A Multi Disciplinary Approach To Vaastu Energy

VASTU SHASTRA

वास्तु शास्त्र (Vastu in Hindi)

वास्तुशास्त्र हमारे भारत की प्राचीनतम वैज्ञानिक विधाओं में से एक हैं। ‘वास्तु’ का अर्थ है प्रकृति और हमारे आसपास के वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करना।

मौजूदा दौर में देखा गया है कि जितने भी नए भवन निर्माण हो रहें हैं, उनमें वास्तु के सिद्धांतों का पालन किया जा रहा है, क्योंकि लोगों को समझ आ गया है कि जो भी निर्माण भवन स्थापत्य कला के अनुरूप नहीं हैं, वहां लोगों को तमाम तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। मसलन, तमाम तरह की बीमारियां, परिवार में सामंजस्य की कमी, विचारों में मतभेद, धन की कमी एवं कलह आदि। ऐसे में वास्तुशास्त्र भवन, मनुष्य और आसपास के वातावरण में संतुलन स्थापित करता है।

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वास्तु शास्त्र एक ऐसा ज्ञान है जो दिशाओं के माध्यम से आपको यह जानकारी उपलब्ध कराता है कि कौन सी वस्तु का स्थान किस दिशा में होना चाहिए।

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वास्तु शब्द वस निवासे धातु से निष्पन्न होता है, जिसे निवास के अर्थ में ग्रहण किया जाता है। जिस भूमि पर मनुष्यादि प्राणी वास करते हैं, उसे वास्तु कहा जाता है। इसके गृह, देवप्रासाद, ग्राम, नगर, पुर, दुर्ग आदि अनेक भेद हैं। वास्तु की शुभाशुभ-परीक्षा आवश्यक है।

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शुभ वास्तु में रहने से वहां के निवासियों को सुख-सौभाग्य एवं समृद्धि आदि की अभिवृद्धि होती है और अशुभ वास्तु में निवास करने से इसके विपरीत फल होता है।

वास्तुशास्त्र में वास्तु शब्द का व्यापक अर्थ है। वास्तु शब्द वस्तु से अंकुरित हुआ है। वे सारे तत्व जिसे ब्रह्मा ने मानसी सृष्टि के उद्देश्य से रचा, आपः अथवा वस्तु कहलाया। जिसमें सूर्य, जल, वायु, पृथ्वी तथा द्दु (आकाश) जैसे तेजस स्वरुप आते हैं।

तेद्द्मवदन् प्रथमा ब्र्ह्मकिल्बिषेद्द्मकूपारः सलिलो मातरिश्वा।
वीडुहरास्तप उग्रं मयोभूरापो देवी: प्रथमजा ऋतस्य।। (अथर्ववेद)


उन्होंने (ईश्वर ने) सबसे पहले ब्रहमा विकार-प्रकृति को व्यक्त किया। उग्र ताप से पहले दिव्य आपः तथा सोम प्रकट हुए। सूर्य, जल, वायु तेजस से युक्त हुए।

विश्वकर्मा ने महाराज पृथु के सहयोग से निर्मित एवं निर्माण निमित्त कार्यों में इन वस्तुओं को सुनियोजित कर वास्तु में परिणित किया। मानसी सृष्टि के वे सारे तत्व जो ब्रहमा द्दारा रचे गए हैं, वास्तु कहलाते हैं| अतः इसकी व्यापकता को केवल भूखण्ड अथवा गृह निर्माण तक सीमित समझना उचित नहीं होगा। सौरमंडल से लेकर भवन की इष्टिका तक के सारे तत्व वास्तुशास्त्र की विषयवस्तु हैं।

कोई भी निर्माण द्रव्य जो नव-निर्मित में परिवर्तित हो जाता है। वह वास्तु संज्ञा से व्यौहारित होता है। ऋग्वेद में वास्तु का सम्बोधन वास्तोष्पति तथा गृह समूह के रूप में हुआ है। अतः भवन से सम्बन्धित ज्ञान वास्तुशास्त्र की प्रमुख इकाई है।

उपहूता भूरिधना सखायः स्वादुसंमुदः। (अथर्ववेद)
हे गृह! आप अन्न-धन से सम्पन्न रहें। आप मधुर पदार्थों से रहते हुए हमारे मित्र बने रहें।

मत्स्य पुराण के अनुसार वास्तु वस शब्द से बना है जिसका अर्थ वास करना है अर्थात वह स्थान जहाँ किसी का वास होता है। महाभूत के अंगों में अनेक देवगणों के वास करने के कारण इसे वास्तु -पुरुष कहा गया।

वास्तु: सामूहिकोनाम दीप्यते सर्वतस्तु यः। (मत्स्य पुराण)
वास्तु वह सामुहिक नाम है जो सभी ओर दीप्त होता है।

प्रकृति का तात्पर्य पंचमहाभूतों से है जो वास्तु के मुख्य अवयव हैं। अतः प्रकृति का ज्ञान ही वास्तु ज्ञान है। प्रकृति वेदों का आधार है। इस तरह वास्तु शास्त्र एक वैदिक ज्ञान है।

भारत की प्राचीन स्थापत्य कला वास्तु विद्या पर आधारित थी। प्राचीन भारत भवन निर्माण एक सामान्य कार्य मात्र ही नहीं अपितु एक पवित्र धार्मिक संस्कार एवं जीवंत तत्व माना जाता था। हमारे पूर्वजों ने वास्तु शास्त्र को अथर्व वेद की गोद में रखकर हमें अपने आने वाले कल को सौभाग्य पूर्ण, समृद्धशाली एवं सुखी बनाने के लिए सुपुर्द किया था।

हमने उसे पाश्चात्य संस्कृति के चकाचौंध में भुला दिया। परन्तु वास्तु विद्या स्वयं में अजेय बनी रही।

भवन के भूखण्ड में वास्तु-पुरुष है और वास्तु-पुरुष के अंगों में कई देवों का वास है। वास्तु-पुरुष एक महाभूत है। और भवन के नीचे अधोमुख पड़ा होना उसकी नियति। वास्तु-पुरुष को शांत रखना और उसके अंगों पर बसे समस्त देवों को उसकी प्रकृति के अनुरूप प्रसन्न रख उनसे वांछित फल प्राप्त करने की विधि ही मूलतः वास्तु शास्त्र है।

इन्हीं की प्रकृति के अनुसार भवन का निर्माण वांछनीय है। प्राचीन काल में बड़े-बड़े राज प्रसाद, किले, देव मन्दिर, विद्दालय, तालाब, कूप, आदि का निर्माण वेद-पुराण व शास्त्रों द्दारा वर्णित वास्तुविद्दा के आधार पर किया गया।

वास्तुशास्त्र के साहित्य तथा प्राचीन स्मारकों एवं मूर्तियों से यह स्पष्ट होता है कि भारत में वास्तुशास्त्र पर आधारित तकनीकों का प्रयोग प्राचीन काल से ही हो रहा है। वास्तु कला भारत की प्राचीन परंपरा रही है। लगभग ५ हजार वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी सभ्यता में वास्तु कला के प्रमाण दिखाई पड़ते हैं। सिंधु घाटी में बने घर, स्नानागार, नियोजित गलियां, बाजार इसके साक्षी हैं।

यूनान से आये मेगास्थनीज ने अपने पुस्तक में चन्द्रगुप्त के महल व राज्य के सामान्य भवनों का जो वर्णन किया है वह वास्तु कला के तत्कालीन उत्कर्ष को स्पष्ट करता है। इस काल में भी वास्तु कला अपनी चरम सीमा पर थी। बड़े-बड़े चौतरफे भवन, विस्तृत खुले आँगन, इनकी साज-सज्जा इसके नमूने हैं।

देश में बौद्ध धर्म के विस्तार के काल में जिन स्तूपों आदि का निर्माण हुआ वह तत्कालीन वास्तु कला के ज्ञान को दृष्टि गोचर करता है। बौद्ध धर्म के देश के बाहर कदम रखने से यहाँ की परंपरा एवं सभ्यता के साथ वास्तु कला का भी विस्तार अन्य देशों में हुआ। चीन के फेंगशूइ कला वास्तु कला से बहुत भिन्न प्रतीत नहीं होती है।

यह सर्वविदित है कि ईश्वर की इच्छा के बिना एक सूक्ष्म प्राणी भी अपना स्थान परिवर्तित नहीं कर सकता है। और इन्हीं (शिव) का एक अंश हमारे घर में अनेक देवताओं को साथ लेकर वास्तु-पुरुष के रूप में समाया हुआ है। अपने गृह में विराजमान इन सभी अलौकिक शक्तियों को उनकी प्रकृति के अनुसार सम्मान व व्यवहार देकर ईश्वरीय शुभ फलों का पूर्ण लाभ उठाना वास्तु शास्त्र का उद्देश्य है। 

विश्वकर्म प्रकाश के अनुसार वास्तुशात्र के कारण मानव दिव्यता प्राप्त करता है। वास्तुशास्त्र के अनुयायी केवल सांसारिक सुख ही नहीं वरन दिव्य आनंद की भी अनुभूति करते हैं।

वास्तु में विश्वकर्मा को ही इसका रचेता माना गया है परन्तु शास्त्रों में भृगु, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वकर्मा, मयं, नारद, अंगनजीत, विशालक्ष, इंद्र, ब्रह्मा, स्वामी कार्तिकेय, नंदीश, शौनक, गर्ग, श्री कृष्ण, अनिरुद्ध, शुक्र व वृहस्पति यह 18 जने वास्तु शास्त्र के सम्पूर्ण ज्ञाता व उपदेशक रहे हैं, जो कि सब लोकों में विख्यात रहे हैं जिन्होंने वास्तु के सम्पूर्ण ज्ञान पर आधारित शास्त्रों का निर्माण किया।

वास्तु पुरुष मंडल (Vastu Purush Mandal)

पृथ्वी पर उर्जाओं का प्रवाह एक ग्रिड के रूप में होता है लेकिन घर या किसी भी प्रकार का निर्माण करते वक्त उस भूभाग पर हो रहा उर्जा का स्वतंत्र प्रवाह बिगड़ जाता है। भवन निर्माण के समय उर्जा के उस विकृत प्रवाह को पुनः प्रकृति के साथ सामंजस्य में लाना आवश्यक होता है। वास्तु पुरुष की परिकल्पना उसी उर्जा प्रवाह को पुनः स्थापित करने के लिए की गई है।

हमारा पूरा ब्रह्माण्ड पंच तत्वों से बना है। इन सभी तत्वों का अपने आप में खुले वातावरण में एक स्वतंत्र चरित्र होता है। लेकिन जब भवन निर्माण किया जाता है तो ये तत्त्व उस भवन के भीतर अपने स्वतंत्र चरित्र से हटकर विशेष आन्तरिक प्रक्रियाएं करते हैं जो कि वातावरण में उपस्थित उर्जा के सूक्ष्म प्रवाह को असंतुलित कर देता है। इस असंतुलन को संतुलित करने के लिए प्राचीनकाल में विद्वानों ने अपनी गहन समझ से घर के अन्दर प्रत्येक कार्य के लिए सुनिश्चित स्थान तय किये जो कि सर्वोतम नतीजे देते हो। फिर उन सिद्धांतों को घरों में लागू करने हेतु आम लोगों के लिए वास्तु पुरुष की परिकल्पना को प्रस्तुत किया गया।  

सामान्य भाषा में वास्तु पुरुष एक प्रकार से किसी भी भवन का एक आदर्श नक्शा बनाने के लिए निर्मित एक मूलभूत ढांचे का प्रतीक है। वास्तु पुरुष के जरिये ये बताया गया है कि किसी भवन में किस स्थान पर किस प्रकार का निर्माण किया जाना उस घर के निवासियों के लिए विकास और सुख-समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करेगा। उदाहरण के लिए वास्तु पुरुष की आकृति में ऐसे स्थान जहाँ पर भारी निर्माण कराने से नुकसान होता है उन स्थानों को शरीर के नाजुक स्थानों से दर्शाया गया है।

वास्तु शास्त्र के अंतर्गत किये गए शोध में भवनों के अंदर ऐसे स्थान खोजे गए हैं जो स्थान मस्तिष्क, पेट या अन्य अंगों पर प्रभाव डालते है तो ऐसे स्थानों को भवन में वास्तु पुरुष के अंगों के रूप में दर्शाया गया है। जैसे कि ईशान कोण मस्तिष्क को काफी प्रभावित करता है तो इस स्थान को वास्तु पुरुष में मस्तिष्क के रूप में ही दिखाया गया है और इस स्थान को घरों में खाली रखा जाना चाहिए। इसके अलावा पेट जिसे कि हम घर में ब्रह्म स्थान के रूप में जानते है, वहाँ पर भी किसी प्रकार का गड्ढा या वजन नहीं रखा जाना चाहिए। ऐसे ही वो स्थान जहाँ पर भारी निर्माण किया जा सकता है उन स्थानों को वास्तु पुरुष में जांघो या हाथों के प्रतीक के रूप में दिखाया गया है, क्योंकि वास्तविक जीवन में भी भार को वहन करने के लिए हाथ और जाँघों की ताकत का ही प्रयोग किया जाता है।

