊपर की छत को खुला छोड़ा जाता था।

आकाश तत्व की अधिकता जिस घर में होती है। उस घर के लोग कभी अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं होते हैं। इनके पास सब कुछ होते हुए भी अधिक की चाह में कई बार ये गलत राह पकड़ लेते हैं। इस घर के युवक-युवतियां अपने परिवार की मर्जी के खिलाफ जाकर विवाह करते हैं। इस घर के बुजुर्ग पर्याप्त सम्मान पाते हैं। आर्थिक स्थिति मजबूत रहती है, लेकिन परिजनों को कोई न कोई रोग लगा रहता है, जिस पर खर्च अधिक करना होता है। कभी कभी ऐसे घरों में रहने वाले दंपतियों में विवाह विच्छेद जैसी स्थिति भी देखी जाती है।

वर्तमान समय में सुरक्षा कारणों से अधिकांश घरों में इस तरह की व्यवस्था नहीं मिलती है। तो ऐसे में घर का निर्माण इस प्रकार किया जाना चाहिए की किसी अन्य स्थान से प्रकाश ना सिर्फ घर के ब्रह्मस्थान में पहुँच सके बल्कि अन्य स्थानों पर भी प्रकाश की मौजूदगी रहे। जहाँ प्रकाश पहुंचेगा वहाँ पर आकाश तत्त्व की उपस्थिति भी हो ही जायेगी। इसके अलावा भी वास्तु शास्त्र में आकाश तत्त्व के संतुलन को साधने के लिए पर्याप्त उपाय दिए गए है।

आकाश तत्व के संतुलन के लिए निम्न व्यवस्था रखे –

  • अगर संभव हो तो ब्रह्मस्थान के ऊपर का कुछ हिस्सा खुला रखे।
  • घर की प्रत्येक दिशा से आकाश का नजर आना।
  • प्रकाश की समुचित व्यवस्था।
  • घर में अँधेरा नहीं रखना (रात्रि विश्राम के समय को छोड़कर)।

वास्तु शास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार आकाश तत्व के संतुलित होने पर आपमें अपने भविष्य को सही दिशा में ले जाने की क्षमता आ जाती है, आप अपनी जिन्दगी को बेहतर तरीके से व्यवस्थित कर पाते है। इसके साथ ही आपमें नए अवसरों को पहचानने की समझ भी विकसित होती है।

वायु तत्व की व्यापकता पर जीवन निर्भर है। इसमें रूप, रस और गंध नहीं है। तत्व रूप में इसकी मुख्य विशेषता ध्वनि और स्पर्श है। मौलिक रूप में यह पृथ्वी को हजारों मील तक घेरे हुए है। यह ध्वनि और ऊर्जा के प्रवाह का माध्यम है।

वास्तुशास्त्र में वायु तत्व के लिए उत्तर-पश्चिम अर्थात वायव्य कोण निश्चित है। भवन में सकारात्मक ऊर्जा के संचार के लिए तथा नकारात्मक ऊर्जा के निकास के लिए वायु तत्व का उचित संचालन आवश्यक है। भवन के उत्तर-पश्चिम भाग (वायव्य कोण) का खुला होना इसी सार्थकता पर आधारित है।

वायु तत्त्व एक ऐसा तत्त्व है जिसे देखा नहीं जा सकता बल्कि केवल महसूस किया जा सकता है। गौरतलब है कि किसी भवन में वायु जिधर से प्रवेश करती है, उसी दिशा से बाहर नहीं निकलती है। इसलिए सभी दिशाओं में वायु के प्रवेश के लिए समुचित व्यवस्था करनी चाहिए।

जिस घर में वायु तत्व की प्रधानता होती है, उसमें रहने वाले लोग अहंकारी और निरंकुश होते हैं। ये लोग सिर्फ अपने परिवार का हित चाहते हैं। परिवार की खुशी और सुख के लिए ये बाहरी लोगों से हमेशा पंगा लेने को तैयार बैठे रहते हैं। ऐसे घरों में आर्थिक स्थिति मजबूत होती है और ये लोग विदेशी व्यापार से खूब धन कमाते हैं। इस घर में रहने वाले युवाओं की नौकरी और विवाह विदेशों में होता है। लेकिन घर की स्त्रियों को पेट संबंधी रोग परेशान करते हैं। पुरुष और बुजुर्गों को कोई मानसिक रोग हो सकता है।