इस प्रकार से ये कहा जा सकता है कि ‘वास्तु पुरुष’ एक प्रकार से वास्तु शास्त्र के सिद्धातों का चित्रीय वर्णन है। जिस तरह से हमारा शरीर अपने आप में कुछ नहीं है जब तक की उसमे आत्मा ना हो। आत्मा और कुछ नहीं बल्कि उर्जा का ही एक स्वरुप है जो कि हमारे शरीर में अदृश्य रूप से उपस्थित है। कुछ उसी तरह से हमारे द्वारा बनाये गए भवन भी होते है। उनमे भी एक विशेष प्रकार की उर्जा उपस्थित होती है जो कि एक प्रकार से उनकी आत्मा होती है। भवन जहाँ शरीर का प्रतिनिधित्व करता है तो वही उसमे उपस्थित उर्जा उसकी आत्मा का प्रतिनिधित्व करती है। उसी आत्मा रूपी उर्जा को वास्तु शास्त्र में ‘वास्तु पुरुष’ के नाम से जाना जाता है।

वास्तु पुरुष का उद्भव और पीछे छिपा तर्क

दरअसल प्राचीनकाल में रचित साहित्यों में प्रतीकों का इस्तेमाल किया जाना सामान्य था, और प्रतीकों के इस्तेमाल का एक बड़ा ही तार्किक कारण था। प्राचीनकाल में जो ज्ञान उस वक्त के विद्वानों के पास था वो बहुत ही गूढ़ और जटिल था और उस वक्त सामान्यजन ना ही ज्यादा पढ़े लिखे होते थे और ना ही ज्यादा जटिल जानकारी को समझने में परिपक्व। परिणामस्वरूप वो महत्वपूर्ण ज्ञान और विचार सामान्यजन की समझ के बाहर था। ऐसे में एक ऐसा तरीका खोजना आवश्यक था जिससे कि सामान्यजन उस ज्ञान से वंचित ना रहे और उसे अपनी भाषा में सहज तौर पर समझ पाए और साथ ही उसे अपने जीवन में लागू कर सके।

इसके लिए प्रतीकों का सहारा लिया गया। प्रतीकों का प्राचीनकाल ही नहीं बल्कि हमारे वर्तमान समय में भी अत्यधिक महत्त्व है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है छोटे बच्चे। छोटे बच्चों के लिए भी जटिल जानकारी को समझना मुश्किल होता है लेकिन वही दूसरी ओर उनमे समझ विकसित करना भी जरुरी होता है। ऐसे में बच्चों को बचपन में अच्छे विचार देने और उनके लिए आवश्यक समझ विकसित करने के लिए ऐसी कहानियों का सहारा लिया जाता है जिनका वास्तविकता में कोई अस्तित्व तो नहीं है, परन्तु वे छोटे बच्चों को समझाने के लिए बहुत आसान और रुचिपूर्ण होती है। कहानियों का उद्देश्य बच्चों को एक सीख देना होता है जो कि काल्पनिक कहानियों की भाषा में आसानी और रुचिपूर्ण तरीके से दिया जा सकता है। लेकिन अगर बच्चा बड़ा होने पर कहानी के पीछे छिपे महत्वपूर्ण विचार को भूल जाए और कहानी को ही वास्तविक समझने की भूल कर बैठे तो उन्हें बचपन में सुनाई गई कहानियों का मूलभूत उद्देश्य ही गायब हो जाता है।

कुछ ऐसा ही हुआ है हमारे प्राचीन ग्रन्थों के साथ भी। दरअसल वर्तमान में कई लोगों के भ्रामक प्रचार के कारण प्राचीन ग्रंथो में उपस्थित प्रतीकों को ही लोग सच मानने लग गए और उनके पीछे छिपे बहुमूल्य विचार को भूल गए। इस कारण हमारे समाज की एक बहुत बड़ी क्षति हुई है जिसके अंतर्गत हम वास्तविक और कीमती ज्ञान को भूलकर खोखलें प्रतीकों को ही मात्र पकडे हुए है।

इसलिए यहाँ पर भी ये समझना बेहद जरुरी हो जाता है कि वास्तु पुरुष की कल्पना को वास्तु शास्त्र में एक ऐसे प्रतीक मात्र के तौर पर रचा गया है जिससे वास्तु शास्त्र के सिद्धांतों को आसान भाषा में समझाया जा सके।

ध्यान देने वाली बात है कि हमारी शारीरिक क्षमता और मानसिक क्षमता हमारे जीवन की दशा और दिशा तय करने में निर्णायक भूमिका अदा करती है। वास्तु पुरुष के प्रतीक के जरिये इस बात को ही समझाने का प्रयास किया गया है कि हमारे घरों और भवनों का कौनसा भाग उस जगह पर उपस्थित उर्जा के जरिये हमारे शरीर के किस निर्धारित हिस्से, मस्तिष्क, भावनाओं और हमारे जीवन को किस तरह से प्रभावित करता है। इसके लिए प्राचीनकाल में तो गहन शोध हुआ ही है। लेकिन प्राचीन समय से लेकर वर्तमान काल तक भवनों की संरचना और निर्माण प्रक्रिया में कई तरह के बदलाव आये है, परिणामतः इन सबका मनुष्यों पर पड़ने वाले असर के सम्बन्ध में शोध कार्य अभी भी निरंतर जारी है।

‘वास्तु पुरुष’ तीन अलग-अलग आकारों से मिलकर बना है – पहला ‘वास्तु’ दूसरा ‘पुरुष’ और तीसरा ‘मंडल’। ये तीनो प्रतीक क्रमशः ‘विवेक’, ‘शरीर’ व ‘आत्मा’ का प्रतिनिधित्व करते है।

इस वास्तु पुरुष का प्रत्येक अंग दरअसल हमारे शरीर के और जीवन के उन हिस्सों को अप्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इंगित करता है जो कि घर में उक्त स्थान पर विद्यमान उर्जा से प्रभावित होते है। जब भी पृथ्वी पर किसी भवन का निर्माण होता है तो उस भूभाग पर 45 उर्जा क्षेत्रों का भी निर्माण हो जाता है। जो कि इस प्रकार है - 

पौराणिक मान्यता अनुसार वास्तु पुरुष की उत्पत्ति भगवान शंकर के पसीने से हुई है। सम्पूर्ण वास्तु शास्त्र इन्ही पर केंद्रित है। वास्तु शास्त्र अनुसार वास्तु पुरुष पुरुष भूमि पर अधोमुख होकर स्थित हैं। वास्तु पुरुष का सिर ईशान कोण अर्थात उत्तर-पूर्व दिशा की ओर, पैर नैर्ऋत्य कोण अर्थात दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर, भुजाएँ पूर्व एवं उत्तर दिशा की ओर तथा टाँगें दक्षिण एवं पश्चिम दिशाओं की ओर हैं। तात्पर्य यह है कि वास्तु पुरुष का प्रभुत्व समस्त दिशाओं में व्याप्त है।

मतस्य पुराण में वास्तु पुरूष के जन्म से सम्बंधित कथा का उल्लेख मिलता है।

एक बार भगवान् शिव एवं दानवों में भयंकर युद्ध छिड़ा जो बहुत लम्बे समय तक चलता रहा। दानवों से लड़ते लड़ते भगवान् शिव जब बहुत थक गए तब उनके शरीर से अत्यंत ज़ोर से पसीना बहना शुरू हो गया। शिव के पसीना की बूंदों से एक पुरुष का जन्म हुआ। वह देखने में ही बहुत क्रूर लग रहा था। शिव जी के पसीने से जन्मा यह पुरुष बहुत भूखा था इसलिए उसने शिव जी की आज्ञा लेकर उनके स्थान पर युद्ध लड़ा व सब दानवों को देखते ही देखते खा गया और जो बचे वो भयभीत हो भाग खड़े हुए। यह देख भगवान् शिव उस पर अत्यंत ही प्रसन्न हुए और उससे वरदान मांगने को कहा। समस्त दानवों को खाने के बाद भी शिव जी के पसीने से जन्मे पुरुष की भूख शांत नहीं हुई थी एवं वह बहुत भूखा था इसलिए उसने भगवान शिव से वरदान माँगा "हे प्रभु कृपा कर मुझे तीनो लोक खाने की अनुमति प्रदान करें"। यह सुनकर भोलेनाथ शिवजी ने "तथास्तु" कह उसे वरदान स्वरुप आज्ञा प्रदान कर दी।

फलस्वरूप उसने तीनो लोकों को अपने अधिकार में ले लिया, व सर्वप्रथम वह पृथ्वी लोक को खाने के लिए चला। यह देख ब्रह्माजी, शिवजी अन्य देवगण एवं राक्षस भी भयभीत हो गए। उसे पृथ्वी को खाने से रोकने के लिए सभी देवता व राक्षस अचानक से उस पर चढ़ बैठे। देवताओं एवं राक्षसों द्वारा अचानक दिए आघात से यह पुरुष अपने आप को संभाल नहीं पाया व पृथ्वी पर औंधे मुँह जा गिरा। धरती पर जब वह औंधे मुँह गिरा तब उसका मुख उत्तर-पूर्व दिशा की ओर एवं पैर दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर थे।

पैंतालीस देवगणो एवं राक्षसगणो में से बत्तीस इस पुरुष की पकड़ से बाहर थे एवं तेरह इस पुरुष की पकड़ में थे। इन सभी पैंतालीस देवगणो एवं राक्षसगणो को सम्मलित रूप से "वास्तु पुरुष मंडल" कहा जाता है जो निम्न प्रकार हैं -

1. शिखी 2. पर्जन्य  3. जयंत  4. महेंद  5. रवि 6. सत्य  7. भृश  8. नभ  9. अनिल 10. पूषा 11. वितथ  12. गृहत्क्षत  13. यम  14. गंधर्व  15. भृंगराज 16. मृग 17. पितृगण  18. दौवारिक  19. सुग्रीव  20. पुष्पदंत  21. वरुण  22. असुर  23. शोष  24. पापयक्ष्मा  25. रोग  26. नाग 27. मुख्य   28. भल्लाट  29. सोम  30. सर्प  31. अदिति  32. दिति  33. आप 34. आपवत्स 35. सविता  36. सावित्री 37. जय 38. इंद्र  39. रुद्र 40. रुद्रदास 41. अर्यमा  42. विवस्वान्  43. मित्र  44. पृथ्वी धर  45. ब्रह्मा।

इन पैंतालीस देवगणो एवं राक्षसगणो ने शिव भक्त के विभिन्न अंगों पर बल दिया एवं निम्नवत स्थिति अनुसार उस पर बैठे :

वास्तु पुरुष के शरीर अंगो पर देवताओं का वास :

वास्तु शास्त्र के अनुसार वास्तु पुरुष उलटा सोता है। उसके दोनों पैर नेऋत्य कोण में स्थित है। दोनों पांव के तलवे एक दूसरे से मिले हुए है। इसका सिर ईशान कोण में है। हाथ और पैर की संधियाँ आग्नेय और वायव्य कोण में है। वास्तु पुरुष में शरीर के भिन्न भिन्न अंगों में किन किन देवताओं का वास है। इसका उल्लेख हम नीचे कर रहे है।
• वास्तु पुरुष के मस्तक में शिखी (महादेव) विराजमान है।
• उसके दोनों कानों में पर्जन्य और दिति का अधिपत्य है।
• गले के ऊपर आप देव है।
• दोनों कन्धों में जय और अदिति विराजमान है।
• उसके दोनों स्तनों पर अर्यमा और पृथ्वीधर है।
• ह्रदय के ऊपर आपवत्स है।
• दाहिने हाथ की कोहनी से पहुंचे तक सविता और सावित्री का वास है।
• बांये हाथ की कोहनी से पहुंचे तक रूद्र और रुद्रदास का वास है।
• दोनों जंघाओं पर विवस्वान् और मित्र है।
• वास्तुपुरुष उल्टा सोया हुआ है, इसलिए नाभि के पीछे कमर से थोडा ऊपर पीठ के सामने ब्रम्हा जी मोजूद है।
• जननेन्द्रिय स्थान में इन्द्र और जय है।
• दोनों घुटनों के ऊपर अग्नि और रोग है।
• दाहिने पैर की नली पर पूषा, वितथ, यम, गन्धर्व, भृंगराज और मृग है।
• दूसरे पैर की नली पर दौवारिक (नंदी), सुग्रीव, पुष्पदंत, वरुण, असुर, शोष और पाप यक्ष्मा उपस्थित है।
• दोनों एडी पर पितृ-देवता का स्थान है।

इस तरह से बाध्य होने पर, वह पुरुष औंधे मुँह नीचे ही दबा रहा। उसने उठने के भरपूर प्रयास किये किन्तु वह असफल रहा। अत्यंत भूखा होने के कारण वह अंत में वह जोर जोर से चिल्लाने व रोने लगा व छोड़ने के लिए करुण निवेदन करने लगा। उसने कहा की आप लोग कब तक मुझे इस प्रकार से बंधन में रखेंगे? मैं कब तक इस प्रकार सर नीचे करे पड़ा रहूँगा? मैं क्या खाऊंगा? किन्तु देवता एवं राक्षस गणो द्वारा उसे बंधन मुक्त नहीं किया गया। अंततः इस पुरुष ने ब्रह्मा जी को पुकारा और उनसे खाने को कुछ देने के लिए जोर जोर से करुण रुद्रन करने लगा, तब ब्रह्माजी ने उनकी करुण पुकार सुनकर उससे कहा कि मेरी बात सुनो -

आज भाद्रपदा शुक्ल पक्ष की तृतीया शनिवार एवं विशाखा नक्षत्र है; इसलिए, तुम जमीन पर यूँ ही अधोमुख हो कर पड़े रहोगे किन्तु तीन माह में एक बार अपनी स्थिति यूँ ही लेटे-लेटे बदल सकोगे, अर्थात् 'भाद्रपद' से 'कार्तिक' तक तुम अपना सर पूर्व एवं पैर पश्चिम दिशा की ओर किये लेटे रहोगे। 'मार्गशिरा', 'पुष्यम' एवं 'माघ' माह में तुम दक्षिण दिशा की ओर लेटे रहोगे इस स्थिति में तुम्हारा सर पश्चिम दिशा एवं पैर उत्तर दिशा की ओर रहेंगे। 'फाल्गुन', 'चैत्र' एवं 'बैसाख' के माह के समय तुम्हारा शरीर उत्तर दिशा की ओर रहेगा इस स्थिति में तुम्हारा सिर पश्चिम दिशा की ओर एवं पैर पूर्व दिशा की ओर रहेंगे। "ज्येष्ठ", "आशाण" एवं "श्रावण" के माह के समय तुम्हारा शरीर पूर्व दिशा की ओर रहेगा इस स्थिति में तुम्हारा सिर उत्तर दिशा की ओर एवं पैर पश्चिम दिशा की ओर रहेंगे। तुम चाहे जिस दिशा में लेटे हुए घूमो, किन्तु तुम्हे बायीं करवट से ही लेटे रहना होगा।

इस प्रकार देव व राक्षस गणो द्वारा औंधे मुँह दबाये एवं घेरे जाने पर ब्रह्माजी ने शिव भक्त को वास्तु के देव अर्थात "वास्तुपुरुष" नाम दिया। ब्रह्माजी ने अपना आशीर्वाद देते हुए वास्तुपुरुष से कहा कि संसार भर में जो भी व्यक्ति, भवन, मंदिर, कुआ आदि की नींव रखेगा अथवा निर्माण उस दिशा में करवाएगा जिस दिशा में उस समय तुम देख रहे हो एवं जिस दिशा में तुम्हारे पैर एवं सिर हैं, को तुम परेशान एवं सता कर रख सकते हो।

तुम्हारी पीठ एवं सिर जिस भी दिशा में हो, तुम्हारा पूजन एवं भोग लगाए बिना यदि कोई व्यक्ति भवन अथवा मंदिर आदि की नीव भी रखेगा तो, ऐसे व्यक्ति को तुम दण्डित एवं नष्ट भी कर सकोगे।

ब्रह्माजी के मुख से ऐसा सुनकर वास्तुपुरुष संतुष्ट हुए। इसके बाद से ही वास्तु-पुरुष का पूजन-भोग अनिवार्य रूप से प्रचलन में आया।

इसलिए आज भी वास्तु देवता का पूजन होता है। देवताओं ने उसे वरदान दिया कि तुम्हारी सब मनुष्य पूजा करेंगे। इसकी पूजा का विधान प्रासाद तथा भवन बनाने एवं तडाग, कूप और वापी के खोदने, गृह-मंदिर आदि के जीर्णोद्धार में, पुर बसाने में, यज्ञ-मंडप के निर्माण तथा यज्ञ-यागादि के अवसरों पर किया जाता है। इसलिए इन अवसरों पर यत्नपूर्वक वास्तु पुरुष की पूजा करनी चाहिये।

मुख्य प्रवेश द्वार के लिए वास्तु - Vastu for Main Gate

हमारी सृष्टि में विद्यमान ब्रह्मांडीय उर्जा (Cosmic Energy) जीवन का सर्वोच्च स्त्रोत है। यही उर्जा हमारे जीवन में संतुलन का भी कार्य करती है। आपके घर का मुख्य प्रवेश द्वार इन ब्रह्मांडीय उर्जाओं के लिए एक प्रवेश द्वार की भाँती होता है। यह प्राकृतिक उर्जायें मुख्य प्रवेश द्वार के माध्यम से आपके घर के भीतर प्रवेश करती है।

ब्रह्मांडीय उर्जायें जब किसी माध्यम या स्थान विशेष से गुजरती है तो उसकी प्रकृति भी बदल जाती है। जब हम किसी भवन या घर का निर्माण करते है तो उसका मुख्य द्वार एक ऐसा बेहद संवेदनशील माध्यम या स्थान होता है जहाँ से होकर के ब्रह्मांडीय उर्जाये भवन में प्रवेश करती है और परिणामतः इनकी प्रकृति में परिवर्तन आ जाता है।

एक माध्यम किस प्रकार से किसी चीज की स्वाभाविक प्रकृति या स्वरुप को प्रभावित कर सकता है इसे एक उदाहरण से समझ सकते है। गौरतलब है कि जब सूर्य से निकालने वाली श्वेत प्रकाश किरण एक कांच के प्रिज्म माध्यम से गुजरती है तो यह सात विभिन्न रंगों में विभाजित हो जाती है। एक कांच का प्रिज्म सूर्य से निकालने वाली किरणों का स्वरुप बदल देता है। इसी प्रकार से जब ब्रह्मांडीय उर्जाये भी जब किसी माध्यम से गुजरती है तो उनकी प्रकृति में बदलाव आ जाता है क्योंकि कही ना कही आपके घर का मुख्य प्रवेश द्वार भी एक ऐसे प्रिज्म के भाँती कार्य करता है जो कि घर के भीतर प्रवेश करने वाली नैसर्गिक उर्जाओं की प्रकृति में परिवर्तन कर देता है। 

इस सम्बन्ध में वास्तु शास्त्र में सभी दिशाओं में 32 अलग-अलग पद या भाग निर्धारित कर रखे है। इनमें से कुछ पद सकारात्मक होते है तो कुछ पद नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करने वाले होते है।

अलग-अलग दिशाओं में स्थित इन पदों में मुख्य द्वार के निर्माण पर अलग-अलग उर्जा क्षेत्रों का निर्माण होता है और जब ब्रह्मांडीय उर्जायें इन उर्जा क्षेत्रों से गुजर कर घर में प्रवेश करती है तो उनका शुभ या अशुभ प्रभाव उस घर के निवासियों पर पड़ता है। अगर ये उर्जायें वास्तु सम्मत दिशा में निर्मित मुख्य प्रवेश द्वार से गुजरती है तो ये घर के भीतर भी सकारात्मक माहौल का निर्माण करती है। और ऐसा ना होने पर यह घर में नकारात्मक उर्जा क्षेत्र (Negative Energy Fields) निर्मित करती है। 

विभिन्न भागों में स्थित कुल 32 पदों या द्वारों के प्रभाव -

उत्तर पूर्व दिशा में स्थित 3 भागों पर प्रवेश द्वार स्थित होने के प्रभाव – 

उत्तर पूर्व दिशा में दिति से लेकर पर्जन्य तक कुल 3 पद होते है।

32. दिति (NE1) – यह बचत में वृद्धि करता है।

1. शिखी (NE2) –  इस पर मुख्य द्वार का निर्माण अशुभ होता है। यह आर्थिक हानि देता है, अग्नि भय उत्पन्न करता है और दुर्घटनाओं का कारण बनता है।

2. पर्जन्य (NE3) –  यह द्वार फिजूल खर्चे का कारक होता है। हालांकि यह द्वार वास्तु शास्त्र के अनुसार कन्या जन्म का कारक भी होता है जो कि एक बेहद शुभ घटना है लेकिन चूँकि यह धन का अपव्यय करवाता है इसलिए इसे नकारात्मक श्रेणी में रखा जाता है।

पूर्व दिशा में प्रवेश द्वार स्थित होने के प्रभाव - 

पूर्व दिशा में जयंत से लेकर भृश तक कुल 5 पद होते है। इनमे से दो पद प्रवेश द्वार के निर्माण के लिए बेहद शुभ होते है जिन्हें 3 (जयंत) और 4 (इंद्र) के नाम से जाना जाता है। अन्य किसी पद पर मुख्य द्वार का निर्माण वास्तु सम्मत नहीं होता है और नकारात्मक परिणाम प्रदान करता है। 

3. जयंत (E1) – इस द्वार को वास्तु में जयंत के नाम से जाना जाता है। इस स्थान पर मुख्य द्वार का निर्माण आपको प्रचुर आर्थिक सम्पन्नता देगा, जीवन में सफलता प्रदान करेगा। अतः इस द्वार को बहुत शुभ माना जाता है।

4. महेंद (E2) – इसे वास्तु में इंद्र के नाम से जाना जाता है। यह भी जयंत के समान आर्थिक सम्पन्नता में वृद्धि का कारक होता है और घर के निवासियों को जीवन में सफलता प्रदान करता है।

5. रवि (E3) –  सूर्य के नाम से जाना जाने वाला यह द्वार अप्रिय नतीजे देता है। अनिर्णय की स्थिति, गलत निर्णय लेना और शोर्ट टेम्पर होना यानि कि छोटी-छोटी बातों पर भी क्रोध करना इस द्वार का परिणाम होता है।

6. सत्य (E4) – सत्य के नाम से प्रचलित यह द्वार अपने नाम के विपरीत प्रभाव देता है। इसमें रहने वाले निवासी विश्वास करने लायक नहीं होते है। ये अपने वादों पर कायम नहीं रहते है। इसके अतिरिक्त यह बेटियों के लिए भी हानिकारक होता है।

7. भृश (E5) – भृश नामक यह द्वार घर वालों को असंवेदनशील बनाता है और दूसरों के प्रति कठोर एवं निर्मम व्यव्हार की प्रवृति को बढाता है।

दक्षिण पूर्व दिशा में स्थित 3 भागों पर प्रवेश द्वार स्थित होने के प्रभाव –

दक्षिण पूर्व दिशा में नभ से लेकर पूषा तक कुल 3 पद होते है।

8. नभ (SE1) – यह द्वार चोरी का भय, आर्थिक हानि, दुर्घटनाये देता है।

9. अनिल (SE2) –  वास्तु शास्त्र में इस द्वार को अनिल के नाम से भी जाना जाता है। यह द्वार संतान (लडकों) के लिए हानिकारक होता है। यह द्वार बच्चे के साथ माता-पिता के सम्बन्ध ख़राब करता है। यह रोग प्रदान करने वाला भी होता है।

10. पूषा (SE3) – यह द्वार रिश्तेदारों से परेशानी पैदा करता है। हालाँकि यह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में काम करने वाले लोगो के लिए फायदेमंद होता है। परन्तु व्यापारियों को इस स्थान पर मुख्य द्वार नहीं बनाना चाहिए।

दक्षिण दिशा में स्थित 5 भागों पर प्रवेश द्वार स्थित होने के प्रभाव –

दक्षिण दिशा में वितथ से लेकर भृंगराज तक कुल 5 पद होते है। दक्षिण मुखी घरों के बारे में अक्सर यह भ्रम देखा जाता है कि इस दिशा में निर्मित भवन सदैव अशुभ परिणाम देते है जबकि ऐसा नहीं है। बल्कि इस दिशा में अन्य दिशाओं की भाँती दो ऐसे पद है जिन पर मुख्य द्वार का निर्माण आपको अपार सफलता और समृद्धि प्रदान करेगा। इन पदों को 11 (वितथ) और 12 (गृहक्षत) के नाम से जाना जाता है। दक्षिण दिशा में अन्य किसी पद पर मुख्य द्वार का निर्माण वास्तु सम्मत नहीं होता है और नकारात्मक परिणाम प्रदान करता है।

11. वितथ (S1) – समृद्धि और वैभव प्रदान करने वाला होता है। इस घर के निवासी अपना काम निकलवाने में दक्ष होते है। हालाँकि इसके लिए वे कभी-कभार अनुचित तरीके अपनाने में भी संकोच नहीं करते है। तो यह द्वार सम्पन्नता तो अवश्य प्रदान करता है लेकिन कही न कही यह घर के निवासियों को अविश्वसनीय भी बनाता है।

12. गृहत्क्षत (S2) – यह दक्षिण दिशा का सबसे शुभ पद होता है जिसपर मुख्य द्वार बनाया जा सकता है। यह धन और वैभव में वृद्धि का कारक होता है। ऐसे घरों में लड़कों का जन्म अधिक होता है। साथ ही यह निवासियों की अच्छी साख बनाता है और उन्हें प्रसिद्धि दिलाने में भी बेहद सहायक होता है।

13. यम (S3) – यह बहुत अशुभ नतीजे प्रदान करता है। यह ना सिर्फ कर्ज में डुबोता है बल्कि आर्थिक रूप से हानि भी देता है। अतः इस स्थान पर प्रवेश द्वार नहीं बनाये।

14. गंधर्व (S4) – यह पद गन्धर्व कहलाता है। इस स्थान पर मुख्य द्वार अपमान का कारण बनताहै। यहाँ उपस्थित उर्जा क्षेत्र प्रवेश द्वार के माध्यम से इतनी नकारात्मकता प्रदान करता है कि यहाँ के निवासियों को निंरतर आर्थिक हानि झेलनी पड़ती है और वे भयंकर दरिद्रता के शिकार हो जाते है।

15. भृंगराज (S5) – निवासियों द्वारा की गई कड़ी मेहनत भी बेनतीजा रहती है। परिणामतः श्रम करने की इच्छा भी समाप्त हो जाती है और जीवन से घोर निराशा होने लगती है।