वास्तु शास्त्र घर में वायु तत्व के संतुलन के लिए दरवाजों, खिडकियों, रोशनदानों, पेड-पौधों के सम्बन्ध में पर्याप्त मार्गदर्शन करता है। वायु तत्व के संतुलन के लिए निम्न बातों का ध्यान रखें –

  • घर में वायु का निर्बाध प्रवाह।
  • सही दिशाओं में खिडकियों और दरवाजों का निर्माण।
  • भवन में उचित स्थान को खुला छोड़ना।

यह तत्व संतुलित होने पर नए कार्य करने और आयाम खोजने का साहस प्रदान करता है। साथ ही आपको ऐसे लोगो से मिलने का अवसर मिलता है जो कि आपकी प्रगति में आपके लिए बेहद मददगार साबित हो सकते है।

हिंदू विचार धारा में अग्नि को सबसे पवित्र माना गया है। अग्नि मनुष्य और ईश्वर के बीच एक माध्यम है। संसार में जो जीव भी सजीव है उसमें ऊर्जा है, और ऊर्जा का संचार अग्नि से होता है। वास्तुशास्त्र के अनुसार घर में पर्याप्त ऊर्जा प्राप्त करने के लिए अग्नि तत्व का समुचित और सही स्थल पर होना आवश्यक है। अग्नि तत्व का श्रोत सूर्य है। अग्नि हमारे अन्दर उत्साह, परिश्रम तथा भावनात्मक शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। शब्द, स्पर्श और रूप इसकी विशेषताएँ हैं।

वास्तु शास्त्र के अनुसार अग्नि तत्व का स्थान आग्नेय कोण है जहाँ सूर्य अपनी स्थिति के अनुसार सर्वाधिक ऊर्जा प्रदान कर सकता है।

इसे उर्जा तत्त्व भी कहते है। शरीर में ऊष्मा की उपस्थिति जीवित रहने के लिए बेहद आवश्यक है। घर में ऊष्मा और प्रकाश की पर्याप्त उपलब्धता रोशनदान, खिड़की, दरवाजों की उचित दिशाओं में व्यवस्था करके सुनिश्चित की जाती है।

ध्यान देने वाली बात है कि जल और अग्नि विपरीत चरित्र के तत्त्व है। अतः भवन निर्माण के वक्त इस बात का पूरा ख्याल रखा जाना चाहिए कि जो स्थान जल के लिए निर्धारित है वहाँ अग्नि से सम्बंधित वस्तुएं न रखी जाए और जो स्थान अग्नि के लिए निर्धारित है वहाँ पर किसी तरह का जलाशय का निर्माण न करा जाए। क्योंकि ऐसा करने पर दोनों ही तत्व असंतुलित हो जायेंगे और प्रतिकूल उर्जाये घर में निर्मित होंगी जो की घर के सदस्यों को प्रभावित करेगी।

जिस घर में अग्नि तत्व की प्रधानता होती है वहां रहने वाले लोग क्रोधी स्वभाव के होते हैं। जरा-जरा सी बातों में ये अपनों से ही झगड़ते रहते हैं। ऐसे घर में रहने वाले पुरुषों में अलगाव की प्रकृति होती है। घर का पुत्र शीघ्र ही परिवार से अलग हो जाता है। ऐसे लोग अपने आसपास रहने वाले लोगों से भी छोटी-छोटी बातों पर झगड़ते रहते हैं। इनके बीच में पारिवारिक और संपत्ति संबंधी विवाद भी अधिक मात्रा में होते हैं। अग्नि तत्व की प्रधानता वाले घर में रहने वाले लोग रक्त संबंधी परेशानियों से जूझते रहते हैं। स्त्रियों को रक्त की कमी की समस्या होती है। मानसिक रूप से ये लोग कभी स्थिर नहीं रह पाते।

अग्नि तत्त्व के संतुलन के लिए निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए –

  • किचन का निर्माण सही दिशा में।
  • अग्नि सम्बंधित वस्तुएं की अवस्थिति (जैसे – इन्वर्टर इत्यादि)।
  • सूर्य के प्रकाश का पर्याप्त प्रबंध।

वास्तु शास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार किसी भवन में अग्नि तत्त्व का सही संतुलन आपको समाज और दुनिया में प्रसिद्धि और पहचान दिलाता है। यह तत्व आपको मानसिक ताकत, आर्थिक सम्पन्नता दिलाता है और साथी ही आत्मविश्वास का भी संचार करता है।