दक्षिण पश्चिम दिशा में स्थित 3 भागों पर प्रवेश द्वार स्थित होने के प्रभाव –

दक्षिण पश्चिम दिशा में मृग से लेकर दौवारिक तक कुल 3 पद होते है।

16. मृग (SW1) – जैसा कि आपने देखा कि प्रवेश द्वार के लिए जैसे जैसे हम 12 (गृहक्षत) के पद से 16 पद की ओर बढ़ते जाते है नकारात्मक नतीजों में भी वृद्धि होती जाती है। इसी क्रम में दक्षिण पश्चिम दिशा का मृग पद सर्वाधिक अशुभ और गंभीर नतीजे प्रदान करने वाला होताहै। यहाँ के निवासियों का सम्पूर्ण खानदान और समाज से सम्बन्ध पृथक हो जाता है। धन की अपार हानि होती है और संतानों सहित परिवार के अन्य सदस्यों के लिए दुःख का कारण बनता है। इसलिए किसी भी हालत में इस स्थान पर मुख्य प्रवेश द्वार नहीं बनाया जाना चाहिए, यह वास्तु शास्त्र में सर्वथा वर्जित है। 

17. पितृगण (SW2) – पितृ के नाम से जाना गया यह द्वार गरीबी देता है और आयु पर भी नकारात्मक प्रभाव डालता है।

18. दौवारिक (SW3) – धन के अपव्यय का कारक है। असुरक्षा की भावना पैदा करता है और परिणामतः पारिवारिक सम्बन्धो में तनाव और नौकरी में अस्थिरता का कारण बनता है।

पश्चिम दिशा में स्थित 5 भागों पर प्रवेश द्वार स्थित होने के प्रभाव – 

पश्चिम दिशा में सुग्रीव से लेकर शोष तक कुल 5 पद होते है। इनमे से 19 (सुग्रीव) और 20 (पुष्पदंत) नामक दो पद शुभ होते है। वास्तु शास्त्र में पश्चिम दिशा में अन्य किसी पद पर निर्माण की सलाह नहीं दी जाती है।

19. सुग्रीव (W1) – सुग्रीव नामक यह पद पश्चिम दिशा में मुख्य द्वार के निर्माण के लिए बहुत शुभ होता है। यह आश्चर्यजनक धन लाभ और सम्पन्नता प्रदान करता है। 

20. पुष्पदंत (W2) – सुग्रीव के अतिरिक्त पुष्पदंत का पद भी आर्थिक लाभ में वृद्धि करता है। संतानों के लिए यह विशेषरूप से लाभकारी होता है। एक संतुलित जीवन जीने के लिए यहाँ पर प्रवेश द्वार निर्मित किया जा सकता है।

21. वरुण (W3) – यह पद मिश्रित लाभ प्रदान करता है। यह व्यक्ति को काम में परफेक्शनिस्ट तो बनाता है लेकिन साथ ही में यह व्यक्ति में अति महत्वाकांक्षा भी पैदा कर देता है। ऐसे में यह तनावग्रस्त संबंधो का कारण बनता है। हालाँकि यह व्यक्ति को संपन्न और समृद्ध भी बनाता है।

22. असुर (W4) – पश्चिम दिशा में स्थित यह पद नकारात्मा के नाम से प्रचलित है। यहाँ स्थित मुख्य द्वार डिप्रेशन प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त यह सरकारी कर्मचारियों के लिए विशेष रूप से हानिकारक है क्योंकि यह राजकीय भय या सरकारी भय उत्पन्न करता है और हानिकारक सिद्ध होता है।

23. शोष (W5) – आर्थिक हानि, पारिवारिक तनाव देता है। और परिणामतः यह द्वार निराशा से ग्रस्त व्यक्ति को कई बार नशे का आदी भी बना देता है।

उत्तर पश्चिम दिशा में स्थित 3 भागों पर प्रवेश द्वार स्थित होने के प्रभाव – 

उत्तर पश्चिम दिशा में पापयक्ष्मा से लेकर नाग तक कुल 3 पद होते है।

24. पापयक्ष्मा (NW1) – यह शारीरिक रोग देताहै। स्वार्थ के लिए अनुचित तरीके अपनाना इस द्वार का एक नकारात्मक परिणाम है। यह निवासियों (विशेषकर पुरुषों) को घर से बाहर रखता है और विदेशी दौरों के अवसर भी प्रदान करता है। 

25. रोग (NW2) – उत्तर में स्थित यह प्रथम द्वार वास्तु शास्त्र में ‘रोग’ के नाम से जाना जाता है। शत्रुओं से परेशानी का कारण बनता है और कभी-कभी यह परेशानी गंभीर रूप ले लेती है और हानिकारक परिणाम प्रदान करती है। यह निवासियों (विशेषकर स्त्रियों) को घर से बाहर रखता है और विदेशी दौरों के अवसर भी प्रदान करता है।

26. नाग (NW3) – शत्रुओं की संख्या में वृद्धि करता है और उनसे निरंतर भय बना रहता है। निवासियों में इर्ष्या की भावना रहती है और वे दूसरों के जीवन में अनुचित भाव से नजर रखते है। 

उत्तर दिशा में स्थित 5 भागों पर प्रवेश द्वार स्थित होने के प्रभाव – 

उत्तर दिशा में मुख्य प्रवेश द्वार के निर्माण के लिए अन्य किसी भी दिशा की अपेक्षा सर्वाधिक शुभ और सकारात्मक पद स्थित होते है। 

उत्तर दिशा में मुख्य से लेकर अदिति तक कुल 5 पद होते है। इनमे से तीन पद प्रवेश द्वार के निर्माण के लिए बेहद शुभ और वैभव सम्पन्नता प्रदान करने वाले होते है। इन्हें 27 (मुख्य) और 28 (भल्लाट) 29 (सोम) के नाम से जाना जाता है। उत्तर दिशा के अन्य किसी पद पर मुख्य द्वार का निर्माण वास्तु सम्मत नहीं होता है।

27. मुख्य (N1) – असीम धन की प्राप्ति होती है और इसमें निरंतर वृद्धि होती रहती है। इसके अतिरिक वास्तु शास्त्र के अनुसार यह पद पुत्र लाभ का भी कारक है। 

28. भल्लाट (N2) – उत्तर दिशा का यह पद भल्लाट कहलाता है। यह भी मुख्य के समान प्रचुर धन वर्षा करता है और साथ ही यह उतराधिकार में सम्पति भी प्राप्त करवाता है। धन कमाने के लिए यह निरंतर नए-नए अवसर प्रदान करता है। 

29. सोम (N3) – इस पद को सोम के नाम से भी जाना जाता है। यह द्वार भी आर्थिक समृद्धि और पुत्र लाभ प्रदान करता है। यह व्यक्ति को स्वाभाव से धार्मिक प्रवृति का बना देता है। 

30. सर्प (N4) – यह द्वार संतान के साथ झगडे और विवाद पैदा करता है। लोग यहाँ रहने वाले निवासियों के व्यव्हार के चलते उनसे दुरी बना कर चलते है। 

31. अदिति (N5) – अदिति नामक यह द्वार स्त्रियों के लिए विशेष रूप से हानिकारक सिद्ध होता है। स्त्रियों का स्वाभाव ख़राब करता है। इसके अतिरिक्त यह द्वार इंटर कास्ट मैरिज का कारण भी बनता है। 

इस प्रकार से आपने देखा कि प्रत्येक दिशा में शुभ द्वार भी होते है और अशुभ भी। आप स्वयं इन द्वारों के प्रभावों की प्रमाणिकता जांच सकते है। बिना कम्पास के भी आप किसी भवन में रहने वाले लोगो के जीवन में दिख रहे लक्षणों का मिलान उनके मुख्य द्वार की अवस्थिति का अंदाजा लगा के कर सकते है। 

हालाँकि घर का निर्माण करते वक्त या निर्मित घर में मुख्य द्वार के सम्बन्ध में वास्तु शास्त्र के जरिये समस्याओं का समाधान करने के लिए सटीकता से मुख्य द्वार की डिग्री ज्ञात करनी आवश्यक है। साथ ही भवन के अन्य पहलुओ पर भी पर्याप्त ध्यान देने की आवश्यकता है। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि आप अपने घर में किसी भी तरह का परिवर्तन वास्तु विशेषज्ञ की सहायता से ही करें और अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन को अनुभव करें।

वास्तु पुरुष ही ‘वास्तु-देवता’ कहलाते हैं। हिन्दू संस्कृति में इस देव की पूजा का जो विधान है वह पूजा साकार एवं निराकार दोनों प्रकार की होती है। साकार पूजा में देवता की प्रतिमा, यंत्र अथवा चक्र बनाकर पूजा करने का विधान है।

वास्तु देवता की पूजा के लिए वास्तु की प्रतिमा एवं चक्र भी बनाया जाता है, जो वास्तु चक्र के नाम से प्रसिद्ध है। वास्तु चक्र अनेक प्रकार के होते हैं। इसमें प्रायः 49 से लेकर एक सहस्त्र तक पद (कोष्ठक) होते हैं। भिन्न-भिन्न अवसरों पर भिन्न-भिन्न पद के वास्तु चक्र का विधान है। उदाहरण स्वरूप ग्राम तथा प्रासाद एवं राजभवन आदि के अथवा नगर-निर्माण करने में 64 पद के वास्तु चक्र का विधान है। समस्त गृह-निर्माण में 81 पद का, जीर्णोद्धार में 49 पद का, प्रासाद में तथा संपूर्ण मंडप में 100 पद का, कूप, वापी, तडाग और उद्यान, वन आदि के निर्माण में 196 पद का वास्तु चक्र बनाया जाता है।

सिद्धलिंगों की प्रतिष्ठा, विशेष पूजा-प्रतिष्ठा, महोत्सवों, कोटि होम-शांति, मरुभूमि में ग्राम, नगर राष्ट्र आदि के निर्माण में सहस्त्रपद (कोष्ठक) के वास्तु चक्र की निर्माण और पूजा की आवश्यकता होती है। जिस स्थान पर गृह, प्रासाद, यज्ञमंडप या ग्राम, नगर आदि की स्थापना करनी हो उसके नैऋत्यकोण में वास्तु देव का निर्माण करना चाहिये। सामान्य विष्णु-रुद्रादि यज्ञों में भी यज्ञ मंडप में यथास्थान नवग्रह, सर्वतोभद्र मंडलों की स्थापना के साथ-साथ नैऋर्त्यकोण में वास्तु पीठ की स्थापना आवश्यक होती है और प्रतिदिन मंडलस्थ देवताओं की पूजा-उपासना तथा यथा-समय उन्हें आहुतियाँ भी प्रदान की जाती हैं। किंतु वास्तु-शांति आदि के लिए अनुष्ठीयमान वास्तुयोग-कर्म में तो वास्तुपीठ की ही सर्वाधिक प्रधानता होती है। वास्तु पुरुष की प्रतिमा भी स्थापित कर पूजन किया जाता है। वास्तु देवता का मूल मंत्र इस प्रकार है-

वास्तोष्पते प्रति जानीह्यस्मान् त्स्वावेशो अनमीवो भवानः।
यत्त्वेमहे प्रतितन्नोजुष- स्वशं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे।।

(ऋग्वेद 7।54।1)
इसका भाव इस प्रकार है - हे वास्तुदेव! हम आपके सच्चे उपासक हैं, इस पर आप पूर्ण विश्वास करें और तदनन्तर हमारी स्तुति- प्रार्थनाओं को सुनकर आप हम सभी उपासकों को आधि-व्याधि से मुक्त कर दें और जो हम अपने निवास क्षेत्र में धन-ऐश्वर्य की कामना करते हैं, आप उसे भी परिपूर्ण कर दें, साथ ही इस वास्तु क्षेत्र या गृह में निवास करने वाले हमारे स्त्री-पुत्रादि परिवार-परिजनों के लिए कल्याणकारक हों तथा हमारे अधीनस्थ वाहन तथा समस्त कर्मचारियों का भी कल्याण करें।

वैदिक संहिताओं के अनुसार वास्तोष्पति साक्षात् परमात्मा का ही नामान्तर है क्योंकि वे विश्व ब्रह्माण्ड रूपी वास्तु के स्वामी हैं। आगमों एवं पुराणों के अनुसार वास्तु पुरुष नामक एक भयानक उपदेवता के ऊपर ब्रह्मा, इन्द्र आदि अष्टलोकपाल सहित 45 देवता अधिष्ठित होते हैं, जो वास्तु का कल्याण करते हैं। कर्मकाण्ड ग्रन्थों तथा गृह्य सूत्रों में इनकी उपासना और हवन आदि के अलग-अलग मंत्र निर्दिष्ट हैं। यद्यपि कूप, वापी, ग्राम, नगर और गृह तथा व्यापारिक संस्थान आदि के निर्माण में विभिन्न प्रकार के कोष्ठकों के वास्तु मंडल की रचना का विधान है; किंतु उनमें मुख्य उपास्य देवता 45 ही होते हैं। हयशीर्षपांचरात्र, कपिलपांचरात्र, वास्तुराजवल्लभ आदि ग्रंथों के अनुसार प्रायः सभी वास्तु संबंधी कृत्यों में एकाशीति (81) तथा चतुष्पष्टि (64) कोष्ठात्मक चक्रयुक्त वास्तु वेदी के निर्माण करने की विधि है। इन दोनों में सामान्य अंतर है। एकाशीति पद वास्तुमंडल की रचना में उत्तर-दक्षिण और पूर्व- पश्चिम से 10-10 रेखाएं खींची जाती हैं और चक्र-रचना के समय 20 देवियों के नामोल्लेखपूर्वक  नमस्कार-मंत्र से रेखाकरण- क्रिया सम्पन्न की जाती है।

विभिन्न उपलक्षों पर वास्तुपुरुष के पूजन का अनिवार्य रूप से विधान है। भगवान ब्रह्मा जी के वरदान स्वरूप जो भी मनुष्य भवन, नगर, उपवन आदि के निर्माण से पूर्व वास्तुपुरुष का पूजन करेगा वह उत्तम स्वास्थ्य एवं समृद्धि संपन्न रहेगा। यूँ तो वास्तु पुरुष के पूजन के अवसरों की एक लंबी सूची है लेकिन मुख्य रूप से वास्तु पुरुष की पूजा भवन निर्माण में नींव खोदने के समय, गृह का मुख्य द्धार लगाते समय, गृह प्रवेश के समय, पुत्र जन्म के समय, यज्ञोपवीत संस्कार के समय एवं विवाह के समय अवश्य करनी चाहिए।

देवताओं ने वास्तु पुरुष से कहा तुम जैसे भूमि पर पड़े हुए हो वैसे ही सदा पड़े रहना और तीन माह में केवल एक बार ही दिशा बदलना।

उपर्युक्त तथ्यों को देखते हुए हमे किसी भी प्रकार का निर्माण कार्य वास्तु के अनुरूप ही करना चाहिए।

अगर वास्तुपुरुष की इस औंधे मुंह लेटी हुई अवस्था के अनुसार भूखंड की लंबाई और चौड़ाई को 9-9 भागों में बांटा जाए तो इस भूखंड के 81 भाग बनते हैं जिन्हें वास्तुशास्त्र में पद कहा गया है जिस पद पर जो देवता वास करते हैं उन्हीं के अनुकूल उस पद का प्रयोग करने को कहा गया है। वास्तुशास्त्र में इसे ही 81 पद वाला वास्तु पुरुष मंडल कहा जाता है।

निवास के लिए गृह निर्माण में 81 पद वाले वास्तु पुरुष मंडल का ही विन्यास और पूजन किया जाता है। समरांगण सूत्रधार के अनुसार वास्तु पुरुष मंडल में कुल 45 देवता स्थित है। जिसमे मध्य के 9 पदों पर ब्रह्मदेव स्वयं स्थित हैं।

ब्रह्म पदों के चारो ओर 6-6 पदों पर पूर्व में अर्यमा (आदित्य देव), दक्षिण में विवस्वान (मृत्युदेव), पश्चिम में मित्र (हलधर) तथा उत्तर में पृथ्वीधर (भगवान अनंत शेषनाग) स्थित हैं। ये मध्यस्थ देव हैं।

ठीक इसी प्रकार मध्यस्त कोणों के भी देव हैं - ईशान्य में आप (हिमालय) और आपवत्स (भगवान शिव की अर्धांगिनी उमा), आग्नेय में सविता (गंगा) एवं सावित्र (वेदमाता गायत्री) नैऋत्य में जय (हरि इंद्र) तथा वायव्य में राजयक्ष्मा (भगवान कार्तिकेय) और रुद्र (भगवान महेश्वर) जो एक-एक पदों पर स्थित हैं।

फिर वास्तुपुरुष मंडल के बाहरी 32 पदों के देव हैं - शिखी (भगवान शंकर), पर्जन्य (वर्षा के देव वृष्टिमान), जयंत (भगवान कश्यप), महेंद्र (देवराज इंद्र), रवि (भगवान सूर्यदेव), सत्य (धर्मराज), भृश (कामदेव), आकाश (अंतरिक्ष-नभोदेव), अनिल (वायुदेव-मारुत), पूषा (मातृगण), वितथ (अधर्म), गृहत्क्षत (बुधदेव), यम (यमराज), गंधर्व (पुलम- गातु), भृंगराज व मृग (नैऋति देव), पित्र (पितृलोक के देव), दौवारिक (भगवान नंदी, द्वारपाल), सुग्रीव (प्रजापति मनु), पुष्पदंत (वायुदेव), वरुण (जलों-समुद्र के देव लोकपाल वरुण देव), असुर (सिंहिका पुत्र राहु), शोष (शनिश्चर), पापयक्ष्मा (क्षय), रोग (ज्वर), नाग (वाशुकी), मुख्य (भगवान विश्वकर्मा), भल्लाट (येति, चन्द्रदेव), सोम (भगवान कुबेर), भुजग (भगवान शेषनाग), अदिति (देवमाता, मतांतर से देवी लक्ष्मी), दिति (दैत्यमाता) हैं । इनमें से 8 अंदर के एक-एक अतिरिक्त पदों के भी अधिष्ठाता हैं।

भवन के भूखंड में वास्तु-पुरुष के नीचे अधोमुख पड़े होने की परिकल्पना की गई है। वास्तु-पुरुष के अंगों पर कई देवों का वास है। वास्तु-पुरुष एक महाभूत है और इसका भवन के नीचे अधोमुख पड़ा होना उसकी नियति। अधोमुख वास्तु-पुरुष की एक विशेष मुद्रा है। इस मुद्रा-आलेख को ध्यान में रखकर भूखंड के विभिन्न भागों पर रहे देवों की परिकल्पना की गई है।

समरांगण सूत्रधार के अनुसार वास्तु पुरुष मंडल में कुल 45 देव स्थित हैं। इस के मध्य के नौ पदों पर कमल-भू-ब्रह्मा स्वयं स्थित है। ब्रह्म पदों के चारों ओर छ:-छ: पदों पर पूर्व में अर्यमा, पश्चिम में में मित्र, उत्तर में पृथ्वीधर तथा दक्षिण में विवस्वान स्थित हैं। ये मध्स्थ देव हैं। इसी प्रकार मध्यस्थ कोणों के देव हैं - आग्नेय में सविता एवं सावित्र, नैऋत्य में जय और इंद्र, वायव्य में पापयक्ष्मा और रूद्र तथा ईशान में आप और आपवत्स, जो एक-एक पदों पर स्थित हैं। वास्तु पुरुष मंडल के बाहरी 32 पदों के देव है - शिखी, पर्जन्य, जयंत, इंद्र, रवि, सत्य, भृश, नभ, अनिल, पूषा, वितथ, गृहक्षत, यम, गंधर्व, भृंगराज, मृग, पितृगण, दौवारिक, सुग्रीव, पुष्पदंत, वरुण, असुर, शोष, पापयक्ष्मा, रोग, नाग, मुख्य, भल्लाट, सोम, चरक, अदिति तथा दिति। इनमें से आठ अंदर के एक-एक अतिरिक्त पदों के भी अधिष्ठाता हैं।

मत्स्य पुराण के अनुसार बुध पुरुषों को भवन के विभिन्न पदों पर स्थित देवों में बत्तीस देवों का पूजन बाह्य में तथा अंत में तेरह देवों का पूजन करना चाहिए।

वास्तु पुरुष मंडल में स्थित शिखी या अग्नि वस्तुतः मोक्षदाता भगवान शंकर ही हैं। पर्जन्य नाम वाले देव कोई और नहीं, जल के देव वृष्टिमान हैं। भगवान कश्यप को जयंत कहा गया है तथा विवस्वान नाम से आदित्य को पुकारा गया है। सत्य नाम से धर्म तथा भृश नाम से कामदेव को पुकारा गया है। अंतरिक्ष को नभोदेव के लिए, मारुत को वायु देव के लिए तथा पूषा को मातृगण के लिए प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार वितथ नाम से अधर्म को, ग्रहक्षत नाम से बुध को, यम तथा गृहत्क्षत नाम से नारद देव को संबोधित किया गया है। निऋति देव को भृंगराज तथा मृग नाम की संज्ञा दी गई है। वास्तु पुरुष में पितृ लोक के देवों को पितृगण नाम से, दौवारिक नाम से नंदी को, सुग्रीव के नाम से सृष्टिकर्ता मनु को, पुष्पदंत के नाम से वायुदेव को, वरुण नाम से जलो के मालिक एवं लोकपाल समुद्र का आवाहन किया गया है। असुर नाम से राहु, शोष नाम से शनिश्चर, पाप-यक्ष्मा नाम से क्षय तथा रोग नाम तथा रोग नाम से ज्वर को प्रतिपादित किया है। नाग नाम से सर्पों के मालिक वासुकि शेषनाग का संबोधन किया गया है। उसी प्रकार मुख्य नाम से विश्वकर्मा देव को, भल्लाट नाम से चंद्रदेव को तथा अदिति नाम से देवी लक्ष्मी को पूजित किया गया है। वास्तु पुरुष की परिकल्पना में दिति के नाम से भगवान शंकर को, आप नाम से हिमालय को, आपवत्स नाम से भगवान शिव की अर्धांगिनी उमा को, अर्यमा नाम से आदित्य देव को, सावित्र नाम से वेदमाता गायत्री का आवाहन किया गया है। सविता नाम नदियों में श्रेष्ठ गंगा के लिए आया है तथा विवस्वान नाम को मृत्यु के लिए पुकारा गया है। वास्तु स्थित देवगणों में जय नाम से हरि इंद्र को, मित्र नाम से हलधर, रूद्र नाम से महेश्वर, राजयक्ष्मा नाम से कार्तिकेय तथा पृथ्वीधर से भगवान अनंत शेषनाग देव को आवाहन किया गया है।

वास्तु पुरुष मण्डल (ब्रम्हा जी का मनस पुत्र ) वस्तुतः आप के ही अवचेतन मन का विस्तृत स्वरूप है।

वास्तु पुरुष मंडल वास करने लायक स्थान का विस्तार है जिसके कुछ गुण धर्म है। कुछ सुखद जो देव है तो कुछ दुःखद जिन्हें असुर कहा गया।

वास्तु के 45 ऊर्जा क्षेत्र :-

ब्रह्मा (creator):- उत्पत्ति कारक, जीवनदायनी शक्ति, रचनाकार।

भूधर (manifestor):- अस्तित्त्व में लाने वाली शक्ति है।

अर्यमा (connector):- अस्त्तित्व में आने के बाद उसका विकास का दायित्व ओर अन्य पदार्थो से जोड़ने वाली शक्ति अर्यमा है।

विवस्वान (illuminator):- सत्ता का अस्तित्त्व में आने (भूधर) और विकास प्रक्रिया (अर्यमा) के बाद जो परिवर्तन होता है वो इसी शक्ति का कार्य है।

मित्र (friends):- प्रेरणादायक शक्ति जो किसी सत्ता को घटित कराने में सहायक है।

आप (immune system):- रोग प्रतिरोधक शक्ति। रोग ओर भय का नाश करने वाली शक्ति है।

आपवत्स:- वाहक है जो ओषधियों तत्वों को रोग तक लेकर जाता है।

सविता:- प्रेरित करके किसी भी कार्य को शुरू कराने वाली शक्ति है।

सावित्र:- पुष्टिकारक देव जो जीवन में आगे बढ़ने की इच्छा को बल प्रदान करते है।

इन्द्र:- जीवन और धन के रक्षक है।

जय (skill):- ये वो हथियार है जो जीवन में किसी भी क्षेत्र में विजय दिलाकर दक्षता प्रदान करता है।

रुद्र (movement):- जीवन की प्रत्येक गतिविधियों को प्रवाहमान बनाये रखने की शक्ति रुद्र देव है।

राजयक्ष्मा:- रुद्रदेव के प्रवाह को एक सीमा में बाँध कर रखने वाली शक्ति है।

अदिति:- भू देवी, आत्मसाक्षातकार कराने वाली शक्ति है।

दिति:- मन की स्पष्टता के साथ निर्णय लेना तथा स्वतन्त्र विचार और विशाल दृष्टिकोण प्रदान करने वाली शक्ति है।

शिखि:- आदियोगी (शिव) का तीसरा नेत्र। विचारों में ज्ञान प्रकाश जो ओरो को रोशन कर दे।

पर्जन्य (rainmaker):- धरती माँ (अदिति) के अन्दर गुणवत्ता बढ़ाने वाली शक्ति है।

भृश (tapas):- मंथन क्रिया के बाद नई वस्तु (महत) का अस्तित्व में आना भृश शक्ति से है।

अंतरिक्ष (inner space):- मानसिक विकास प्रक्रिया का घटित होने वाला क्षेत्र आकाश है जहाँ भृश की शक्ति भी कार्य करती है।

अनिल (uplift):- आकाश में जो प्रक्रिया घटित हो रही है उसमे लगने वाला बल अनिल की शक्ति है। ऊपर उठने का भाव।

पूषा (navigator):- जीवन की पोषण शक्ति। बल को बढ़ाने वाली शक्ति है।

भृंगराज:- जीवन में अनावश्यक चीजों को हटाकर व्यक्ति को प्रतिभाशाली बनाती है।

मृग:- जिज्ञासा उत्पन्न करके किसी विषय को रगड देने (अभ्यास, अनुसन्धान) के बाद प्राप्त दक्षता मृग शक्ति से आती है।

पितृ:- धन, पुत्र, वधु, वंश वृद्धि, पारिवारिक समस्त सुख का कारक है।

दौवारिक:- पूर्वजों के ज्ञान को सँजोने की शक्ति। धन औऱ विद्या के रक्षक है।

शोष (dryer):- सोखने की शक्ति। जल बहाव (रोदन) की जो प्रक्रिया रुद्र शुरू करते है उसे रुद्र-सहायक असुर शोष ही पूरा करते है।

पापयक्ष्मा:- जीवन में जो बुरी आदते (शराब या ड्रग्स) लत बनने लगती है पापयक्ष्मा ऊर्जा क्षेत्र असन्तुलित होने के कारण होता है।

रोग:- व्यक्ति की कमजोरी ओर मिलने वाली मदद का निर्णय ये शक्ति करती है।

नाग:- कामदेव का अस्त्र। काम वृतियों को संचालित करने वाली शक्ति। किसी व्यक्ति की कमजोरी (रोग) वरुण के नाग पाश अस्त्र जो कभी कभी एक शस्त्र के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है।