जल भी जीवन का मूल है। जल के बिना जीवन का अस्तित्व नहीं रह जाएगा। पृथ्वी पर जीवन के संचालन के लिए इसके सतह का लगभग तीन चौथाई भाग जल से भरा हुआ है। हमारे शरीर में भी कुल तत्व का तीन चौथाई जल है। जल वह तत्व है जो जीवों में आतंरिक ऊर्जा प्रवाह का कार्य करता है। वेदों में जल को स्वयं में एक सम्पूर्ण औषधि एवं अमृत माना गया है।

अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तो। (ऋग्वेद)

जल तत्व का स्थान उत्तर-पूर्व यानी ईशान कोण है। शब्द, स्पर्श, रूप एवं रस इसकी विशेषताएँ हैं।

जल की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विश्व की सबसे बड़ी और प्राचीन सभ्यताएं नदियों के किनारे ही बसी और विकसित हुई थी। मनुष्य के लिए, सभ्यताओं के लिए, बड़े शहरों-देशों के विकास के लिए, और पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व के लिए जल एक अति आवश्यक तत्त्व है।

जिस घर में जल तत्व की प्रधानता होती है वे लोग सदाचारी और सत्य के मार्ग पर चलने वाले होते हैं। इनका स्वभाव स्वच्छ जल की तरह निर्मल और शुद्ध होता है। ये बाहर कुछ और अंदर कुछ नहीं होते हैं। सभी के साथ एक समान व्यवहार रखते हैं। लोग ऐसे घरों में रहने वाले लोगों को पूजनीय मानते हुए सम्मान देते हैं। आर्थिक रूप से इस घर में कभी कोई कमी नहीं रहती है। इस घर में जो भी याचक या अतिथि आता है वह कभी खाली हाथ नहीं लौटता।

किसी भी भवन में जल तत्त्व के उचित संतुलन के लिए निम्न बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए–

  • अंडरग्राउंड वाटर टैंक की दिशा।
  • ओवरहेड वाटर टैंक की दिशा।
  • जल के बहने की दिशा।
  • अन्य जलाशयों की भवन में अवस्थिति।

जिस प्रकार से जीवन के लिए शरीर में जल का सही संतुलन आवश्यक है ठीक उसी तरह से घर में भी सात्विक उर्जा के प्रवाह हेतु जल का उचित संतुलन आवश्यक है। किसी भी भवन में जल तत्त्व उत्तर और उत्तर-पूर्व (ईशान) दिशा को शासित करता है। वास्तु के अनुसार घरों में जलाशय के निर्माण के लिए उत्तर और ईशान दिशा सर्वोतम स्थान है। इन दिशाओं में अंडरग्राउंड वाटर टैंक, कुँए, बोरिंग, स्विमिंग पूल आदि बनाये जा सकते है।

वास्तु शास्त्र के अनुसार जल तत्त्व का संबध नए और रचनात्मक विचारों, दूरदृष्टि, अच्छे स्वास्थ्य और हीलिंग एनर्जी से होता है। जिन घरों में जल तत्त्व संतुलित होता है उनमे निवास करने वाले ना सिर्फ आर्थिक सम्पन्नता हांसिल करते है बल्कि जीवन को भी बड़े परिप्रेक्ष्य में देखने में समर्थ होते है। इसके साथ ही वे एक स्वस्थ जीवन भी व्यतीत कर पाते है।

पृथ्वी तत्व की मुख्य विशेषताएँ शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गुण हैं। अर्थात यह पाँचों ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ग्राह्य है। वास्तुशास्त्र में पृथ्वी तत्व स्पष्ट तात्पर्य भूखंड की भूमि एवं भारी वस्तुओं से है।

वास्तु शास्त्र के सिद्धांत के अनुसार जिस घर में पृथ्वी तत्व की प्रधानता होती है उस घर में रहने वाले लोग अत्यंत डाउन टू अर्थ होते हैं। यानी वे जमीन से जुड़े लोग होते हैं। उनके स्वभाव में एक तरह का स्थायित्व होता है और वे सभी को साथ लेकर चलने वाले होते हैं। पृथ्वी तत्व की प्रधानता वाले घर में निवास करने वाले लोग सदैव दूसरों की सहायता करने को तत्पर रहते हैं। इन्हें किसी प्रकार का दंभ नहीं होता। आर्थिक रूप से भी ये संतुष्ट प्रकृति के होते हैं भले ही इनके पास पैसा कम मात्रा में हो, लेकिन ये उसी में संतुष्ट रहते हैं।