जयन्त:- मानसिक जीत का भाव जो व्यक्ति को सफल बनाता है।

महेन्द्र:- इन्द्रयों के अधिपति। एक कुशल प्रशासक जो एक संगठन से कार्य कराता है, मैन कन्ट्रोलर की ऊर्जा है।

सूर्य:- (जगत आत्मा) किसी भी व्यवस्था की आत्मा है। "तद दृष्टा स्वरूपे अवस्थानम्"।

सत्य:- समाज में सत्यता और प्रतिष्ठा। मान सम्मान।

वितथ:- व्यक्ति का दिखावा और बनावटीपन इसी शक्ति की देन है।

गृहक्षत:- मन का कन्ट्रोलर। मन के दायरे का नियंत्रित करने वाली शक्ति है।

यम:- रूल फ़ॉलो कराने वाली शक्ति। सेल्फ कन्ट्रोल मॉरल ड्यूटी का अभिज्ञान कराने वाली ऊर्जा यम है।

गन्धर्व:- शरीर के अंदर अमृत तत्वों को संरक्षित करने वाली शक्ति गन्धर्व है।

सुग्रीव:- धन और विद्या ग्रहण करने की शक्ति। बाल्यकाल से ही ग्रहण करने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। किसी भी विषय को आत्मसात करने में ये शक्ति ही मदद करती है।

पुष्पदन्त:- वरदायिनी शक्ति। कुबेर का वाहन जो उन्नति और इच्छाओं की पूर्ति करता है।

वरुण:- ऑब्जर्वर (1000 नेत्रो से युक्त)। पूरे विश्व का नियंत्रक। सभी देवी देवताओ की मूर्ति की स्थापना इसी ऊर्जा क्षेत्र में कराकर इच्छाओ की पूर्ति की जाती है।

असुर:- वरुण के सहायक। मायावी असुर है। जो मायावी शक्ति को उत्पन करते है।

मुख्य:- वरुण का मैनेजर। संसार को चलाये रखने के लिये वरुण की निजी व्यवस्था की देखरेख इसी ऊर्जा के जिम्मे है।

भल्लाट:- भर भर के देने वाली ऊर्जा। भल्लाट की शक्ति ही हमारे प्रयासों ओर उन प्रयासों को सार्थक कर मैंनिफैस्टशन को विशाल स्वरूप प्रदान करती है।

सोम:- जादुई पेय पदार्थ। धन का आवाहन करने वाली शक्ति है।

भुजंग:- स्वास्थ्य ओर धन प्रवाह के कारक। औषिधियो और पाताललोक की निधियों के रक्षक है।

विभिन्न पदों पर स्थित देव उस भूभाग के अधिष्ठाता हैं तथा अपनी प्रकृति के अनुरूप फल देते है।

वास्तु के 45 देवता एवं उनके गुण-धर्म - Attributes of 45 Devtas (Energy Fields)

वास्तु पुरुष मण्डल (Vastu Purush Mandal) के 45 देवता -

1. शिखी - Shikhi (NE) :

• शिव का तीसरा नेत्र।
• किसी भी विचार की कल्पना करने की शक्ति।
• यहां रखा भारी सामान भी असंतुलन का कारण बन सकता है।
• आंखों की रोशनी के मुद्दे।
• यहां कार्यालय का गेट बिजली से संबंधित समस्याओं का कारण होगा।
• यहाँ प्रवेश द्वार आग, दुर्घटना और नुकसान देता है।
• यहाँ रसोई होने से परिवार के लोगों में गुस्सा और निराशा होती है, बहुत सारी मानसिक अशांति होती है।
• यहाँ पर एक स्टोर अवरुद्ध दिमाग सेट (Blocked Mindset) का कारण बनता है।
• यहां एक शौचालय मानसिक दोषों से जुड़ा हो सकता है।
• लंबे समय तक यहां बैठने से जीवन में उदासीनता आ सकती है।

2. पर्जन्य - PARJANYA (NE) :

• ध्यान करने के लिए सबसे अच्छी जगह। अंतर्दृष्टि देता है।
• यहाँ पर वनस्पति और जीव-जंतु (Flora and Fauna) उपयुक्त हैं।
• पुरुषों की तुलना में अधिक महिला जन्म।
• पुरुषों की तुलना में घर की महिलाओं को अधिक प्रभावित करता है।
• मादा (Females) अधिक बोल्ड और हावी हैं।
• अगर यहाँ शौचालय है तो बहुत सारे प्रयास बिना किसी परिणाम के।
• असंतुलन होने पर महिलाओं को फर्टिलिटी संबंधी समस्याएं।
• यहाँ वाशिंग मशीन - महिलाएँ गर्भधारण नहीं कर सकती हैं।
• डस्टबिन गाँठ / सिस्ट (Cyst) का कारण बन सकता है।
• अगर यहाँ रसोई है तो कोई पर्याप्त रिटर्न नहीं।
• मदर चाइल्ड फोटो उनके रिश्ते को बेहतर बनाता है।
• फूलों का गुलदस्ता अच्छा परिणाम देता है।
• फलों की टोकरी सम्पन्नता (Abundance) देती है।
• यहाँ प्रवेश व्यय भी देता है।

3. जयन्त - JAYANT (ENE) :

• सभी कार्यों में सफलता।
• सही लक्ष्य, उत्साह और विचार।
• यहाँ रखी तलवार, भाषा को आलोचनात्मक और कड़वा बना सकती है।
• यहाँ बेडरूम एक व्यक्ति को स्मार्ट बनाता है।
• शौचालय का बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, वे अच्छी तरह से अपने विचार व्यक्त नहीं कर पाएंगे। बहुत सरल और शर्मीले होंगे।
• कभी-कभी, काले रंग या सर्कल की उपस्थिति नकारात्मक प्रभाव देती है।
• शराब भंडारण या बुक स्टोर सामाजिक मेलजोल के संदर्भ में लाभ देगा।
• यहां पौधे बहुत अच्छे हैं।
• यह साम दाम दंड भेद सिखाता है। कूटनीति
• यहां प्रवेश द्वार ने निवासियों को हर उस चीज से लैस किया जो उन्हें भौतिकवादी दुनिया - धन, लाभ और सफलता का आनंद लेने में मदद करती है।
• यहाँ रहने का कमरा और भोजनकछ अच्छा है।
• मन पर प्रभाव।
• रचनात्मक समाधान के साथ मदद करता है।
• कर्मठ और दृढ़ संकल्प।

4. महेंद्र (देवराज इंद्र) - MAHENDRA (INDRA) (E) :

• महान सहयोग, शक्तिशाली संपर्क, विलासिता, धन देता है।
• यदि किसी को शक्तिशाली संपर्कों की आवश्यकता है, तो उसको इस क्षेत्र का इलाज करने की आवश्यकता है।
• इंद्र के साथ वरुण और यम का संतुलन। परिणाम बेहतर होंगे।
• यहाँ कार्यालय में टेबल-कुर्सी कंपनी में शीर्ष स्थान देती है।
• यदि ज़ोन संतुलित है, तो अशोक स्तंभ डालें। सरकार से संबंधित लाभ देता है।
• शौचालय हो तो प्रयासों की कोई मान्यता नहीं। सामाजिक रूप से, परिवार को नीचा दिखाया जाएगा।
• यहां बेडरूम के साथ शक्तिशाली कनेक्शन।
• यहाँ रहने का कमरा लाभकारी कनेक्शन देता है।
• यहां सोने से लोगों का स्वभाव और पसंद बदल जाता है।
• समाज में सर्वश्रेष्ठ के साथ जुड़ना पसंद करता है।
• इस क्षेत्र में काले रंग ने कुछ मामलों में नकारात्मक प्रभाव दिखाया है। काला शनि का प्रतिनिधित्व करता है।
• इस क्षेत्र में नारंगी रंग की उपस्थिति सकारात्मक परिणाम देती है।

5. सूर्य - SURYA (E) :

• आत्म या आत्मा।
• अभिभावक पावर और सिस्टम के नियंत्रक।
• दूरदर्शिता और अवलोकन शक्ति बढ़ जाती है।
• नियंत्रण केवल महान अवलोकन के साथ आता है।
• 9 ग्रहों के प्रमुख।
• 7 घोड़ों के रथ द्वारा चित्रित।
• यह निवासियों की ऊर्जा और शक्ति को संतुलित करता है।
• यहाँ दरवाजा छोटा स्वभाव और आक्रामक व्यवहार देता है।
• यदि बॉस यहां बैठा है, तो उसे लगता है कि काम का माहौल उसके नियंत्रण में नहीं है।
• यहाँ भगवान विष्णु का पोस्टर या मूर्ति बहुत लाभदायक है।
• यहाँ अग्नि तत्व के कमजोर होने पर कॉपर सन की उपस्थिति उचित है। अगर दक्षिण भी कमजोर है, तो भी तांबे का सूरज फायदेमंद हो सकता है।
• पीतल का सूरज आम तौर पर फायदेमंद होता है।
• यदि यह ऊर्जा क्षेत्र कमजोर है, तो घर के पुरुष बहुत मधुर और नरम होते हैं।
• रसोई से आक्रामकता आएगी।
• नारंगी रंग सकारात्मक परिणाम लाएगा।
• घर या कार्यालय में चीजें बहुत व्यवस्थित होंगी, और अगर यह क्षेत्र कमजोर है तो व्यवस्थित नहीं होंगी।
• इस ऊर्जा क्षेत्र में असंतुलन पुरुषों में सेक्स ड्राइव की कमी से जुड़ा हो सकता है।
• अगर घर का मालिक शिकायत करता है कि "कोई भी मेरी बात नहीं सुनता है", तो इस क्षेत्र की जाँच करें।
• मंदिर के प्लेसमेंट ने कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं दिखाया है।

6. सत्य - SATYA (E) :

• सद्भावना और विश्वसनीयता निर्माता।
• सूर्या के बहुत करीब है।
• यह सही सोच की शक्ति प्रदान करता है।
• प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए प्रोत्साहित करता है।
• सबसे बड़ी प्रतिबद्धता विवाह है। यदि विवाह में चुनौतियां हैं, तो इस क्षेत्र में असंतुलन को संतुलित करने की आवश्यकता है।
• यहां असंतुलन व्यक्ति को एक साथी से दूसरे में जाने के लिए मजबूर कर देगा।
• यहां आईना खतरनाक हो सकता है।
• असंतुलित होने पर अन्य लोग भी आपके प्रति अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करने में विफल होते हैं।
• हरे पौधे ठीक हैं लेकिन नीले रंग ने कुछ मामलों में नकारात्मक प्रभाव दिखाया है। लोग अपना वादा पूरा नहीं करेंगे।

7. भृश - BHRISHA (ESE) :

• दो चीज़ों को रगड़ने से कुछ निकलता है।
• इस क्षेत्र के कमजोर होने पर कार्रवाई को अंजाम नहीं दिया जाएगा।
• यदि यह क्षेत्र कमजोर है, तो अत्यधिक सोचेंगे, इसलिए अंतिम परिणाम पर असर होगा।
• मिक्सर-ग्राइंडर रखकर संतुलित किया जा सकता है।
• कमजोर होने पर विश्लेषणात्मक क्षमता में गड़बड़ी होती है।
• यहां कट (Cut) होने से कोई निर्णय नहीं होगा।
• सफेद रंग ने यहां नकारात्मक प्रभाव नहीं दिखाया है।
• यह काम देवता है, यहां की ऊर्जा इच्छाएं पैदा करती है।
• नीला रंग समस्याओं का सबसे बुरा कारण हो सकता है।
• सीवरेज की उपस्थिति यहाँ प्रतिकूल परिणाम देती है।
• धातु कला और शो पीस वांछनीय नहीं हैं।
• यहां सिलाई मशीन से बीपी में उतार-चढ़ाव और चिंता होती है।
• यहां सो रहे बुजुर्ग दंपति - पत्नी लगातार बीमार हो सकती है।
• यदि सोच / विश्लेषण अच्छा नहीं है, तो इस क्षेत्र की जाँच करें।
• यदि बॉस यहां बैठा है, तो वह बहुत सख्त है और इस तरह भविष्य में समस्याएं पैदा होती हैं।
• डस्टबिन हमेशा यहां अनुकूल नहीं हो सकता है।
• कामधेनु को यहां रखा जाए।

8. आकाश - AAKASH (SE) :

• पृथ्वी और स्वर्ग के बीच का स्थान।
• यहां किसी भी घटना के घटित होने के लिए आवश्यक ऑक्सीजन है।
• घटना का घटित होना केवल आकाश के माध्यम से संभव है।
• यदि भुगतान या विवाह किसी कारण से रुका हुआ है (अटक गया है), तो इस क्षेत्र को देखें।
• द्वार से आर्थिक नुकसान होता है।
• यदि आप यहां कुछ भी रखते हैं, तो लोग इसे पहचानेंगे और इसकी सराहना करेंगे।
• यदि यह क्षेत्र कमजोर है, तो चोरी की उच्च संभावना है।
• श्री यंत्र यदि यहां रखा गया है तो सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं।
• लाल बल्ब का प्लेसमेंट अच्छा है।
• असंतुलन होने पर आक्रामकता और शरीर पर चकत्ते देता है।
• कॉपर इस क्षेत्र को संतुलित करने के लिए अच्छा है।
• शुक्र का क्षेत्र, किसी प्रकार का असंतुलन होने पर पुरुषों की तुलना में महिलाओं को अधिक प्रभावित करता है।
• इस क्षेत्र में कटौती (Cut), घर का बड़ा बेटा घर से दूर है और परिवार का हिस्सा नहीं है।
• अगर कोई दुकान है, तो यह जीवन में सुखद घटनाओं पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।

9. अनिल - ANIL (SE) :

• पवन ऊर्जा के भगवान।
• अगर कोई कहता है, "काम शरु ही नहीं हो तो रहा है" , तो इस ऊर्जा क्षेत्र की जाँच करें।
• यहाँ दरवाजा बड़े बेटे को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।
• अगर ऊर्जा में गड़बड़ी है, तो प्रसव के मामले में वीर्य की गिनती कम है।
• सोने से महिलाओं में बेचैनी हो सकती है।
• पीले रंग की उपस्थिति से भारी नकदी संकट हो सकती है।

10. पूषा - PUSHA (SE) :

• यह पौष्टिक है जैसे माँ एक बच्चे का पोषण करती है।
• घी रखने के लिए सबसे अच्छी जगह।
• पैसे सहित हर चीज की सुरक्षा।
• यदि भुगतान अवरुद्ध है। इस क्षेत्र की जाँच करें।
• यह आग जारी रखने के लिए ईंधन बन जाता है।
• अवरुद्ध धन वापस पाने के लिए यहां एक लाल चटाई रखें।
• यदि माँ की कोख में बच्चे की वृद्धि संतोषजनक नहीं है, तो सर्वोत्तम परिणामों के लिए लाल रंग की चटाई और घी रखें।
• असंतुलन से पारिवारिक संबंध में समस्या होती है।
• यहां रखी गई पारिवारिक तस्वीरें परिवार के सदस्यों के बीच के संबंध को मजबूती से बढ़ाती हैं।
• यहाँ नीला रंग शरीर को कमज़ोर दिखाता है।
• यहाँ असंतुलन होने पर बच्चे आत्मनिर्भर नहीं होंगे।
• यदि यह क्षेत्र असंतुलित है तो कोई व्यक्ति किसी के अधीन काम करेगा।
• यहाँ टॉयलेट बनने से बच्चे का बुरा विकास होगा।
• फैमिली बॉन्डिंग को बेहतर बनाने के लिए फेविकोल ट्यूब रखें।
• वहां शक्ति दिखाते हुए हनुमान जी की फोटो रखें।

11. वितथ - VITATHA (SSE) :

• प्रीटेंडर। असत्य .. मिथ्यात्व से संबद्ध।
• जब यह क्षेत्र बढ़ाया जाता है, तो परिवार के सभी सदस्य अपने आप को बहुत समझते हैं।
• यदि क्षेत्र संतुलित है, तो आत्मविश्वास बहुत अच्छा है।
• असंतुलन केवल शो-ऑफ का कारण बनेगा
• यहां द्वार अनैतिक साधनों का उपयोग कर सकते हैं।
• लोग झूठे वादे करते हैं
• यहां पर सोते हुए लोग बहुत ज्यादा बॉस हो जाते हैं।
• यहां शौचालय, लोगों को यह महसूस करने का कारण बन सकता है कि उनकी क्षमताएं सीमित हैं। स्वयं की भावनाओं को हीन बनाता है।
• द्वार समृद्धि और प्रचुरता देता है।
• संतुलित होने पर आत्मविश्वास।

12. गृहक्षत - GRUHAKSHAT (S) :

• गृह का अर्थ है मन और अक्षत का अर्थ है दायरा (मन का दायरा)।
• आत्म नियंत्रण में मदद करता है।
• सभी इच्छाओं में सफलता प्राप्त करने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है।
• मन की सीमा को परिभाषित करता है।
• असंतुलन होने पर लोग अपनी जिम्मेदारियों को भूल जाते हैं और तनावमुक्त हो जाते हैं और आकस्मिक रवैया अपनाते हैं।
• यहाँ द्वार महान है। निवासी जीवन का आनंद लें।
• नीले रंग के कारण कोर्ट केस या गलतफहमी हो सकती है।
• असंतुलन के कारण संघर्ष और प्रतिबद्धता विफलता। दोस्तों की बुरी संगति देता है।
• बड़ा जल निकाय (Water body) छात्रों की अनुशासनहीनता का कारण बनाता है।
• असंतुलन होने पर शांति का अभाव।
• यदि बच्चे यहां सोते हैं और अच्छा व्यवहार करते हैं तो वे बेहतर अनुशासित होंगे।
• असंतुलित होने पर लोग दूसरों की सलाह नहीं सुनेंगे।

13. यम - YAMA (S) :

• आत्म नियंत्रण और नैतिक कर्तव्य को दर्शाता है।
• जिम्मेदारी की भावना को लागू करता है।
• सही विकल्प बनाता है और एक अनुशाषित जीवन का नेतृत्व करता है।
• यम न्याय के देवता हैं।
• व्यक्ति में कमजोर निश्चय और आत्म नियंत्रण की कमी होती है। इससे कर्ज और अवरुद्ध मन होता है।
• यहां बैठे या सोए हुए लोग स्वयं प्रेरित और आत्म नियंत्रित होते हैं।
• यहाँ असंतुलन निवासियों के बीच कम नैतिकता का कारण बनता है।
• यहाँ टॉयलेट नैतिक मूल्यों को कम करता है।
• यहां पानी का भंडारण काले जादू की भावना देता है।
• यहां रखा गया संगीत कीबोर्ड नियमित रूप से एक अभ्यास कराता है।
• मौत, अवरुद्ध दिमाग।
• असंतुलित होने पर आत्म नियंत्रण गायब होता है।

14. गन्धर्व - GANDHARV (S) :

• संगीत में अच्छे लोगों को गंधर्व कहा जाता है।
• संतुलित छूट, खुशी, छुट्टियां देता है।
• यदि क्षेत्र में कटौती की जाती है, तो लोग लंबे समय तक छुट्टियां नहीं लेंगे।
• यदि यहां पर विस्तारित और लिविंग रूम रखा गया है, तो लोग पार्टी के मूड में हैं और कुछ भी गंभीरता से नहीं लेते हैं।
• यहां सोने से बुरे विचार आते हैं।
• अगर यहां किचन है तो लोग खाने में वैरायटी चाहते हैं।
• डाइनिंग टेबल खाने की चीजों के अधिक व्यय का कारण होगा।
• टीवी, म्यूजिकल सिस्टम यहां मनोरंजन का स्रोत है।
• यहां शराब रखी जा सकती है।
• यदि विस्तारित किया जाता है, तो लोगों को अतिरिक्त आराम मिलेगा और यदि कट जाता है, तो लोग अतिरिक्त सक्रिय होंगे।
• होटल व्यवसाय में इस क्षेत्र का विस्तार करें। इससे फुट फॉल बढ़ेगा।

15. भृंगराज - BHRINGRAJ (SSW) :

• विवेकाधीन शक्ति को लागू करता है।
• जीवन में क्या रखा या हटाया जाना चाहिए।
• गर्भपात और गर्भपात को नियंत्रित करने में मदद करता है।
• चीजों को सही तरीके से आंकने की समझदारी देता है।
• यहाँ शौचालय उत्कृष्ट है।
• यदि यहाँ बिस्तर लगाया जाए तो सभी प्रयास व्यर्थ जाते हैं।
• अगर बढ़ाया जाता है, तो परिवार में अधिक महिलाओं को जन्म होता है।
• बेकार विचारों और चीजों को जाने देने के लिए 20 मिनट बिताने की सलाह दी जाती है।
• प्रवेश - प्रयासों का कुल अपव्यय।
• अगर कोई "क्या करें या क्या न करें" पूछता है, तो इस ऊर्जा क्षेत्र की जांच करें।
• यदि अधिक समय यहाँ व्यतीत किया जाता है, तो कठोर मन का कारण बनता है।

16. मृग - MRIGHA (SW) :

• जिज्ञासा का जनक।
• चीजों के सार को समझने की क्षमता रखता है।
• जिज्ञासा को संतुष्ट करने के लिए खोज करता रहता है।
• यह कौशल के रहस्य को डिकोड करने में मदद करता है।
• कौशल और प्रवीणताएं और उनके मानकों को अधिकतम स्तर तक उठाना।
• स्टडी टेबल और टूल्स रखें।
• ईगल यहाँ दूरदर्शिता और विवरण देता है। व्यापक दृष्टि देता है।
• यहाँ शौचालय, सीखने और सोचने की क्षमता को कम कर देता है।
• आग कुछ भी नया सीखने की शक्ति को बाधित करती है।

17. पितृगण - PITRA (SW) :

• प्रसव और विवाह के लिए जिम्मेदार।
• पारिवारिक बंधन, प्यार और समझ।
• असंतुलित होने पर जीवन की कठिनाइयों से जूझते रहेंगे।
• लोगों का कहना है कि "हम पूरी तरह से परेशान हो जाते हैं।" हमारी समृद्धि रूक जाती है।
• यहाँ शौचालय जीवन में अस्थिरता का कारण बनता है।
• असंतुलित होने पर जीवन में हर दिन समस्याएँ।
• यहाँ सोने से व्यक्ति अत्यधिक आलोचनात्मक और पूर्णतावादी बनता है।
• अपने विचारों को अपने परिवार पर थोपेगा। तो बड़ों और बच्चों के बीच लगातार तनाव।
• यहाँ रसोई पाचन के मुद्दों का कारण बनती है। पुरुषों को अधिक चुनौतियां।
• सीवरेज स्वास्थ्य के गंभीर मुद्दों का कारण बनेगा।
• एलो वेरा के पौधे से बवासीर की समस्या हो सकती है।
• यहां उपकरण न रखें।
• यहां पीली रोशनी वाली फैमिली फोटो बेस्ट है।

18. दौवारिक - DAUWARIK (SW) :

• यह तय करता है कि जीवन में क्या प्रवेश कराना है और क्या छोड़ना है।
• जीवन में फिल्टर के रूप में कार्य करता है।
• चरण वार ज्ञान के लिए जिम्मेदार।
• विवेक / भेदभाव की शक्ति।
• जब कोई व्यक्ति "प्रयासों के कुल अपव्यय" की शिकायत करता है, तो भृंगराज के साथ-साथ दौवारिक को भी देखें।
• यहां नंदी उपाय सबसे अच्छा है।
• यदि यह क्षेत्र कमजोर है तो असुरक्षित संबंध।
• एक गुल्लक बचत के साथ जुड़ा हुआ है।
• यहाँ बिस्तर मन को और सतर्क बनाता है। समझने की बेहतर क्षमता।
• कमजोर क्षेत्र के कारण व्यक्ति पैसे का उपयोग करने या पैसे बचाने में सक्षम नहीं होता है।
• यहां असंतुलन - एक व्यक्ति बेकार उत्पादों पर पैसा बर्बाद करता है।
• छात्र को यह अध्ययन करने के लिए सही गेज देता है कि उसे क्या पढ़ना है और किसी विषय को कितना महत्व देना है।

19. सुग्रीव - SUGREEV (WSW) :

• अच्छी लोभी शक्ति।
• जो केवल समस्याओं को सुनकर समस्याओं का समाधान कर सकता है।
• चीजों को याद रखने की शक्ति।
• जिम या अखाडा बनाने के लिए सबसे अच्छी जगह।
• यहां वॉशिंग मशीन होने पर भूलने की समस्या या याद रखने में असमर्थता।
• लाल रंग नए विचारों के प्रति जलन पैदा करता है।
• काले फ्रेम में गांव का दृश्य यह तय करने की शक्ति देता है कि कहां निवेश करना है और कहां निवेश नहीं करना है।
• संपत्ति खरीदना आसान हो जाता है।

20. पुष्पदन्त - PUSHPDANT (W) :

• आशीर्वाद की शक्ति।
• दिन-प्रतिदिन की समस्याओं को दूर करने की शक्ति देता है।
• असंतुलन के कारण दिन के मामलों का संचालन करने में असमर्थता होती है।
• गज लक्ष्मी यहां बहुत अच्छा उपाय है।
• बेडरूम महान अवसर देता है और सफल बनाता है।
• काले रंग के सोफे के साथ यहाँ रहने का कमरा सभी चर्चाओं को फलदायी बनाता है।
• सफेद फूल यहाँ एक महान उपाय हैं।
• नीला रंग अच्छे परिणाम देता है।
• सुरक्षित (तिजोरी) - सबसे अच्छी जगह। बहुत उपयोगी है।
• यदि संतुलित है, तो सभी पक्षों से सहायता प्राप्त करता है।

21. वरुण - VARUN (W) :

• पानी और महासागरों के भगवान।
• ब्लैक सर्कल यहाँ एक अच्छा उपाय है।
• देखने की क्षमता, विजन।
• सभी कार्यों में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देने के लिए ऊर्जा दें।
• यहाँ सोने से व्यक्ति पूर्णतावादी और महत्वाकांक्षी हो जाता है।
• अच्छी वित्तीय स्थिति यदि यहाँ प्रवेश है।

22. असुर - ASUR (W) :

• मायावी असुर, एक सामंजस्य से बाहर।
• संतुलित होने पर ज्ञान और प्रकाश देता है।
• असंतुलन भ्रम पैदा करता है।
• असंतुलित होने पर असामाजिक कार्यों की ओर जाता है।
• असंतुलन चीजों को प्राप्त करने के लिए गलत तरीकों का उपयोग करने का प्रलोभन देता है।
• अगर संतुलित है, तो आध्यात्मिकता में गहराई है।
• यदि कोई व्यक्ति यहां सोता है, तो वह एक आकर्षक व्यक्तित्व प्राप्त करता है, लेकिन अवसाद में भी हो सकता है। वे आम तौर पर मानसिक रूप से मजबूत होते हैं।
• यहाँ टॉयलेट - पुरुषों को आकर्षक नहीं पाया जाता है।