वास्तुशास्त्र के अनुसार पृथ्वी की सघनता पूर्व से पश्चिम की ओर और उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ती जाती है। पृथ्वी तत्व का स्थान घर में दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य कोण) है।

पृथ्वी तत्व सभी तत्वों में सर्वाधिक महत्त्व रखता है। भूमि पर ही किसी भवन की नींव रखी जाती है। वास्तु में किसी भी अन्य तत्त्व से पहले भूमि की ही भूमिका आती है। सही भूमि के चयन के बाद ही हम भवन निर्माण के दौरान अन्य तत्वों को संतुलित करने पर ध्यान देते है।

यहाँ सवाल ये उठता है कि सही भूमि / प्लॉट का चयन किस प्रकार किया जाए ? तो इस दौरान आपको निम्न बातों का ध्यान रखना होता है –

  • भूखंड की मिटटी की गुणवत्ता।
  • भूखंड की दिशा।
  • भूखंड का आकार।
  • भूखंड का कटाव।
  • भूखंड का विस्तार।
  • मार्ग वेध (टी-पॉइंट) इत्यादि।

पृथ्वी तत्व हमें जीवन में स्थिरता प्रदान करता है। साथ ही पृथ्वी तत्त्व के संतुलन पर जीवन में असीम धैर्य और परिपक्वता भी आती है। यह तत्व करियर में बेहतर नतीजे पाने, रिश्तो में सुधार लाने में भी अति लाभदायक है।

इस प्रकार भवन के चारों कोणों और केंद्र पर एक-एक पंच महाभूत का स्थान है। ईशान में जल, आग्नेय में अग्नि, नैऋत्य में पृथ्वी, वायव्य में वायु और केंद्र में आकाश, यही वास्तु अनुसार पंच महाभूतों का सुनिश्चित है। इन्हीं दिशाओं से इन पंचमहाभूत से मिलने वाले लाभ को इच्छानुसार और आवश्यकतानुसार सरलता से प्राप्त किया जा सकता है।

ब्रह्मांड का हर तत्व इन्हीं पंच महाभूतों के संयोग से बना है। जिस वस्तु में इन तत्वों की जितनी सघनता रहती है वास्तु अनुसार उसे गृह में वैसे ही तत्व-सघन स्थान पर स्थित कर उसके विषय का पूर्ण भोग किया जा सकता है। वस्तुओं में पंच तत्वों की सघनता उनके मौलिक गुणों से ज्ञात की जा सकती है। इस तरह वास्तुशास्त्र मुख्य रूप से पंचमहाभूतों के ज्ञान पर आधारित विज्ञान है।

प्रकृति का तात्पर्य पंचमहाभूतों से है जो वास्तु के मुख्य अवयव हैं। अतः प्रकृति का ज्ञान ही वास्तु ज्ञान है। प्रकृति वेदों का आधार है। इस तरह वास्तु शास्त्र एक वैदिक ज्ञान है।

भारत की प्राचीन स्थापत्य कला वास्तु शास्त्र पर आधारित थी। प्राचीन भारत भवन निर्माण एक सामान्य कार्य मात्र ही नहीं अपितु एक पवित्र धार्मिक संस्कार एवं जीवंत तत्व माना जाता था। हमारे पूर्वजों ने वास्तु शास्त्र को अथर्व वेद की गोद में रखकर हमें अपने आने वाले कल को सौभाग्य पूर्ण, समृद्धशाली एवं सुखी बनाने के लिए सुपुर्द किया था।

इन्हीं की प्रकृति के अनुसार भवन का निर्माण वांछनीय है। प्राचीन काल में बड़े-बड़े राज प्रसाद, किले, देव मन्दिर, विद्दालय, तालाब, कूप, आदि का निर्माण वेद-पुराण व शास्त्रों द्दारा वर्णित वास्तुविद्दा के आधार पर किया गया।

विश्वकर्म प्रकाश के अनुसार वास्तुशात्र के कारण मानव दिव्यता प्राप्त करता है। वास्तुशास्त्र के अनुयायी केवल सांसारिक सुख ही नहीं वरन दिव्य आनंद की भी अनुभूति करते हैं।

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