23. शोष - SHOSHA (WNW) :

• यदि यह एक क्षेत्र असंतुलित है, तो नकारात्मक अनुभव और मानसिक रूप से टूटने के कारण निवासी असहाय महसूस करते हैं। संतुलन उन्हें खुद का समर्थन करने में मदद करता है।
• विचारों को संप्रेषित करने और हमारी भावनाओं को साझा करने की क्षमता और प्रकाश महसूस करने के लिए हमारे दिलों को साफ़ करें।
• थायराइड की समस्या।
• कट के कारण जीवन में अवसाद होता है। भावना व्यक्त करने में असमर्थता।
• यहां शू-रैक और डस्टबिन रखे जा सकते हैं।

24. पापयक्ष्मा - PAPAYAKSHMA (NW) :

• बीमारी, कमजोर दिमाग, नकारात्मक व्यवहार।
• निवासी अपने दिल को नियंत्रित करने में असमर्थ हैं और केवल नकारात्मक बातें करते हैं।
• यहां प्रवेश बुरा है। नशा दे सकते हैं।

25. रोग - ROG (NW) :

• ऊर्जा का प्रवाहक, बुखार।
• अगर संतुलित है, तो यह बीमारियों को नष्ट कर देता है और कठिन समय से निपटने की क्षमता देता है।
• अगर यहाँ प्रवेश द्वार है तो दर्द की तरह मौत।
• यदि संतुलित है, तो एक व्यक्ति को ऊर्जावान और सहायक बनाता है।
• शौचालय - समर्थन प्राप्त करने में विफल रहता है।
• असंतुलित होने पर परिवार की माँ अधिक परेशान होती है।
• यहां रखी ग्रे स्टोन्स या इसी तरह की तस्वीरें स्थिरता देती हैं।
• अगर कोई दावा करता है - "बॉस समर्थन नहीं कर रहा है, तो यहां बॉस के साथ अपनी खुद की फोटो रखें"।
• परिवार की फोटो भी यहाँ अनुशंसित है।
• पीतल का तत्व यहाँ अच्छा है।
• अगर यहाँ प्रवेश द्वार है तो “इज्जत की धज्जिया उड़ जाती हैं"।

26. नाग - NAG (NW) :

• वासना और इच्छा उत्पन्न करता है।
• प्रवेश द्वार ईर्ष्या का कारण बनता है।
• यहां असंतुलन लोगों को आकर्षित करेगा लेकिन वे ईर्ष्या करेंगे।
• यहां के उत्पाद लोगों को आकर्षित करेंगे।
• यहां आईना भौतिकवादी इच्छाओं को कई गुना बढ़ा सकता है।
• यहां लोहे की मेज की सिफारिश नहीं की जाती है।
• शू-रैक की अनुमति नहीं है।
• यदि यहां डस्टबिन रखा जाए तो निवासियों को दूसरों द्वारा कम पसंद किया जाता है। लोग ऐसे निवासियों से खुद को जोड़ना नहीं चाहते हैं।
• लक्ष्मी जी की सिल्वर मूर्ती फाइनेंशियल गेन्स के लिए बेहतरीन है।

27. मुख्य - MUKHYA (NNW) :

• यदि जोन अच्छी तरह से व्यवस्थित है, तो घर अच्छी तरह से व्यवस्थित होगा।
• अगर यहाँ माँ या सास सो रही है, तो वह घर की एक बड़ी देखभाल करने वाली होगी।

28. भल्लाट - BHALLAT (N) :

• जीवन में बड़ी चीजों को प्राप्त करने में मदद करता है।
• कुबेर के धन का रक्षक।
• यदि यहां से प्रवेश किया जाता है तो पुरुष प्रधान परिवार।
• असंतुलन - पिता के साथ कलह और बच्चों को पिता से कोई संपत्ति नहीं मिलेगी।
• बड़ी पत्तियों वाला मनी प्लांट रखें।

29. सोम - SOMA (N) :

• मुनाफा कमाने की शक्ति।
• चंद्रमा के साथ संबद्ध।
• पैसे की समझ।
• यहाँ का गेट आग को कमजोर बनाता है और इस प्रकार एक व्यक्ति को संतुष्ट करता है।
• वह भाषण के स्वामी भी हैं जिन्हें "वाचस्पति" भी कहा जाता है।
• वह मन पर राज करता है।

30. भुजंग - BHUJANG (N) :

• अनंत नाग। स्वास्थ्य के खजाने की रक्षा करता है।
• असंतुलन होने पर व्यक्ति बहुत असभ्य होता है और बहुत बीमार पड़ता है। किसी की अवहेलना कर सकते हैं।
• मन चिड़चिड़ा और बेचैन है।
• डस्टबिन से गले में जलन होगी।
• भारी सामान से जबड़े और मुंह के क्षेत्र में समस्या होगी।
• पानी के भंडारण से लगातार सर्दी और खांसी होगी।
• यहां रसोई सबसे खराब है।
• स्टोर केवल बीमारियाँ देगा।
• डोर, टॉयलेट, नमी बड़ी बीमारी का कारण बनेगी।

31. अदिति - ADITI (NNE) :

• सभी बाधाओं को दूर करने की शक्ति।
• असंतुलित होने पर कोई मानसिक शांति नहीं।
• जीवन को संतुलित करने के लिए, इस क्षेत्र को संतुलित होना चाहिए।
• अगर चीजों का समापन करते समय, हम अंतिम क्षण में तनाव में आते हैं, तो किसी भी असंतुलन के लिए इस क्षेत्र को देखें।
• माता समान क्षेत्र।
• यदि हम दिशाहीन महसूस करते हैं, तो इस क्षेत्र की जाँच करें।
• यदि इस क्षेत्र को बढ़ाया जाता है, तो व्यक्ति अपनी समस्याओं को हल करने के लिए गुरुओं की खोज करते रहेंगे।

32. दिति - DITI (NE) :

• व्यापक मन, दूर-दृष्टि।
• यह बहुत गहरे स्तर तक प्रभाव डालता है।
• संतुलित होने पर सभी द्वंदों को दूर करता है।
• No कहने की शक्ति इस क्षेत्र से आती है। 
• असंतुलित होने पर लोग परम्पराओं और नियमों का पालन नहीं करेंगे / भ्रमित दिमाग रहेगा। 
• अगर यहाँ प्रवेश द्वार है तो यह आध्यात्मिकता देता है तथा घर के महत्वपूर्ण निर्णयों में महिलाओं का प्रभुत्व होगा।

INNER RING Of DEVTAS :

33. रुद्र - RUDRA (NW) :

• चैनल समर्थन।
• गतिविधियों के प्रवाह के लिए जिम्मेदार शिव रूप।
• बिना किसी रुकावट के दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों को बनाए रखना।
• भावनात्मक असंतुलन।
• विचारों का प्रवाह।
• आसानी से काम पूरा करने की क्षमता।

34. रुद्र जय / राजयक्ष्मा - RUDRA JAYA / RAJYAKSHAMA (NW) :

• धारक।
• यह आगे के कार्यान्वयन के लिए दिमाग में विचार को रोकने में मदद करता है।
• असंतुलित होने पर समर्थन आएगा लेकिन टिकेगा नहीं।

35. आप - APAHA (NE) :

• चिकित्सा के साथ जुड़े।
• असंतुलन होने पर यह उपचार शक्ति को नष्ट कर देगा।
• चुनौतियों का सामना करने और इसे दूर करने की क्षमता।

36. आपवत्स - APAHAVATSA (NE) :

• Apaha विचारों को लाता है, Apahavatsa इन विचारों को व्यावहारिक अनुप्रयोग की ओर ले जाता है।

37. सविता - SAVITA (SE) :

• ध्यान की शक्ति।
• यह क्षेत्र किसी भी प्रकार की समस्याओं के लिए समाधान देने में सक्षम है।
• संतुलन समर्थन, दृढ़ संकल्प और इच्छा शक्ति देगा।
• इस अंचल में गणेश जी की उपस्थिति बहुत अच्छी है।

38. सावित्र - SAVITRA (SE) :

• काम करने की असीमित क्षमताएं।
• गायत्री मंत्र इस देवता को समर्पित है।
• श्री यंत्र यहाँ लाभदायक है।

39. इन्द्र - INDRA (SW) :

• पारिवारिक स्थिरता, बुनियादी विकास, विचार प्रक्रिया।

40. जय - JAYA (SW) :

• चैनल जिसमें इंद्र की विचार प्रक्रिया प्रकट की जा सकती है।

41. भूधर - BHUDHAR (NNW, N, NNE) :

• घटना को घटित करने (Manifestation) की शक्ति।

42. अर्यमा - ARYAMA (ENE, E, ESE) :

• कनेक्टर।
• विकास का समर्थन करता है।
• भौतिक जगत से संबंध रखता है।
• दूल्हे के लिए दुल्हन पाने में मदद करता है।

43. विवस्वान - VIVASWAN (SSE, S, SSW) :

• परिवर्तन के नियंत्रक।
• अभिव्यक्ति की प्रक्रिया को और आगे बढ़ाता है।

44. मित्र - MITRA (WSW, W, WNW) :

• प्रेरक।
• प्रेरणा देता है।
• उत्तेजना और समन्वय की शक्ति।
• दुनिया को एक साथ रखने की शक्ति।

45. ब्रह्मा (केंद्र) - BRAHMA (Center) :

• सर्वोच्च निर्माता।

वास्तुशास्त्र में निर्मित स्थान में देवों और असुरों के रूप में काम करने वाली 45 शक्तियों का वर्णन है। यह हमारे जीवन में आवश्यक वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए हमारे घर में 45 शक्तियों को सही संतुलन में रखने के लिए मार्गदर्शन करता है।

गृह के निर्माण काल में कक्षों का निर्धारण आदि तदनुसार किया जाना चाहिए। तत्पश्चात गृह का प्रयोग एवं हर कार्य भूभाग के अधिष्ठाता के अनुरूप ही शुभ होता है। वास्तुपुरुष के प्रत्येक अंग-पद में स्थित देवता के अनुसार उनका सम्मान करते हुए उसी अनुरूप भवन का निर्माण, विन्यास एवं संयोजन करने की अनुमति शास्त्रों में दी गयी है। ऐसे निर्माण के फलस्वरूप वहां निवास करने वालों को सुख, सौभाग्य, आरोग्य, प्रगति व प्रसन्नता की प्राप्ति होती है।

इसलिए वास्तु शास्त्र के अनुसार यदि किसी भवन का निर्माण वास्तु पुरूष मंडल के अनुसार किया जाता है तो इमारत में समृद्धि होती है और निवासियों को हमेशा खुशहाली, स्वास्थ्य, संतुष्टी, निरंतर समृद्धि और धनलाभ होता है।

 एक घर में कमरे बनाने के दौरान, हम यह सुनिश्चित करते हैं कि उस क्षेत्र के किसी भी देवता का वास्तु पुरूष मंडल में अपमान न हो। इसलिए वास्तु शास्त्र हर समय सभी देवताओं को खुश रखने के लिए दिशा-निर्देश और सिद्धांत देता है।

इशान्यां देवता गृहम्, पूर्वस्यां स्नानमंदिरम्।

आग्नेयां  पाक सदनं भांडारं गृहमुत्तरे।

आग्नेयपूर्वयोर्मध्ये दधिमंथन मंदिरम्।

अग्निप्रेतेशयोर्मध्ये आज्यगेहं प्रशस्यते।

याम्य नैऋत्योर्मध्ये पुरुषत्यागमंदिरम।

नैऋत्याम्बुजपयोर्मध्ये विद्याभयस्य मंदिरम।

पश्चिमानिलयोर्मध्ये रोदनार्थ गृह स्मरतम्।

वायव्योत्तरमध्ये रति गेहं प्रशस्यते।

उत्तरेशानयोर्मध्ये औषधार्य तू कारयेत्।

नैऋत्यां सूतिकागेहं  नृपाणान् भूतिमिच्छता।

ईशान (North East) कोण में देवता का गृह, पूर्व (East) दिशा में स्नान गृह, अग्निकोण (South East) में रसोई बनाना चाहिए। उत्तर (North) में भंडार गृह, अग्निकोण व पूर्व दिशा के मध्य (East South East) दही मथने का कार्य, अग्नि कोण और दक्षिण ( South South East) में घी  स्थान बनाना चाहिए।

दक्षिण व नैऋत्य के मध्य (South South West)  शौच करने का स्थान, नैऋत्य और पश्चिम (West South West) दिशा के मध्य विद्याभ्यास का स्थान बनाना चाहिए।

पश्चिम और वायव्य  के मध्य (West North West) रोदन गृह का स्थान, वायव्य और उत्तर (North North West) के मध्य रतिस्थान बनाना चाहिए।

उत्तर दिशा और ईशान के मध्य  (North North East) औषधि स्थान, और नैऋत्य कोण (South West) में सूतिका गृह या औजार (Tools) स्थान बनाना वास्तु सम्मत निर्माण होता है।

(विश्वकर्माप्रकाश वास्तुशास्त्रं)

इस प्रकार प्राचीन वास्तुशास्त्र - विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र में क्रमशः 16 दिशाओं का वर्णन विस्तार से है।

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